मीडिया का उतावलापन है बेहद घातक

चौथा खम्बा

समाचारों को भेजने और ख़बर को ब्रेक करने की रणनीति, ‘पहले हम-पहले हम’ की अनावश्यक भागमभाग, फ़्लैश करने की हड़बड़ी और इन सबके बीच विश्वसनीयता का गहरा संकट आज की मीडिया के सामने मुँहबाहें खड़ा हुआ है।
बीते दिनों फ़िल्म अभिनेता धर्मेन्द्र के मामले में भी यही नज़र आया। देश के सबसे बड़े चैनल होने का दावा देने वाले न्यूज़ चैनल और उससे जुड़े पत्रकारों ने धर्मेन्द्र के निधन के समाचार अपने चैनल और सोशल मीडिया हैंडल पर चला दिए। इस समाचार को देख लाखों प्रशंसकों ने अपने सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलि तक दे दी, यहाँ तक कि कई बड़े राजनेताओं ने भी शोक संदेश तक जारी कर दिए। इसी बीच धर्मेन्द्र की पत्नी हेमा मालिनी एवं बेटी ईशा देओल ने पिता के जीवित होने का ट्वीट कर मीडिया को कोसा भी।
सच भी यही है कि, किसी व्यक्ति के अत्यधिक अस्वस्थता होने पर भी परिवार जीवित होने की प्रार्थनाएँ करता है और ऐसे मुश्किल समय मीडिया का इस तरह का गैर ज़िम्मेदाराना व्यवहार परिवार को भी आहत करता है।
ऐसा पहली बार भी नहीं हो रहा है, बीते 5 वर्षों में कम से कम दसियों विशिष्ट व्यक्तित्व के मामलों में मीडिया के लोगों का इस तरह अपुष्ट समाचार प्रसारित करना मीडिया की गंभीरता पर प्रश्न चिह्न लगाता है और विश्वसनीयता पर भी संकट खड़ा होता है।
पुलवामा हमले के बाद कश्मीर एवं सीमावर्ती क्षेत्रों में दुश्मन देश पाकिस्तान द्वारा ड्रोन हमले किए जा रहे हैं, उसी समय एक बड़े चैनल ने वीडियो गेम वाले ड्रोन वीडियो लाइव चैनल पर चला कर भी आमजन के बीच किरकिरी करवाई थी।
आख़िर अमानुषता मीडिया के क्षेत्र में क्यों हावी होती जा रही है? यह भी विषय खोजने का है। आख़िर किस बात की इतनी जल्दबाज़ी है कि मीडिया के साथी बिना पुष्टि और ठोस आधार के गंभीर मुद्दों पर भी जनभावना से खिलवाड़ करने वाली ख़बरें प्रसारित कर देते हैं? जब हाल बड़े चैनलों का इस तरह का है तो छोटे समाचार संस्थाओं की तो हालत और भी खस्ता है। आधे से ज़्यादा न्यूज़ पोर्टल और रीजनल चैनल अपने सोशल मीडिया पर नाम के बड़े चैनलों को ही ख़बर की पुष्टि मानकर कॉपी-पेस्ट की रणनीति के तहत ख़बरें प्रसारित कर देते हैं। उन्हें अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है, अन्यथा वैसे भी कई मामलों में भारतीय मीडिया अब जनता के बीच कम विश्वसनीय बचा है, रही सही कसर इस तरह के घटनाक्रम पूरी कर देते हैं। अब भी समय विश्वसनीयता पुनः स्थापित करने में गंभीरता दर्शाने का है, अन्यथा एक दिन मीडिया देश में अप्रासंगिक हो जाएगा।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं हिन्दीयोद्धा, इंदौर

न्यूज़ वेबसाइट के सामने मंडराता वैधानिकता का संकट

चौथा खम्बा

देश और दुनिया डिजिटल होती जा रही है, कम्प्यूटर युग चल रहा है और इसी दौर में भारत में डिजिटल क्रांति की हुँकार भरने वाली सरकारें भी मीडिया के डिजिटलीकरण पर अपनी उदासी ज़ाहिर कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपना आईटी प्रेम तो जताते हैं, पर उदासीनता मीडिया के क्षेत्र में अव्वल है। 1 जुलाई 2015 को प्रधानमंत्री ने डिजिटल इंडिया परियोजना की शुरुआत की थी।
अमेरिका जैसे विकसित राष्ट्र ने 30 जून 2000 में तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की अगुआई में इलेक्ट्रानिक हस्ताक्षर को क़ानूनी मान्यता दे कर उस राष्ट्र के सम्पूर्ण डिजिटल होने का प्रमाण दे दिया था, उसी तरह हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार देश में डिजिटल भारत के सपने को साकार करने में जुटे हैं। इसलिए भारत में मीडिया संस्थानों ने भी स्वयं को डिजिटल युग के साथ-साथ गठजोड़ बनाने के उद्देश्य से तैयार करना शुरू कर दिया।
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने वेबसाइटों पर विज्ञापन के लिए एजेंसियों को सूचीबद्ध करने एवं दर तय करने के उद्देश्य से दिशानिर्देश और मानदंड तैयार तो किए हैं। नियमों के अनुसार, विज्ञापन एवं दृश्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) सूचीबद्ध करने के लिए भारत में निगमित कंपनियों के स्वामित्व एवं संचालन वाले वेबसाइटों के नाम पर विचार करेगा। किन्तु उन वेबसाइटों का पंजीयन, क़ानूनन मान्यता अब भी अधर में लटकी हुई है।
जिस प्रकार भारत में समाचार पत्र प्रकाशित करने के लिए तमाम तरह की मान्यताएँ लेनी होती हैं, जिनमे भारत सरकार के अधीनस्थ ‘भारत के समाचार पत्रों के पंजीयक कार्यालय’ की ही महत्त्वपूर्ण भूमिका है, जिसके पंजीयन होने के बाद ही उसे टाइटल और आरएनआई नंबर मिलता है और फिर समाचार पत्र का प्रकाशन होता है, उसी तरह डिजिटल पोर्टल के पंजीयन की दिशा में सरकार का कोई ख़ास ध्यान नहीं है। मान्यता या वैधानिकता के अभाव में पोर्टल को आज भी कोई विशेष तवज्जों नहीं मिल रही।

सरकारों ने न्यूज़ वेबसाइटों के लिए विज्ञापन नीति तो बनाई है किन्तु विज्ञापन नीति के अतिरिक्त भी महत्त्वपूर्ण विषय न्यूज़ पोर्टल या कहें न्यूज़ वेबसाइटों की क़ानूनन मान्यता की है। राष्ट्रीय स्तर पर कोई संस्थान ऐसा नहीं बना, जो भारत में संचालित वेब न्यूज़ पोर्टल की रीति-नीति बना पाए, केवल पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी, भारत सरकार) ही कुछ नियम बना पाया परन्तु वो भी पोर्टल को क़ानून के दायरे में लाने में असमर्थ रहा। यदि इसी तरह चलता रहा तो वैधानिकता के अभाव में न्यूज़ पोर्टल संचालित तो होंगे पर बेलगाम ही रहेंगे।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं हिन्दीयोद्धा
इंदौर, मध्यप्रदेश

एआई के दौर में ज़रूरी है पत्रकारों की तकनीकी दक्षता

चौथा खम्बा

घटना हुई, पॉइंट बना, ब्रेकिंग हुई, इसी बीच वेबसाइट या सोशल मीडिया पर पूरा घटनाक्रम समाज के सामने आ गया, इस तकनीकी दौर में जो तत्परता सोशल मीडिया का उपयोगकर्ता दिखाता है, उससे कहीं अधिक तत्परता ज़िम्मेदार पत्रकार को भी रखनी होगी, अन्यथा उसकी प्रासंगिकता समाप्त हो जाएगी। और तत्परता के साथ-साथ ख़बरों की पुष्टि भी महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी है।
ऐसे तकनीकी दौर में पत्रकारों को नए मीडिया के साथ क़दमताल करना भी आना चाहिए। तमाम अनुभवों के बाद भी जब तकनीक की बात आती है तो पत्रकार पिछड़ते जाते हैं। इस प्रयोजन के लिए पत्रकारों को नए ज़माने के टूल्स के साथ अपना नाता बनाना होगा।
जैसे-जैसे डिजिटल मीडिया अपना विस्तार कर रहा है, वैसे-वैसे पत्रकारों को भी सूचनाओं की पुष्टि, उनका प्रेषण और प्रकाशन भी त्वरित करने की आदत डालनी होगी।
देश के कई संस्थान अपने व्यय पर तकनीकी प्रशिक्षण कार्यक्रम भी आयोजित करते हैं, और व्यक्ति निजी रूप से भी तकनीक को सीख सकता है।
जैसे एआई और ग्रुक का प्रयोग, ईमेल तकनीक, वॉइस टाइपिंग और वीडियो एडिटिंग के साथ-साथ अब नए टूल्स भी सीखना अनिवार्य होगा। कैसे गूगल का उपयोग कर सकते है,? कैसे ख़बरों के वेरिफ़िकेशन की नई टेक्नीक का इस्तेमाल कर सकते हैं? इन सबके अतिरिक्त प्रत्येक पत्रकार को अब सोशल मीडिया मार्केटिंग और सर्च इंजिन ऑप्टिमाइज़ेशन की जानकारी होना भी ज़रूरी है। अपनी ख़बरों को कैसे वायरल करें? यूट्यूब पर कैसे ख़बरे प्रसारित होती हैं? इन विषयों पर भी गंभीरता के साथ प्रशिक्षित होना आवश्यक होगा।
आने वाले समय में मोबाइल जर्नलिस्म बड़ी चुनौती बनकर सामने आ रहा है, ऐसे में हर पत्रकार को मोजो सीखना होगा ताकि अपना वजूद स्थापित रख सके, वरना नई तकनीक पुराने तरीकों को धूल धूसरित कर रही है।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं हिन्दीयोद्धा, इंदौर