एक साक्षात्कार – डॉ अर्पण जैन अविचल का…

नाम: डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

पिता: श्री सुरेश जैन

माता: श्रीमती शोभा जैन

पत्नी: श्रीमती शिखा जैन

जन्म: २९ अप्रैल १९८९

शिक्षा: बीई (संगणक विज्ञान अभियांत्रिकी)

एमबीए (इंटरनेशनल बिजनेस)

पीएचडी- भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ

पुस्तकें:

१. मेरे आंचलिक पत्रकार ( आंचलिक पत्रकारिता पर केंद्रित पुस्तक )

२. काव्यपथ ( काव्य संग्रह)

३. राष्ट्रभाषा (तर्क और विवेचना)

४. नव त्रिभाषा सूत्र (भारत की आवश्यकता)

साझा संग्रह:

१ मातृभाषा – एक युग मंच ( साझा काव्य) संग्रह

२. मातृभाषा. कॉम ( साझा काव्य संग्रह )

३. मरीचिका ( साझा काव्य संग्रह )
४. विचार मंथन ( साझा आलेख संग्रह )

५. कथा सेतु ( साझा लघुकथा संग्रह)

संपादन: मातृभाषा.कॉम

दायित्व:

राष्ट्रीय अध्यक्ष- मातृभाषा उन्नयन संस्थान

राष्ट्रीय अध्यक्ष- पत्रकार संचार परिषद

राष्ट्रीय उपाध्यक्ष- राष्ट्रीय मानव अधिकार परिषद महासंघ

अध्यक्ष- सेंस फाउंडडेशन

सदस्य- इंदौर प्रेस क्लब

सदस्य- फिल्म डायरेक्टर एसोसिएशन, मुंबई

 पत्रकारिता:

प्रधान संपादक- खबर हलचल न्यूज ( साप्ताहिक अख़बार)

प्रधान संपादक- के एन आई न्यूज ( न्यूज एजेंसी)

प्रधान संपादक- मधुकर संदेश

 व्यवसाय:

समूह सह संस्थापक- सेंस समूह

मुख्य कार्यकारी निदेशक- सेंस टेक्नॉलोजिस

संस्थापक- मातृभाषा.कॉम

संस्थापक- हिन्दीग्राम

संस्थापक- इंडियन रिपोर्टर्स

संपर्क: +९१- ७०६७४५५४५५ | +९१-९४०६६५३००५ | +९१-९८९३८७७४५५

अणुडाक: arpan455@gmail.com | अंतरताना:  www.arpanjain.com

पता: एस-२०७, नवीन परिसर, इंदौर प्रेस क्लब, म.गां. मार्ग , इंदौर (मध्यप्रदेश) ४५२००१

सम्मान:
1. पत्रकार विभूषण अलंकरण (आईजा, मुंबई)
2. गणेश शंकर विद्यार्थी श्रेष्ठ पत्रकार सम्मान ( गणेश शंकर विद्यार्थी प्रेस क्लब, इंदौर इकाई)
3. नगर रत्न अलंकरण ( इंदौर )
4. काव्य प्रतिभा सम्मान (इंदौर)
5. Leaders of Tomorrow Award (Indiamart, Mumbai)
6. नेशन प्राईड, इंडिया एक्सीलेंस अवार्ड ( प्रतिमा रक्षा मंच, दिल्ली)

  1. हिन्दी साहित्य रत्न सम्मान (साहित्य संगम संस्थान, तिरोड़ी) ….. आदि

जीवन परिचय: डॉ.  अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्यप्रदेश के धार जिले की छोटी-सी तहसील कुक्षी में पले बड़े, और फिर आर्थिक राजधानी इंदौर में शिक्षा-दीक्षा लेकर पत्रकारिता जगत में कदम रखते हुए व्यवसायी बनें हैं |  29 अप्रैल, 1989 को कुक्षी में जन्मे अर्पण अपने माता-पिता के दो बच्चों में से सबसे बड़े हैं। उनकी एक छोटी बहन हैं। उनके पिता सुरेश जैन बिल्डिंग और सड़क निर्माण का कार्य करते है। परन्तु पिता के कारोबार में रूचि न होने और अपनी अलग दुनिया बनाने के ख्वाइश ने अर्पण को टेक्नोक्रेट बना दिया |

अर्पण जैन ने आरंभिक शिक्षा कुक्षी के वर्धमान जैन हाईस्कूल और शा. बा. उ. मा. विद्धयालय कुक्षी में हासिल की, तथा फिर इंदौर में जाकर राजीव गाँधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्धयालय के अंतर्गत एसएटीएम कॉलेज से कम्प्यूटर साइंस में बेचलर ऑफ इंजीनियरिंग (बीई-कंप्यूटर साइंस) में ग्रेजुएशन की पढ़ाई के दौरान ही अर्पण जैन ने सॉफ्टवेयर व वेबसाईट का निर्माण शुरू कर दिया था। इसी दौरान सॉफ्टवेयर कंपनी में नौकरी भी की |

एक मध्यवर्गीय परिवार से आने वाले किसी भी शख्स का सपना क्या होता है? यही न कि एक अच्छी शिक्षा प्राप्त करने के बाद मोटी रकम वाली सम्मानजनक नौकरी मिल जाए। लेकिन अर्पण अपनी इस 9 से 5 वाली और मौटे वेतन वाली नौकरी से संतुष्ट नहीं थे। एक दिन उन्होंने अपने कंफर्ट क्षेत्र से बाहर निकलने का फैसला किया और अपना खुद का उद्यम शुरू किया। सपने बड़े होने के कारण स्वयं की कंपनी बनाने का ख्वाब पूरा करने में अर्पण जुटे तो सही परन्तु दो माह बिना नौकरी के भी घर पर ही भविष्य की रणनीति बनाने के दौरान सभी बचत ख़त्म कर चुके अर्पण के जेब में मात्र १५० रुपये ही बचे थे | मात्र १५० रुपये लेकर ११ जनवरी २०१० को ‘सेन्स टेक्नोलॉजीस’ की शुरुआत हुई, अर्पण ने फॉरेन ट्रेड में एमबीए किया,तथा पत्रकारिता के शौक के चलते एम.जे. की पढाई भी की है | समाचारों की दुनिया ही उनकी असली दुनिया थी, जिसके लिए उन्होंने सॉफ्टवेयर के व्यापार के साथ ही खबर हलचल वेब मीडिया की स्थापना की और इसे भारत की सबसे तेज वेब चेनल कंपनियों में से एक बना दिया। साथ ही ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनोतियाँ’ पर ही अर्पण ने अपना शोध कार्य किया है| सेंस टेक्नॉलजीस और खबर हलचल न्यूज भारत के लगभग 29 राज्यों में 180 से ज़्यादा लोगो की टीम के साथ कार्यरत पंजीकृत कंपनी है।

अर्पण जैन ‘अविचल’ ने अपने कविताओं के माध्यम से भी समाज में स्त्री की पीड़ा, परिवेश का साहस और व्यवस्थाओं के खिलाफ तंज़ को बखूबी उकेरा हैं और आलेखों में ज़्यादातर पत्रकारिता के आधार आंचलिक पत्रकारिता को ज़्यादा लिखा हैं |

अर्पण ने व्यापार के दूसरे क्षेत्रों में भी उत्कृष्ट सफलताएँ प्राप्त की हैं। पत्रकारिता से अपने गहरे सरोकार को दर्शाते हुए उन्होंने भारत के पत्रकारों के लिए पहली सोशल नेटवर्किंग साइट ‘इंडियनरिपोर्टर्स (www.IndianReporters.com)’  बनाई, जिसके फलस्वरूप पंजाब, उत्तराखंड और सिक्किम जैसे भारत के सभी राज्यों के पत्रकार जुड़े हुए हैं | जैन ने कई संस्थाओं के साथ जुड़ कर पत्रकारिता के क्षेत्र में भी और अन्य सामाजिक कार्यों और जनहितार्थ आंदोलनों में भी सक्रिय भूमिका निभाई है|

समाचारों की दुनिया से जुड़े होने के कारण अर्पण का हिन्दी प्रेम प्रगाड़ होता चला गया, इसी के चलते डॉ. अर्पण ने मातृभाषा.कॉम की शुरुआत की और फिर तब से लेकर आज तक हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने के लिए प्रतिबद्ध होकर कार्यरत रहे | इस दौरान भारत के विभिन्न राज्यों में हिन्दी भाषा के महत्व को स्थापित करने के लिए यात्राएँ की, जनमानस को हिन्दी से जोड़ा, और मातृभाषा उन्नयन संस्थान और हिन्दी ग्राम की स्थापना की | इसी प्रकल्प में योगगुरु और पतंजलि योगपीठ के सूत्रधार स्वामी रामदेव जी का आशीर्वाद मिला | वर्तमान में हिन्दी के गौरव की स्थापना हेतु व हिन्दी भाषा को राजभाषा से राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए संघर्षरत डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ भारतभर में इकाइयों का गठन करके आंदोलन का सूत्रपात कर रहे हैं, और वे मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी है और हिन्दी ग्राम के संस्थापक भी हैं | डॉ. वेद प्रताप वैदिक के संरक्षण में संस्थान देश भर में हस्ताक्षर बदलो अभियान संचालित कर रही हैं|

 व्यक्तित्व (कार्य करने का तरीका) : किसी भी परिस्थिति में न हारना न अपने समूह को हारने देने के मूल वाक्य की तरह ही डॉ. अर्पण जैन अविचल कार्य करते हैं | ज़िद करों- दुनिया बदलोको मैं अपना कर्म वाक्य मानता हूँ |

 संघर्ष काल- व्यापार के बालपन में ही संघर्ष का कठिन काल मेरे जीवन में आया जिस दौरान आर्थिक नुकसान भी बहुत उठाया, इसी दौरान मेरे माता-पिता और परिवार के सहयोग से पुन: स्थापित हो पाया और उसके बाद जीवन का लक्ष्य ही बदल गया | हिन्दी भाषा के गौरव की स्थापना का ध्येय भी इसी दौरान चुना|

सफलता का राज: ‘मेहनत इतनी खामोशी से करो, कि सफलता शौर मचा दें’ इसी तथ्य के साथ सतत मेहनत और श्रम किया जाए तो जीवन में असफलता कभी छू भी नहीं सकती |

सबसे बड़ी उपलब्धि: जीवन में सबसे पहली और बड़ी उपलब्धि यह रही की उम्र के मात्र २१वें वर्ष में ही जिस प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में कार्य किया उसे खरीद कर अपनी ज़िद को साबित किया | फिर महज ५ वर्षों में ही पत्रकारिता जगत से लेकर साहित्य की दुनिया में एक अदद पहचान कायम कर सकने में कामयाब रहा |

भविष्य की योजना: वैसे तो अब संपूर्ण जीवन ही हिन्दी की सेवा में समर्पित कर चुका हूँ तो इसी तारतम्य में हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करवाना तथा हिन्दी को संपूर्ण राष्ट्र के अभिमान स्वरूप जनभाषा के रूप में स्थापित करवाने में हर संभव गतिशील रहना ही मेरे भविष्य की योजनाओं में शामिल हैं| साथ ही भारत में पत्रकारिता की शुचिता हेतु कार्य करना भी लक्ष्य हैं |

समाज को संदेश: समाज में निरंतर मानवता की हत्या सारे आम हो रही है, सबसे पहले हम भी मानव बने और बच्चों को मानव बनाएँ | इसके बाद हमेशा ज़िद करो तभी दुनिया बदलने का माद्दा रख पाओगे | क्योंकि ये दुनिया जिद्दी व्यक्तियों ने ही बदली है, बाकी ने उन जिद्दी लोगों का अनुसरण ही किया है | मेहनत का कोई अन्य विकल्प नहीं होता, केवल भाग्य के भरोसे या शार्टकट से कोई सफलता नहीं मिलती|

सुनो…मेरे यार

सुनो,
ये सब इतना आसान नहीं था,
न ही इतना सहज था,
न हो सकता था प्रेम,
न ही हो सकता था द्वेष,

सबकुछ अचानक से नहीं हुआ,
जितने सरल रुप में दुनिया ने देखा,
गुजरे जमाने की यादों के सहारे
मैने जिया है तुम्हें, तुम्हारे रंग को..

मैने पाया नहीं तुम्हें अचानक से,
मैने जीता है तुम्हारा विश्वास, तुम्हारा प्रेम,

तब जाकर कहीं मुकम्मल हुई है
मेरे खतों के किरदार की गज़ल

हाँ !
बिलकुल वैसे ही रिश्तों से परते छँट गई,
जैसे किताबों में रखे सुखे गुलाब में आई हो जान..
मेरे किवाड़ से आने वाली हवा के
संदेशों को मैने
तु़झमे महसूस करके
पाया है तुम्हें
और तुम्हारे प्यार को…
सलामत रहें मेरा प्यार…
मेरा यार..

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
हिन्दीग्राम,इंदौर

अंतर्राज्यीय भाषा समन्वय से भारत में स्थापित होगी हिन्दी

अंतर्राज्यीय भाषा समन्वय से भारत में स्थापित होगी हिन्दी

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

विविधताओं में एकता की परिभाषा से अलंकृत राष्ट्र यदि कोई हैं तो भारत के सिवा दूसरा नहीं | यक़ीनन इस बात में उतना ही दम हैं जितना भारत के विश्वगुरु होने के तथ्य को स्वीकार करने में हैं | भारत संस्कृतिप्रधान और विभिन्न जाति, धर्मों, भाषाओं, परिवेश व बोलियों को साथ लेकर एक पूर्ण गणतांत्रिक राष्ट्र बना | इसकी परिकल्पना में ही सभी धर्म, पंथ, जाति और भाषाओं का समावेश हैं |

जिस राष्ट्र के पास अपनी २२ संवैधानिक व अधिकारिक भाषाएँ हों, जहां पर कोस-कोस पर पानी और चार कोस पर बानी बदलने की बात कही जाती है, जहां लगभग १७९ भाषाओं ५४४ बोलिया हैं बावजूद इसके राष्ट्र का राजकाज एक विदेशी भाषा के अधिकनस्थ और गुलामी की मानसिकता के साथ हो रहा हो यह तो ताज्जुब का विषय हैं | स्वभाषाओं के उत्थान हेतु न कोई दिशा हैं न ही संकल्पशक्ति | भारतीय भाषाएं अभी भी विदेशी भाषाओं के वर्चस्व के कारण दम तोड़ रही रही हैं | एक समय आएगा जब देश की एक भाषा हिन्दी तो दूर बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं की भी हत्या हो चुकी होगी | इसलिए राष्ट्र के तमाम भाषा हितैषियों को भारतीय भाषाओं में समन्वय बना कर हिन्दी भाषा को राष्ट्र भाषा बनाना होगा और अंतर्राज्यीय कार्यों को स्थानीय भाषाओं में करना होगा | अँग्रेजियत की गुलाम मानसिकता से जब तक किनारा नहीं किया जाता भारतीय भाषाओं की मृत्यु तय हैं| और हिन्दी को इसके वास्तविक स्थान पर स्थापित करने के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि इसकी स्वीकार्यता जनभाषा के रूप में हो | यह स्वीकार्यता आंदोलनों या क्रांतियों से नही आने वाली है | इसके लिए हिन्दी को रोजगारपरक भाषा के रूप में विकसित करना होगा क्योंकि भारत विश्व का दूसरा बड़ा बाजार हैं और बाजारमूलक भाषा की स्वीकार्यता सभी जगह आसानी से हो सकती हैं | साथ ही अनुवादों और मानकीकरण के जरिए इसे और समृद्धता और परिपुष्टता की ओर ले जाना होगा |

हमारे राष्ट्र को सृजन की ऐसी आधारशिला की आवश्यकता हैं जिससे हिन्दी व क्षेत्रीय भाषाओँ के उत्थान के लिए एक ऐसा सृजनात्मक द्दष्टिकोण विकसित हो जो न सिर्फ हिन्दी व क्षेत्रीय भाषाओँ को पुष्ट करेगा बल्कि उन भाषाओ को एक दूसरे का पूरक भी बनाएगा। इससे भाषा की गुणवता तो बढ़ेगी ही उसकी गरिमा फिर से स्थापित होगी। आज के दौर में हिन्दी को लेकर जो नकारात्मकता चल रही है उसे सकारात्मक मूल्यों के साथ संवर्धन हेतु प्रयास करना होगा|

भारतीय राज्यों में समन्वय होने के साथ-साथ प्रत्येक भाषा को बोलने वाले लोगो के मन में दूसरी भाषा के प्रति भरे हुए गुस्से को समाप्त करना होगा | जैसे द्रविड़ भाषाओं का आर्यभाषा,नाग और कोल भाषाओं से समन्वय स्थापित नहीं हो पाया, उसका कारण भी राजनीति की कलुषित चाल रही, अपने वोटबैंक को सहेजने के चक्कर में नेताओं ने भाषाओं और बोलियों के साथ-साथ लोगो को भी आपस में मिलने नहीं दिया | इतना बैर दिमाग़ में भर दिया कि एक भाषाई दूसरे भाषाई को अपना निजी शत्रु मानने लग गया, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए था| हर भारतवंशीय को स्वभाषा का महत्व समझा कर देश की एक केंद्रीय संपर्क भाषा के लिए तैयार करना होगा. क्योंकि विश्व पटल पर भारत की कोई भी राष्ट्रभाषा नहीं हैं, विविधताओं के बावजूद भी भारत की साख में केवल राष्ट्रभाषा न होना भी एक रोड़ा हैं| हर भारतीय को चाहना होगा एक संपर्क भाषा वरना दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदर रोटी खा जाएगा, मतलब साफ है कि यदि हमारी भारतीय भाषाओं के बीच हो लड़ाई चलती रही तो स्वभाविक तौर पर अँग्रेज़ी उस स्थान को भरेगी और आनेवाले समय में एक अदने से देश में बोली जाने वाली भाषा जिसे विश्व में भी कुल ७ प्रतिशत से ज़्यादा लोग नहीं बोलते भारत की राष्ट्रभाषा बन जाएगी |

स्वभाषाओं के बीच समन्वय का सबसे बेहतर विकल्प हैं- अंतर्राज्यीय भाषा सम्मेलन परिचर्चा | भारत के प्रत्येक वर्चस्वशील भाषाओं के बीच में साहित्यिक समन्वय से शुरुआत की जा सकती हैं | जैसे एक कवि सम्मेलन में तमिल, तेलगु, मलयाली भाषा के कवियों को आमंत्रित किया जाए और साथ में एक-एक हिन्दी अनुवादक लाए जाए जो तमिल की रचना को हिन्दी में सुनाए और हिन्दी की रचना को तमिल आदि भाषा में | साथ में भाषाओं के बोलने वालों के बीच समन्वय हेतु चर्चाओं का दौर शुरू हो, एक-दूसरे को स्वभाषा का सम्मान  बताया जाए, कमियाँ न गिना कर समन्वय की स्थापना की जाए | जब यह कार्य वृहद स्तर पर होने लगेगा तो निश्चित तौर पर हिन्दी राष्ट्र की जनभाषा का दर्जा पुन: प्राप्त कर लेगी और राष्ट्रभाषा बनने की कठिनाई भी दूर होगी|

साथ-साथ जनता में भाषा को लेकर राजनैतिक दूषिता को भी दूर करना होगा | एक भाषा की स्वीकार्यता के लिए सभी स्वभाषाओं का सम्मान करना सबसे आवश्यक कदम है | देश के २९ राज्यों और ७ केंद्रशासित राज्यों में भाषा की एकरूपता और स्वीकार्यता बहुत आवश्यक हैं | जनभाषा बनने के लिए हिन्दी भाषियों को भी विशाल हृदय का परिचय देते हुए अन्य भाषी समाज को स्वीकारना होगा तो अन्य भाषाओं के लोगों को हिन्दी भाषियों के साथ भी समन्वय रखना होगा| इसमे शासकीय भूमिका और मंशा भी महत्वपूर्ण कड़ी है | अन्यथा जनता की स्वीकारता को सरकार कमजोर भी कर सकती है यदि उनकी मंशा नहीं हैं तो | फिर भी जनतंत्र में जनता से बड़ी कोई इकाई नहीं हैं | जहाँ जनमत चाहेगा की एक भाषा हो, हिन्दी हमारी राष्ट्र की प्रतिनिधि भाषा हो तब सरकार को भी झुकना होगा | ‘एक साधे-सब सधे’ के सूत्र से राष्ट्र में भाषा क्रांति का सूत्रनाद संभव हैं, अन्यथा ढाक के तीन पात|

राजनीति से बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि इन्हीं राजनैतिक छल-प्रपंचों ने हिन्दी को अभी तक स्वाभिमान नहीं दिलाया | इन्ही पर किसी शायर का एक शेर है –

गर चिरागों की हिफ़ाज़त फिर इन्हें सौंपी गई,

तो रोशनी के शहर में बस अंधेरा ही रह जाएगा…

 

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

पत्रकार एवं स्तंभकार

[ लेखक डॉ. अर्पण जैनअविचलमातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं| ]

 

लघुकथा- चुनौती

*चुनौती*
सुन निगोड़ी… रोज सुबह उठ कर कहा चली जाती है, रोज के काम करना ही नहीं चाहती,
घर के बर्तन, कपड़े, खाना बनाना ये सब कौन करेगा…? तेरी माँ???
नौकरी से ज्यादा जरुरी घर का काम भी है…

रमा की सास ने रमा को डाँटते हुए कहा.. इसी बीच रमा का पति आकर कहने लगा…

*’रमा इस बार मकान की किश्त तुम तुम्हारी तनख्वाह से चुका देना, मेरी तन्ख्वाह इस बार भी नहीं मिली है……😔’*

अब चुनौती रमा के लिए यह है कि सास के काम में हाथ बटाएं या नौकरी करके घर चलाएं…?

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*

हिन्दीग्राम, इंदौर

झुलस रहा गणतंत्र, यह राष्ट्र धर्म नहीं

झुलस रहा गणतंत्र, यह राष्ट्र धर्म नहीं ===================================================== डॉ. अर्पण जैन अविचल

जहाँ हुए बलिदान प्रताप और जहाँ पृथ्वीराज का गौरव हो, जहाँ मेवाड़ धरा शोभित और जहाँ गण का तंत्र खड़ा हो, ऐसा देश अकेला भारत है, परन्तु वर्तमान में जो हालात विश्वपटल पर पहुँचाए जा रहे है वो भारत का असली चेहरा नहीं |

बलिदानों और शूरवीरों की धरा पर बच्चों पर हमले, राष्ट्र के इतिहास के नाम पर भविष्य पर पथराव ये राष्ट्र गौरव नहीं बल्कि राष्ट्र को बदनाम करने की सुपारी लेकर काम करने की नीयत ही प्रतीत होती है|

गणतंत्र दिवस पर इस बार इतिहास खुद को दोहराएगा। भारत ने 26 जनवरी 1950 को अपना पहला गणतंत्र दिवस मनाया था और उस समय दक्षिण पूर्व एशिया के दिग्गज नेता और इंडोनेशिया के पहले राष्ट्रपति सुकर्णो मुख्य अतिथि थे। आजादी के 68 साल बाद भारत ने एक बार फिर इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विदोदो को गणतंत्र दिवस पर आमंत्रित किया है।

                              हालांकि इस बार सिर्फ इंडोनेशिया के राष्ट्रपति ही मुख्य अतिथि नहीं होंगे। भारत ने आसियान के नौ अन्य राष्ट्राध्यक्षों को भी इस ऐतिहासिक पल के लिए आमंत्रित किया है जो गणतंत्र दिवस की परेड में भारत की सैन्य क्षमता और सांस्कृतिक विविधता के गवाह बनेंगे। दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संगठन आसियान के 10 देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित किया है जो अपने आप में अप्रत्याशित है।

और इस गौरव क्षण में राष्ट्र जातिवाद के दावानल में जल रहा है, विरोध तो इतिहास के साथ हुई खिलवाड़ का होना था, परन्तु कहीं मासूम बच्चों की स्कूली बस पर पथराव तो कहीं बसें जलाई जा रही है | ये सब सोची समझी साजिश है हिन्द की अस्मिता को दाँव पर लगा कर वैश्विक मंच पर बदनाम करने की |

राष्ट्र आन्तरिक कलह की आग में झुलस रहा है,और झुलसा हुआ शरीर लेकर क्या हम गणतंत्र दिवस मनाएंगे ? आखिर शर्म तो तब आनी चाहिए थी जब देश के अंदर ही जयचंद जिन्दा हो |

राष्ट्रीय पर्व के समीप आते ही गर्व और शौर्य का परचम लहराने वाले राजपूतों के नाम पर करणी सेना बना कर शौर्य को बदनाम करने का बीड़ा उठाकर राष्ट्र को तोड़ा जा रहा है |खण्डित गणतंत्र क्या राष्ट्रधर्म का निर्वाह कर रहा है ??

धिक्कार है ऐसे शिखंडियों पर, जो राष्ट्र के गौरव और सम्मान को विश्व पटल पर लज्जित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हो |अब भी हमारी आजादी और गणतंत्र अधूरा है, क्योंकि अभी भी जयचंद जिन्दा है |

भामाशाह और प्रताप के वंशज ऐसा तो नहीं कर सकते, क्योंकि सुना है शेर पुष्प और मासूम घास नहीं खाता|

परन्तु दुर्भाग्य है इस देश का कि यहाँ चंद चांदी के सिक्को की खनक से माँ का चीर हरण भी सहर्ष देखा और खरीदा जा सकता है |करणी सेना द्वारा जो राष्ट्रीय पर्व के समिप ही राष्ट्र संपत्तियों को नुकसान पहुँचाया जा रहा है, ये उनके जयचंद होने के प्रमाण से ज्यादा क्या होगा | भारत में जिस तरह से करणी सेना पद्मावत फिल्म के विरोध में राष्ट्र संपत्ति पर प्रहार कर रही हैं, ये लोकतंत्र या गणतंत्र नहीं बल्कि विरोध के तरीके से राष्ट्रीय नुकसान हैं |

बहरहाल देश को झुलसने से बचाने में अपना सर्वस्व अर्पण करें, वर्ना हम एक दिन बिखरा हुआ राष्ट्र और खण्ड-खण्ड विखंडित समाज ही बच्चों को विरासत में सौंप पाएंगे |

 डॉ. अर्पण जैन अविचल

पत्रकार एवं स्तंभकार

इंदौर, मध्यप्रदेश

07067455455

 

कविता-धुंध

सुनो!
ये मौसम है ठण्ड और *धुंध* का,
पर तुम ज्यादा संभलना इससे,
क्योंकि इस मौसम में नमी
और साथ-साथ आलस होता है,
और यह मौसम सपनों पर भी
धुंध की परते चढ़ा देता है ।
और अभी सपनों को धुंध से बचाना होगा,
वरना हम बिखर से जाएंगे,

हाँ !
इसके लिए तुम मेहनत वाली
आग के सिरहाने ही रहना…
तपन से कोई धुंध ज्यादा
टिक नहीं पाएंगी…
और धुंध का न टिकना मतलब
लक्ष्य का ओझल न होना ही है,

हाँ!
तुम हौसला रखना उड़ान का,
बाकि अासमान छूने का जज्बा हम साथ लेकर चल रहे है ।
और हम दोनों मिलकर जीवन के कोहरे के पार,
अपने हिस्से का सूरज भी ले आएंगे…
हाँ! अपने हिस्से का आसमान भी ‘अवि’

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*

लघुकथा- मंचों की कवयित्री

संस्कृति मंचों की एक उम्दा कवियत्री है । सप्ताह में 4 से अधिक कवि सम्मेलनों में रचना पाठ करना ही संस्कृति की पहचान थी ।
पुरुषप्रधान समाज होने के कारण कई बार संस्कृति का सामना फूहड़ कवियों और श्रोताओं से भी होता था ।
इसी बीच एक गाँव में हुए कवि सम्मेलन में संचालक द्वारा संस्कृति की रचना को लेकर भद्दी और अश्लील फब्तियाँ मंच से कस दी ।
संस्कृति ने आव देखा ना ताव, मंच से ही संचालक के शब्दों का कड़ी *प्रतिक्रिया* दी और दो टूक शब्दों में संचालक कवि की लू उतार दी ।
उस संचालक को आयोजकों ने भी खूब लताड़ा और मंच से उतार दिया । शर्मिंदगी के मारे उस संचालक को काव्य जगत से भागना ही पड़ा ।
आज संस्कृति के प्रतिक्रियावादी रवैये से कई स्त्रीयों का लाभ हुआ जो मंच के गौरव के कारण यह सब सह जाती थी ।
यदि समाज में रहना है तो हर गलत कथ्य या आचरण का प्रतिकार करना आना चाहिए, वर्ना प्रतिकार न करना चलन का हिस्सा बन जाता है । और इससे कई लोग प्रभावित होते है ।

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
हिन्दीग्राम, इंदौर

लघुकथा- प्रतिक्रिया

*लघुकथा- प्रतिक्रिया*

सारांश अपनी व्यस्त जीवन शैली में संचयनी के साथ बहुत खुश था, पर संचयनी अपनी सहेलियों और सहकर्मीयों के बीच बहुत सीधी और भोली थी |
संचयनी के सहकर्मी उसके भोलेपन का हमेशा नाजायज फायदा उठा कर संचयनी को ही तंज कसते रहते थे, जिसके कारण वह पिछले कुछ दिनों से थोड़ी उखड़ी-उखड़ी सी रहने लगी थी, जबकि संचयनी पेशे से एक्युप्रेशर चिकित्सक थी, और उसका शौक लेखन था ।
उसकी एक सहकर्मी ने संचयनी की डीग्री पर जलनवश टिप्पणी की थी , जिससे संचयनी बहुत ज्यादा व्यथित थी ।
उसके माथे की शिकन देखकर सारांश ने उससे कारण जाना ।
कारण जानने के बाद सारांश ने तर्क दिया कि
संचयनी तुम प्रतिक्रियावादी समाज में रहती हो, और तुम एक बात ध्यान रखो
हर क्रिया की एक *प्रतिक्रिया* होती है,
जब तक तुम प्रतिक्रिया नहीं दोगी, ये समाज तुम्हे जीने नहीं देगा ।
जिस सहकर्मी ने टिप्पणी दी उसका भी तो तुम व्यक्तित्व देखो, क्या वो उस लायक भी है जिसे महत्व दिया जाए, तो तुम क्यों लिहाज करती हो, तुम्हें प्रतिक्रिया देना आना चाहिए ।
इनसब संवाद के बाद से संचयनी के जीवन में बहुत सुधार आया और संचयनी अब प्रतिक्रियावादी समाज में सहर्ष प्रतिक्रिया देकर जीवन को सशक्तता से जीने लग गई है ।

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
इंदौर, मध्यप्रदेश

वेब मीडिया की कानूनी मान्यता में फिसड्डी केन्द्र सरकार

सरकार अब तक वेब मीडिया को कानून के दायरे में नहीं ला पाई..

वरिष्ठ पत्रकार अजय जैन ‘विकल्प’ की खबर दैनिक स्वदेश में 27/09/2017

अर्प

Arpan jain avichal