हिन्दी योद्धा

हिन्दी योद्धा

रत्नगर्भा भारत की धरा पर सदा से ही माँ, मातृभाषा और मातृभूमि के प्रति व्यक्ति के कर्तव्यबोध का व्याकरण बना हुआ है। हमारे यहाँ का ताना-बाना ही संस्कार और संस्कृति के प्रति अपने कर्तव्यों के निर्वाहन का बना है। हमारे यहाँ धर्मग्रन्थ भी ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ के सिद्धांत का प्रवर्तन करते है। आधुनिक काल में भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने कहा है कि –

‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।

विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।

सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।’

किन्तु वर्तमान में हमारी मातृभाषा जो हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा होना चाहिए वो हिन्दीभाषा दूषित राजनीती की शिकार होती जा रही है। सन १९६७ में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने से रोक कर राजभाषा बना दिया। साथ ही एक विदेशी भाषा अंग्रेजी की दास्ताँ को स्वीकार करते हुए उसे भी राजभाषा बना दिया गया।

फिर मत और आधिपत्य के साथ तुष्टिकरण की राजनीती ने अनुसूचियों के माध्यम से छल करके लगातार हिन्दी को अलग-थलग करके उसको तोड़ा भी जा रहा है और फिर हिन्दी के सम्पूर्ण स्वाभिमान पर कुठाराघात किया जा रहा है। हिन्दी भाषा पर आए इस संकट की घडी में  भारतीयता के नाते भारत के स्वाभिमानी स्वयंसेवक योद्धाओं की आवश्यकता है। भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को पुनर्स्थापित करने के लिए मातृभाषा उन्नयन संस्थान निरन्तर प्रयासरत है। डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’ और डॉ प्रीति सुराना के साथ आज संस्थान के प्रत्येक सारथी भारतेन्दु हरीशचंद और महात्मा गाँधी के सपनों को पूर्ण करने के लिए इस भारत की पावन भूमि पर कार्य करती है। हिन्दी के स्वाभिमान की स्थापना के आन्दोलन से देश के अंतिम व्यक्ति तक ले जाने और उन्हें जोड़ कर हिन्दी के प्रति निष्ठावान बनाने के संकल्प को पूर्ण करने के लिए जो भी भाई-बहन इस सेवा के लिए रोज 1 से 2 घंटा समय दे सकते हैं तथा इस कार्य को नौकरी या व्यवसाय के रूप में नही, बल्कि राष्ट्र सेवा, मातृभाषा सेवा, मातृभूमि सेवा समझकर सेवा भाव से करना चाहते हैं। हम ऐसे कर्मठ, पुरुषार्थी व संस्कारी, भाई-बहनों को ‘हिन्दी योद्धा’ बनने के लिए आमंत्रित करते है।

हिन्दी योद्धा का कर्तव्य:

  • आज हिन्दी को विश्वस्तर पर पहचान दिलाने के लिए हमें जुटकर हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना होगा,
  • हस्ताक्षर बदलो अभियान को अपने क्षेत्र में संचालित एवं प्रचारित करना होगा,
  • हिन्दी लेखन करने वाले साथियों को आय दिलवाने में मदद करनी होगी,
  • हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए उसे बाजार मूलक भाषा बनानी होगी,
  • हिन्दी साहित्य को आमजन तक पहुँचाना होगा,
  • हिन्दी के प्रचार हेतु अपने क्षेत्र में हिन्दी प्रेमियों का समुच्चय बनाकर प्रतियोगीताएं, कार्यक्रम आदि का संचालन करना होगा।

हिन्दी योद्धा द्वारा किए जाने वाले आवश्यक कार्य:

  • हस्ताक्षर बदलो अभियान संचालित करना।
  • ‘शिक्षालय की ओर चले हिन्दीग्राम’ संचालित करना।
  • हिन्दी प्रशिक्षण शिविर आयोजित करना।
  • आदर्श हिन्दीग्राम बनाना और गतिविधियां संचालित करना।
  • संगणक योद्धा , संवाद सेतु, हिन्दी समर्थक जनमानस को जोड़ना।
  • जनसमर्थन अभियान को संचालित कर हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु समर्थन प्राप्त करना।
  • हिन्दी व्याख्यानमाला, काव्य गोष्ठी, निबंध प्रतियोगिताएं, चित्रकला प्रतियोगिता, पुस्तक समीक्षा आदि आयोजित करना।
  • हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार करना।
  • प्रत्येक हिन्दी योद्धा द्वारा संचालित समस्त कार्यों का विवरण अनिवार्यतः संस्थान की केंद्रीय मुख्यालय द्वारा प्रदत्त निश्चित प्रारूप में करना अनिवार्य है।

अन्य संगठनात्मक कार्य –

  • ग्राम-प्रखण्ड-तहसील-वार्ड समिति का निर्माण करना
  • आदर्श हिन्दी ग्राम निर्माण में सहयोग करना।
  • भाषाई स्वच्छता अभियान का विद्यालओं में सचालन करना।
  • समाचार संस्थाओं में समाचार के माध्यम से अभियान का प्रचार-प्रसार करना
  • समय-समय पर मुख्यालय द्वारा निर्देशित सेवाओं को पूर्ण प्रामाणिकता से निभाना।

नियमित स्वाध्याय करना 

स्वाध्यायाद्योगमासीत् योगात् स्वाध्यायमामनेत्।

योगस्वाध्याय सम्पत्या परमात्मा प्रकाशते।।

प्रत्येक हिन्दी योद्धा को दिन में एक बार कम से कम 1 घंटा नियमित स्वाध्याय करें। इससे आपके ज्ञान एवं प्रशिक्षण में नवीनता व दिव्यता निरन्तर बढ़ती रहेगी। प्रशिक्षण एवं स्वाध्याय हेतु हिन्दी के महनीय साहित्यकारों की पुस्तके, राजभाषा अधिनियम, अनुसूची, के साथ-साथ संस्थान द्वारा प्रदत्त साहित्य  अनिवार्य रूप से पढ़े। इन पुस्तकों के निरन्तर स्वाध्याय से आपके ज्ञान में अत्यन्त वृद्धि और आचरण में शुचिता पवित्रता व सात्विकता बनी रहगी।

हिन्दीग्राम सदस्यता अभियान

हिंदी प्रचार हेतु संस्थान एक साप्ताहिक अख़बार ‘हिन्दी ग्राम’ निकाल रहा है। इस अख़बार का मूल उद्देश्य ही सम्पूर्ण राष्ट्र में हिंदी प्रचार करने के साथ-साथ साहित्य और हिन्दी से जुड़ी गतिविधियों, आयोजनों आदि की सूचना प्रेषित करना, हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु आवश्यकत तत्वों को अख़बार में शामिल करके उसे प्रचारित करना है। संस्थान द्वारा संचालित एक साप्ताहिक अख़बार हिन्दी ग्राम की सदस्यता हेतु जागरूकता भी हिंदी योद्धा कर सकते है।

हिंदी योद्धा गाँव, नगर व प्रान्त में ‘हिन्दी ग्राम’ के सदस्य भी बना सकते है जिससे हम हिन्दी भाषा से जुड़े समाचार और साहित्यिक सामग्री को जन-जन तक पहुंचा सकें। साथ ही हिन्दी योद्धा बतौर हिन्दी पत्रकार भी अखबार के लिए कार्य कर सकते है।

हिन्दी योद्धा का व्यक्तित्व

व्यक्तित्व शब्द अपने आप में बहुत व्यापक अर्थ रखता है जो व्यक्ति के एक-एक कार्य-कलाप व आदत से निर्मित होता है। सामाजिक कार्यकर्त्ता का व्यक्तित्व प्रभावशाली दिव्य और हिन्दी भाषा की समझ रखने वाला और मन-वचन और कर्म से हिन्दी भाषा का समर्थक होना अति आवश्यक  है ताकि उसके व्यक्तित्व से समाज के लोग प्रेरणा लें और सदगुणों को धारण करके उसके जैसा बनने का प्रयास करें। अपने व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने के लिए हिन्दी योद्धा निम्न गुणों को धारण करने के लिए दृढ संकल्पित हो-

1-प्रभावशाली सम्बोधन- हिन्दी योद्धा की भाषा-शैली अत्याधिक मृदु होनी चाहिए। यदि आप प्रभावशाली संबोधन करेंगे तो लोगों में आपकी बात को सुनने में रूचि उत्पन्न होगी। किसी भी कार्यकर्त्ता या अन्य व्यक्ति को आदरणीय, श्रद्धामयी माताओं, पिता तुल्य बुजुर्गो, संतों आदि के लिए पूज्य, श्रद्धेय, आदरणीय भाईयो-बहनो आदि प्रयोग करना चाहिए।

2-विषय की सम्पूर्ण व प्रामाणिक जानकारी होना- क्योंकि हिन्दी योद्धा का मुख्य कार्य लोगों को हिन्दी भाषा से जोड़ना और उसके प्रति प्रेम उत्पन्न करके उसे राष्ट्रभाषा बनाने हेतु आंदोलित करना। अतः हिन्दी योद्धा को भाषा अधिनियम, हिन्दी आंदोलनों की जानकारी, साहित्यकारों से परिचय, महनीय हिन्दी सेवकों के बारे में अध्ययन, भाषा की मानकता और वर्तनी दोषों से मुक्ति के साथ ग्रन्थों का सामान्य परन्तु प्रामाणिक ज्ञान होना आवश्यक है। जिससे कि अपना आत्मविश्वास भी बना रहे और लोगों को हिन्दी भाषा का सही महत्व भी समझ में आ सके।

3-वक्ता व श्रोता का आत्मीय भाव सम्पर्क- किसी भी विषय को भावपूर्वक तरीके से रखें। लोगों के जीवन से विषय को सीधा जोड़कर उनके ह्रदय, मस्तिष्क व भावों से एकाकार होकर अपनी बात कहे। इससे श्रोता आत्मीयता का अनुभव करते हैं और आपके आत्मविश्वास में भी अभिवृद्धि होगी।

4-नेतृत्व– सामाजिक कार्यकर्ता में नेतृत्व का गुण होना आवश्यक है। एक हिन्दी योद्धा को जाति, मजहब आदि की श्रेष्ठता के अहंकार से मुक्त होकर समाज के विभिन्न वर्गों, जाति, मजहब, धर्म, सम्प्रदाय, के लोगों को एक साथ लेकर चलना चाहिए। कार्य की सफलता का श्रेय सभी को देते हुए असफलता या विरोधाभासों के बीच खुद आगे आकर समूह का नेतृत्व करने का सामर्थ्य होना चाहिए।

5-अनचाहे शब्दों से बचना- समूह में अपनी बात रखते हुए हमें अनचाहे शब्दों से बचने का प्रयास करना चाहिये। क्योंकि अनचाहे शब्दों को बार-बार दोहराने से समूह में आपके प्रति गंभीरता कम होती है। जैसे-कहने का मतलब, समझ गये न, जो है न , वाह, अरे, अबे, यार, ओके, अभद्र मजाक न करें आदि।

हिन्दी योद्धा बनने हेतु अनिवार्य अर्हताएँ

  • शिक्षा- कक्षा १० से अधिक पढ़ाई किए हुए हिन्दी प्रेमी
  • संगणक (कम्प्यूटर) पर कार्य करने का अनुभव।
  • सोशल मीडिया पर कार्य करना आता हो।
  • आयु – १८ वर्ष से अधिक

आवश्यक सत्यापित प्रमाणपत्रः- संस्थान से जुड़ने पर हिन्दी योद्धा को अपना आधारकार्ड या मतदान परिचय पत्र की छायाप्रति जमा करानी होगी उसके साथ पासपोर्ट साइज फोटो और शैक्षणिक प्रमाण पत्रों की फोटो कॉपी हिन्दी योद्धा प्रकल्प में जमा करनी होगी।

भारतीय पत्रकारिता में इंदौर शहर का योगदान

भारतीय पत्रकारिता में इंदौर शहर का योगदान

डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’

जब धरती के गहन, गंभीर और रत्नगर्भा होने के प्रमाण को सत्यापित किया जाएगा और उसमें जब भी मालवा या कहें इंदौर का जिक्र आएगा निश्चित तौर पर यह शहर अपने सौंदर्य और ज्ञान के तेज से बखूबी स्वयं को साबित करेगा। हिंदी या कहें अन्य भाषाओँ में इंदौर के पत्रकार और साहित्यकारों का एक अलग ही स्थान है। जिस शहर को मध्यप्रांत की पत्रकारिता का केंद्र या कहें नर्सरी ही कहा जाता हो वह शहर का बाशिंदा होना भी अपने आप में गर्वित होने का कारक है।

देश में स्वच्छता में तीसरी बार प्रथम पायदान पर रहना जिस तरह से गौरवान्वित करने का कारण है तो वही यहाँ के पत्रकारों को भी अपने पूर्वजों या समकालीन पत्रकारों के कारण गौरव की अनुभूति होती है। नईदुनिया जैसे अख़बार ने इस शहर को समाचारों की निष्पक्षता और भाषा की शुद्धता का पाठ पढ़ाया तो वही इंदौर से प्रकाशित वीणा साहित्यिक पत्रकारिता के अपने 75 वर्ष पूर्ण करके एक कीर्तिमान रच रही है। यहाँ वेब पत्रकारिता के प्रथम पोर्टल ‘वेबदुनिया’ ने देश को एक दिशा दी है और साथ ही नवाचार का सन्देश भी। फिल्म, खेल, और साहित्य पत्रकारिता का क्षेत्र भी इंदौर से रोशन रहा है। इंदौर का भारतीय पत्रकारिता में योगदान शहर को ताउम्र अमर कर गया है। जब-जब भी भारतीय पत्रकारिता की बात होगी या इतिहास लिखा जाएगा तब-तब बिना इंदौर के विवरण के वह अधूरा ही माना जाएगा। इंदौर की पत्रकारिता जिन सितारों से रोशन है उनके योगदान का जिक्र करना भी गौरव का महोत्सव मनाना है। इसी सन्दर्भ में कई मूर्धन्य पत्रकार, संपादक है जिनका वर्णन आवश्यक है जैसे –

राहुल बारपुते:  बाबा के नाम से मशहूर शख्सियत राहुल बारपुते जी का योगदान हिंदी पत्रकारिता में अखंड है। हिंदी पत्रकारिता में शायद ही कोई ऐसा शख्स होगा जिसने राहुल बारपुते का नाम नहीं सुना होगा। पत्रकारिता के युग निर्माता बारपुते जी एक ऐसी शख्सियत है जिन्होंने राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी जैसे दिग्गजों को तराशा है।  बाबा के नाम से मशहुर बारपुतेजी ने नईदुनिया रूपी वटवृक्ष के नीचे धूनी रमाते हुए पत्रकारिता जगत को रत्नों से लाद दिया। यह संस्था कब अखबार से विश्वविद्यालय बन गया और बाबा कुलपति बनगए ये उन्होंने भी पता नहीं चला। लोग नईदुनिया पत्रकारिता सीखने आते और बाबा से सीखकर अन्य अखबारों को समृद्ध करने चले जाते। राहुल बारपुते हिंदी पत्रकारिता के पुरोधा हैं। उनके संपादकत्व में इंदौर की ‘ नईदुनिया ‘ हिंदी पत्रकारिता की ऐसी नर्सरी बनी, जिसकी जड़ें भाषाई और सामाजिक सरोकारों से ऊर्जा पाती थीं।

राजेंद्र माथुर: स्वतंत्र भारत में हिन्दी पत्रकारिता को स्थापित करने वाले स्तम्भ के रूप में राजेन्द्र माथुर जी का नाम अग्रणी है जिन्होंने अपना पूरा जीवन हिन्दी और पत्रकारिता के लिये समर्पित कर दिया। आपका जन्म 7 अगस्त, 1935 को मध्य प्रदेश के धार जिले की बदनावर तहसील में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा धार, मंदसौर एवं उज्जैन में हुई। उच्च शिक्षा के लिए वे इंदौर आए जहां उन्होंने अपने पत्रकार जीवन के महत्वपूर्ण समय को जिया। इंदौर के पास बदनावर में जन्में और इंदौर को कर्मस्थली बना कर मालवा अंचल के इस प्रतिभावान पत्रकार ने यह प्रमाणित कर दिया कि ऊंचाई प्राप्त करने के लिये महानगर में पैदा होना आवश्यक नहीं है। इंदौर से प्रकाशित नई दुनिया से अपनी पत्रकारिता यात्रा आरंभ करने वाले श्री माथुर हिन्दी राष्ट्रीय दैनिक नवभारत टाइम्स के सम्पादक बने। आरंभ से अपनी आखिरी सांस तक ठेठ हिन्दी पत्रकार का चोला पहने रहे।

प्रभाष जोशी: हिन्दी पत्रकारिता के आधार स्तंभों में से एक आदरणीय प्रभाष जोशी जी का जन्म  इंदौर के निकट स्थित बड़वाहा में हुआ था। उनके परिवार में उनकी पत्नी उषा, माँ लीलाबाई, दो बेटे संदीप और सोपान तथा एक बेटी पुत्री सोनल है। उनके पुत्र सोपान जोशी, डाउन टू अर्थ नामक पर्यावरण विषयक अंग्रेजी पत्रिका के प्रबन्ध सम्पादक हैं। प्रभाष जी बंद कमरे में कलम घिसने वाले पत्रकार नहीं होकर एक एक्टिविस्ट / कार्यकर्त्ता थे, जो गाँव, शहर, जंगल की खाक छानते हुए सामाजिक विषमताओं का अध्ययन कर ना केवल समाज को खबर देते थे अपितु उसे दूर करने का हर संभव प्रयास भी उनकी बेमिसाल पत्रकारिता का हीं एक हिस्सा था थे। वे राजनीति तथा क्रिकेट पत्रकारिता के विशेषज्ञ भी माने जाते थे। दिल का दौरा पड़ने के कारण गुरुवार, ५ नवम्बर २००९ मध्यरात्रि के आसपास गाजियाबाद की वसुंधरा कॉलोनी स्थित उनके निवास पर उनकी मृत्यु हो गई।

डॉ प्रभाकर माचवे:  आपका जन्म तो ग्वालियर में हुआ किन्तु शिक्षा इंदौर में और आगरा में हुई। इन्होंने एम.ए., पी-एच.डी. एवं साहित्य वाचस्पति की उपाधियां प्राप्त कीं। ये मजदूर संघ, आकाशवाणी, साहित्य आकदमी, भारतीय भाषा परिषद् आदि से सम्बध्द रहे। देश और विदेश में अध्यापन किया। इनके कविता-संग्रह हैं : ‘स्वप्न भंग, ‘अनुक्षण, ‘तेल की पकौडियां तथा ‘विश्वकर्मा आदि। इन्होंने उपन्यास, निबंध, समालोचना, अनुवाद आदि मराठी, हिन्दी, अंग्रेजी में 100 से अधिक पुस्तकें लिखी हैं। इन्हें ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार तथा उ.प्र. हिन्दी संस्थान का सम्मान प्राप्त हुआ है। भारतीय साहित्य के साथ-साथ पत्रकारिता को भी सुशोभित करने में आपका नाम गौरव से लिया जाता है।

डॉ. वेद प्रताप वैदिक: भारत के सुप्रसिद्ध लेखक, पत्रकार और हिंदी सेवी होने के साथ-साथ एक स्वप्न दृष्टा के रूप में वैदिक जी प्रतिष्ठित है। हिन्दी को भारत और वैश्विक मंच पर स्थापित करने की दिशा में सदा प्रयत्नशील रहते हैं। भाषा के सवाल पर स्वामी दयानन्द सरस्वती, महात्मा गांधी और डॉ॰ राममनोहर लोहिया की परम्परा को आगे बढ़ाने वालों में डॉ॰ वैदिक का नाम अग्रणी है। वैदिक जी अनेक भारतीय व विदेशी शोध-संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों में ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ रहे हैं। भारतीय विदेश नीति के चिन्तन और संचालन में उनकी भूमिका उल्लेखनीय है। अपने पूरे जीवन काल में उन्होंने लगभग 80 देशों की यात्रायें की हैं।

अंग्रेजी पत्रकारिता के मुकाबले हिन्दी में बेहतर पत्रकारिता का युग आरम्भ करने वालों में डॉ॰ वैदिक का नाम अग्रणी है। उन्होंने सन् 1958 से ही पत्रकारिता प्रारम्भ कर दी थी। नवभारत टाइम्स में पहले सह सम्पादक, बाद में विचार विभाग के सम्पादक भी रहे। उन्होंने हिन्दी समाचार एजेन्सी भाषा के संस्थापक सम्पादक के रूप में एक दशक तक प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया में काम किया। सम्प्रति भारतीय भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष तथा नेटजाल डाट काम के सम्पादकीय निदेशक हैं।

वेद प्रताप वैदिक का जन्म 30 दिसम्बर 1944 को इंदौर में हुआ। वे सदैव प्रथम श्रेणी के छात्र रहे। दर्शन और राजनीति उनके मुख्य विषय थे। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में पीएचडी करने के पश्चात् कुछ समय दिल्ली में राजनीति शास्त्र का अध्यापन भी किया।उन्होंने हिन्दी समाचार एजेन्सी भाषा के संस्थापक सम्पादक के रूप में एक दशक तक प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया में काम किया। इसके पूर्व वे नवभारत टाइम्स में सम्पादक भी रहे। उस समय नवभारत टाइम्स सर्वाधिक पढा जाने वाले हिन्दी अखबार था। इस समय वे भारतीय भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष तथा मातृभाषा उन्नयन संस्थान के संरक्षक भी हैं।

विमल झांझरी: बा साहब व नरेश के नाम से प्रसिद्द १ नवंबर 1924 को इंदौर में जन्में विमल झांझरी जी इंदौर की पत्रकारिता का अभिन्न अंग है जिन्होंने देश भर में विभिन्न भाषाओँ में पत्रकारिता कर के इंदौर को सदा ही मान दिलवाया है। आपकी शिक्षा-दीक्षा 1941 में मेट्रिक (त्रिलोकचन्द जैन हाईस्कूल से, इंदौर) 1944 में बी. काम. (आगरा विश्वविद्यालय से)1946 में एल. एल. बी.(आगरा विश्वविद्यालय से) से हुई है।  सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में सहभागी होने के साथ साथ आपने पत्रकारिता शुरू की, तथा पहला संस्थान टाइम्स आफ इंडिया था , वर्ष 2001 तक टाइम्स आफ इंडिया में सेवाएँ दी। अँग्रेज़ी , हिन्दी, मराठी, गुजराती भाषाओं में आपने पत्रकारिता कर्म का निर्वहन किया। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान दो वर्ष भूमिगत रहकर ‘प्रजामंडल पत्रिका ‘ का संपादन भी किया। लगभग ६० वर्ष से अधिक की पत्रकारिता के काल में आपने भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय सहभागिता की, होलकर राजशाही को ख़त्म करवाने में महती भूमिका अदा की, रतलाम- खंडवा-अकोला रेल लाइन में गेज कंवर्जन  की योजना मंजूर करवाई, महू- इंदौर का टर्मिनल स्टेशन अथक प्रयासों का परिणाम है, इंदौर में माल गोदाम पर छोटा रेलवे स्टेशन बनवाने में आपकी भूमिका सराहनीय रही, इसी के साथ ‘नरेश’ के नाम से आपकी लेखनी ब्रिटिश इंडिया के अख़बारों में भी प्रचलित रही।

शरद जोशी: आपका जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर में २१ मई १९३१ को हुआ। कुछ समय तक यह सरकारी नौकरी में रहे, फिर इन्होंने लेखन को ही आजीविका के रूप में अपना लिया। इंदौर में नईदुनिया से स्तम्भकार के रूप में शुरुआत करते हुए आपने बतौर पत्रकार स्वयं को स्थापित भी किया। आरम्भ में कुछ कहानियाँ लिखीं, फिर पूरी तरह व्यंग्य-लेखन ही करने लगे। इन्होंने व्यंग्य लेख, व्यंग्य उपन्यास, व्यंग्य कॉलम के अतिरिक्त हास्य-व्यंग्यपूर्ण धारावाहिकों की पटकथाएँ और संवाद भी लिखे। हिन्दी व्यंग्य को प्रतिष्ठा दिलाने प्रमुख व्यंग्यकारों में शरद जोशी भी एक हैं। इनकी रचनाओं में समाज में पाई जाने वाली सभी विसंगतियों का बेबाक चित्रण मिलता है। इसी के चलते इंदौर को देश के नक़्शे पर आदरणीय शरद जोशी जी ने गौरवान्वित किया।

श्रवण गर्ग: जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से जुडकर अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआ़त करने वाले हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार,लेखक और संपादक श्री श्रवण गर्ग जी ने सम्पादकीय प्रभाग को उन्नत बनाने में अहम् भूमिका निभाई है। ४ मई १९४७ को जन्मे श्रवण गर्ग ने देश में हिंदी पत्रकारिता का परचम लहराया है। आपका परिवार राजस्थान से आकर इंदौर में बस गया था और इंदौर में वे वेद प्रताप वैदिक जी के पड़ोसी थे। शुरुआती पढ़ाई इंदौर में करने के बाद श्रवण गर्ग ने इलेक्ट्रीकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा हासिल किया, उसके बाद ग्रेजुएशन किया। दिल्ली जाने के बाद भारतीय विद्या भवन से उन्होंने पत्रकारिता की पढ़ाई की और अंग्रेजी पत्रकारिता के कोर्स भी किए और फिर नई दुनिया इंदौर में सम्पादकीय विभाग में कार्य करने लगे। नई दुनिया में रहते हुए उनका चयन इंग्लैंड के थॉमसन फाउंडेशन में तीन महीने के एक पाठ्यक्रम के लिए हुआ।

आलोक मेहता: 07 सितम्बर 1952 ई॰ को उज्जैन (म॰प्र॰) में जन्में आलोक मेहता जी ने एम॰ए॰ आधुनिक इतिहास की डिग्री विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से ली। हिन्दी के पत्रकार पत्रकार होने के साथ ख्यात संपादक भी है। आपने नईदुनिया ,नवभारत टाइम्स पटना, हिंदुस्तान. आउटलुक पत्रिका, नई दुनिया, दिनमान, दैनिक हिन्दुस्तान आदि में सेवायें दी तथा  आपको भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया। इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार, हिन्दी अकादमी का साहित्यकार-पत्रकार सम्मान-2006, दिल्ली हिन्दी अकादमी द्वारा श्रेष्ठ लेखन पुरस्कार-1999 आदि पुरस्कार भी प्राप्त हुए। आपकी भाषा सहज, सरल सादगी पूर्ण साहित्यिक खड़ीबोली हिन्दी है तथा यथार्थ परक, सरस, वर्णनात्मक, विचारात्मक, चित्रात्मक शैली है।

डॉ प्रकाश हिंदुस्तानी : 23 जुलाई 1955 को बुरहानपुर, मध्यप्रदेश में जन्में। वहां से इंदौर जिले की महू तहसील के गांव नेऊ गुराड़िया (महू-पातालपानी के बीच) में बचपन बीता । चौथी कक्षा में महू के माहेश्वरी विद्यालय में भर्ती। फिर शासकीय माध्यमिक और हायर सेकेण्डरी स्कूल में। महू के शासकीय कॉलेज से बी.कॉम, फिर एम.कॉम। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से टॉ रेंक पर मास्टर ऑफ जर्नलिज्म की डिग्री प्राप्त की। पंचायत और समाज सेवा विभाग में धार में अप अंकेक्षक की नौकरी की उसके बाद फिर श्री राजेन्द्र माथुर के मार्गदर्शन में नईदुनिया में प्रशिक्षु उपसंपादक के तौर पर पत्रकारिता में  शुरुआत की। मुंबई में दि टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की पत्रिका ‘धर्मयुग’ में उप संपादक के तौर पर भी कार्य किया उसी बाद नवभारत टाइम्स में स्थानांतरित हो गए। देश की पत्रकारिता के मिजाज को बखूबी समझकर टिपण्णी रचने वाले ध्येय पुरुष के रूप में डॉ प्रकाश हिंदुस्तानी जी कार्यरत है। कई मूर्धन्य सम्पादकों के साथ कार्य करना और इंटरनेटयुगीन वेबदुनिया के आरम्भ और स्थापित करने के लिए भी हिंदुस्तानी जी जाने जाते है।

दीपक चौरसिया: टीवी पत्रकारिता का चर्चित चेहरा दीपक चौरसिया जी का जन्म इंदौर,मध्य प्रदेश में हुआ था। उन्होंने नयी दिल्ली के इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन से पत्रकारिता में डिप्लोमा की डिग्री ली। शिक्षा प्राप्त करने के बाद दीपक आज तक में चले गए। २००३ में उन्होंने सहायक संपादक के तौर पर डीडी न्यूज़ में काम करना शुरुआत किया। जुलाई 2004 में वे आजतक वापस आ गए। आज तक टीवी टुडे नेटवर्क का मुख्य न्यूज़ चैनल है। उन्होंने बाद में स्टार न्यूज़ में शामिल हुए जो बाद में ABP न्यूज़ हो गया। दीपक ने जनवरी २०१३ में मुख्य संपादक के तौर पर इंडिया न्यूज़ में शामिल हुए।

सईद अंसारी: सईद अंसारी भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय एंकर्स में से एक हैं। सईद को लाइव एंकरिंग में दक्षता हासिल है। सईद उन गिने-चुने एंकर्स में से हैं जो राजनीति, खेल, व्यापार सभी तरह की खबरों को बेहद प्रभावशाली ढंग से पेश करते हैं। खबरों की संवेदनशीलता को लेकर सईद की गंभीरता दर्शकों को खबर से जोड़ती है। वहीं एक जुझारू पत्रकार के तौर पर भी इनकी पहचान है। फील्ड रिपोर्टिंग हो या एंकरिंग या फिर डेस्क वर्क, हर जगह इन्होंने अपना परचम लहराया है।

सईद अंसारी को देशभर की कई संस्थाओं ने प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार प्रदान किए हैं। सईद को ENBA का सर्वश्रेष्ठ एंकर अवॉर्ड, BCS रत्न बेस्ट एंकर अवॉर्ड, नारद पुरस्कार जैसे तमाम अवॉर्ड मिल चुके हैं। सईद के नाम एक ऐसा कारनामा भी है जो आजतक कोई भी एंकर नहीं कर पाया, सईद ने लगातार 18 घंटे बिना ब्रेक के लाइव एंकरिंग कर वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया है, जिसे लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज किया गया है।

सईद अंसारी रेडियो जॉकी रहे हैं, उन्होंने सैकड़ों डॉक्यूमेंट्री फिल्में बनाईं। लिखने-पढ़ने के शौकीन सईद साहित्य प्रेमी हैं। इंडिया टुडे पत्रिका और देश के विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सईद के लेख छपते रहते हैं। सईद की विशेषता पुस्तक समीक्षा करना है। कई सौ पुस्तकों की सईद अंसारी समीक्षा कर चुके हैं और यह सिलसिला लगातार जारी है। देशभर के विश्वविद्यालयों, शैक्षणिक संस्थाओं, विभिन्न सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा सईद अंसारी को मीडिया विशेषज्ञ और वक्ता के रूप में आमंत्रित किया जाता है। सईद ने मास कम्यूनिकेशन में मास्टर्स डिग्री हासिल करने के अलावा पत्रकारिता में डिप्लोमा किया है. सईद ने मास मीडिया और क्रिएटिव राइटिंग में भी दो साल का डिप्लोमा किया है।

 

डॉ अर्पण जैन ‘अविचल

पत्रकार एवं स्तंभकार

संपर्क: 09406653005

अणुडाकarpan455@gmail.com

अंतरताना:www.arpanjain.com

[लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान,भाषा समन्वयआदि का संचालन कर रहे हैं ] 

वह बिनती लोहा…. इंदौर के पथ पर

वह बीनती लोहा…. इंदौर के पथ पर

डॉ अर्पण  जैन ‘अविचल’

भरी दुपहरी में सूर्य के ताप को सहती, जिसके तन पर कपड़े भी मजबूरी ने फाड़ रखे हो, चेहरे की झुर्रियाँ उम्र की ढलान की ओर साफ तौर पर इशारा कर रही है, जिम्मेदारियों का बोझ उठाते-उठाते थके हुए कंधे जो पति के आवश्यकता के समय साथ छोड़ कर गौलोक की शरण लेना जता रहे हो, गंदी, मैली-कुचैली साड़ी केवल इसलिए पहनी हो क्योंकि एक ही साड़ी का अन्य विकल्प घर में नहीं होना है, बालों की लटों में जमी धूल समय के साधन और अपने गुरु ‘कर्म’ की व्यवस्था की सूचक बन रही हो, जो यह बताती है कि हर पल जिसका धूल से ही वास्ता है, पर सिर ढका होने से समाज की उन व्यवस्थाओं का भी निर्वाहन माना जा रहा है जिसमें पुरुष के सामने उघाड़े सिर न जाने की रवायत शामिल है। परंपराओं और समाज के तयशुदा खाकों में बंधी यह एक तस्वीर ही नहीं बल्कि कई सपनों और हकीकत के बीच की एक रेखा बनाती समग्र को अपने अंदर समेट कर इंदौर की जमीन पर महाराष्ट्र से आकर अपनी जमीन तलाश में अपनी उम्र गुजार देने का नाम है कमला बाई…..।

बात करने से पहले तो हिचकिचाती पर फिर कमला बाई बताती है कि वे मूलत: महाराष्ट्र के बुलढाना के पास की रहने वाली है और लगभग 82 वर्ष उम्र बताती है। सालों पहले पति और परिवार के साथ इंदूर (जिसे आज हम इंदौर के नाम से जानते है) की तरफ आई कमला बाई मालवी और मराठी सभ्यता का अनूठा मिश्रण बनकर अपनी बची हुई जिन्दगी को अलहदा मस्तानेपन के साथ जी रही है। न केवल जी रही है बल्कि व्यवस्थाओं के खिलाफ खड़ी अट्टालिका है।

इंदौर के ग्वालटोली इलाके के गैरेजों पर कचरे में एक बड़े चुम्बक के सहारे लोहा बीन कर उस कबाड़ को बेच कर लगभग 70-80 रु प्रतिदिन कमाकर अपना खाना चौका चला लेती है कमला बाई । वह चुम्बक भी कमलाबाई के संघर्ष का गवाह भी है, और देखा जाये तो वही चुम्बक ही संतान की भांति कमलाबाई के जीवन निर्वहन का सहारा भी है।
लगभग 70-80 रुपयें में दोनों समय केवल खुद का भोजन बना कर एक झोपड़े में गुजारा करने के बाद भी ‘भीख मांगना’ जैसी अघोषित ‘व्यवस्था’ का सहारा न लेने वाली कमलाबाई अपने आप में स्वालंबन और स्वाभिमानी होने का अदम्य परिचय है। समाज की निर्वासित व्यवस्थाओं के बीच अधर में लटकती शक्ति की आभा जिसके ह्रदय में इन व्यवस्थाओं के प्रति धधकता शोला तो है पर महलों में बैठ समर भवानी देखने वालों के मुँह पर तमाचा भी है।

मार…. मार… इसका अपराध है कचरा बीनना

इसी बीच इंदौर की सामंतवादी व्यवस्था के रहनुमा जो शहर की व्यवस्था में लगे कर्मचारी न हो कर स्वयं को शहर का राजा मानते हो, उन्होंने चिमनबाग में कचरा बीनने वालों को पकड़ा और थप्पड़ भी मारे,
अहो! क्या यह इंदौर है जहाँ अपनी खीज या नाकामी को छुपाने के लिए निहत्थे और निरीह लोगों पर अपना शक्ति प्रदर्शन किया जाता हो?
ये टिड्डीदल किस समाज का निर्माण कर रहा है? ये भी नहीं जानते कि जिस ‘मार…. मार……’ का नभभेदी जयकारा लगा रहे हो, उसके लिए पहले व्यवस्थाओं का निर्माण तो किया होता। वाह रे निखट्टुओं, किस बुते पर जवान मर्द बनने कर दम्भ भरते हो। इन टिड्डीदलों के खिलाफ हुँकार भी भरना होगा और फिर इनके विरुद्ध तो गौरा जैसे योद्धाओं के कबंध भी लड़ जाएंगे।
अपनी नाकामियों को कचरा बीनने वाले, बच्चों, बुजुर्गो, निरीह लोगो पर हाथ उठा कर बल प्रयोग कर रहे हो? औकात है तो शहर के बड़े गुण्डों कम राजनेताओं के मोहल्ले में भी जा कर कुछ बोल कर भी दिखाओं, वह हो रही कानून की धुनाई पर आवाज तो उठाओ, अपना अधिकारीपना थोड़ा तो दिखाओ.. तब तो देखे तुम्हारी मर्दानगी…

डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’

पत्रकार एवं स्तंभकार

संपर्क०७०६७४५५४५५

अणुडाकarpan455@gmail.com

अंतरताना:www.arpanjain.com

[लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान,भाषासमन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं ]

 

सूतक लग चुका है… सनद रहें

सूतक लग चुका है…. सनद रहें

–डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’

चुनावी मौसम खुमार पर आया, शहर के व्यस्ततम क्षेत्र राजवाड़े से माँ अहिल्या की प्रतिमा पर पहले बम के संदेह में जाँच करवाने के बाद भाजपा के मुखिया अमित शाह ने अपने चुनावी अभियान के तहत सड़क मार्ग से जनसंपर्क अभियान का प्रारंभ कर दिया ।
व्यवस्था में खुमार आया ही था कि खबरें चलने लगी… चुनाव की तारीख घोषित और आज से सूतक यानि आचार संहिता लागू…
सूतक के घोषित होते ही हल्ला बोल शुरु हो गया… वैसे भी 250 से 300 रुपये की मजदूरी वाले झण्डे उठाने के लिए लाए तो गए… पर यकीनन सामने कमजोर विपक्ष होने से सब गौण या कहें मौन हो गया।
भीड़ तन्त्र भी टिकट मांगने वालों का शक्ति प्रदर्शन ही रहा… न जाने क्यों राजनीति की दिशा में धनकुबेरों का कब्जा हो गया…
हालांकि रैली तो होमी दाजी के समय भी हुई थी… और राजवाड़े के विक्रेताओं का भी अपना दौर रहा… भला हो इंदौरी सफेद शेर का वर्ना तब ही राजवाड़े की रजिस्ट्री हो जाती… और हाथ मलते भिया…
बहरहाल हम तो बात कर रहें है सूतक यानी आचार की शासकीय संहिता की… विचार जहाँ तमाशाबीन है और शुचिता का गला घोटा जा चुका है…
शाम ढलते ही श्रीनगर कांकड़ में लगे बैनर हटाए जाने लगे… वैसे मामला तो आपसी विवाद का था पर रंग तो सूतक का चड़ा दिया…
खैर…. सूतक के राजवंश को मौका मिल गया अपनी दादागिरी दिखाने का…. और दिखाएं भी क्यों नहीं… जब जनप्रतिनिधि किसी को जानते ही नहीं और अपनी नाकामी को छुपाने के लिए शहर में नया आया बताने से भी गुरेज कहाँ करते है… और अपने गंदे धन्धे पर गला भी कर्मचारी का फँसा देते है और पिसती तो बैचारी जनता ही है….
सूतक की महामाया का दौर है, सूतक के नाम पर पूर्व में करवाएं गए कार्यों का भुगतान भी लंबित हो सकता है और अटक सकती है तनख्वाह भी…. क्योंकि अपने ही बादशाह और अपने वजीर है…
नज़र तो केवल जनता ही नहीं आती… भोजन, भण्डारे, यात्रा, सामग्री वितरण सब बंद कर दो भिया…. वर्ना सूतक तो ठहरा सूतक……

कमजोर विपक्ष का फायदा मिलेगा, पर फिर भी एक अदद दरकार रहेगी शुचिता की… वर्ना भिया तो ठहरे सनकी… न जाने कब निर्दलीय को जीता दे…

*सूतक के मजे लीजिए… दे दनादन दे…..*
*सूतक तो लग गया है… सनद रहें….*

*डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’*
खबर हलचल न्यूज, इंदौर
www.arpanjain.com

मातृभाषा.कॉम | matrubhashaa.com के बारे में

मातृभाषा.कॉम | matrubhashaa.com

मातृभाषा.कॉम के बारे में

मातृभाषा.कॉम

मातृभाषा.कॉम हिन्दी के प्रचार और प्रसार हेतु एक अंतरताना (वेबसाइट) है जिसका उद्देश्य है हिन्दी के नवोदित और स्थापित रचनाकारों की रचनाओं को सहेज कर लोगों तक ऑनलाइन उपलब्ध कराना, जिससे हिंदी के प्रचार के साथ-साथ रचनाकारों के लेखन से जनसामान्य परिचित हो सके। पटल पर लगभग १२०० से ज़्यादा रचनाकारों की ५००० से ज्यादा रचनाएँ उपलब्ध हैं। अंतरताने पर उपलब्ध समस्त लेखन यूनिकोड में होने से मातृभाषा.कॉम पर उपलब्ध सामग्री को बिना किसी विशेष सॉफ्टवेयर/फ़ॉन्ट के पढ़ा जा सकता है। इस वेबसाइट का सबसे विशिष्ट पहलू ये है कि यह अंतरताना हिन्दी साहित्य के अंकरूपण के साथ-साथ हिन्दी भाषा के विस्तार हेतु भी प्रयासरत है। मातृभाषा.कॉम वेबसाइट को अधिक से अधिक फैलाने के लिए, संस्थान द्वारा नई तकनीक का उपयोग करके डेस्कटॉप और लैपटॉप कंप्यूटर के साथ साथ टैबलेट और मोबाइल फ़ोन पर एप्स के माध्यम से साहित्य उपलब्ध कराया जा रहा है।

इतिहास व विकास

मातृभाषा.कॉम की स्थापना ११ नवम्बर २०१६ को डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ द्वारा की गई थी। अंतरताने को तैयार करने और स्थापित करने के पीछे डॉ जैन का एक मात्र यही उद्देश्य रहा कि हिन्दी साहित्य जगत से जनता को सुगमता से जोड़ते हुए भाषा के प्रचार -प्रसार हेतु एक प्रकल्प स्थापित करना जिसमें हिन्दी के नवोदित एवं स्थापित रचनाकारों को मंच उपलब्ध करवाने के साथ-साथ हिन्दी भाषा को राष्ट्र भाषा बनाने का लक्ष्य निहित है। भारत में मातृभाषा हिन्दी के रचनाकारों की बहुत लंबी सूची है, किन्तु समस्या यह है कि उन रचनाओं को सहेजकर एक ही स्थान पर पाठकों के लिए उपलब्ध करवाने में असफलता मिलती है। इस दिशा में ‘मातृभाषा.कॉम‘ ने पहल की है,इस पटल के माध्यम से हिन्दी के प्राथमिक ककहरा से लेकर अन्य विधाओं का परिचय करवाते हुए साहित्य को समृद्ध बनाना है। स्वयं सेवा के माध्यम से सम्पादकीय विभाग बनाया गया जो नवांकुर और स्थापित रचनाकारों का सृजन पाठकों तक पहुंचा रहा है। अंतरजाल की सह संस्थापिका डॉ प्रीति सुराना है जो साहित्य प्रकल्प का संचालन करती है।

३१ दिसंबर २०१६ तक पटल के प्रारंभिक दौर में ५० रचनाकार जुड़ें। इसके बाद पटल के माध्यम से हिंदी में हस्ताक्षर करने के बारे में जागरूकता शुरू की गई, जिसे ‘हस्ताक्षर बदलों अभियान’ नाम दिया गया। स्थापना का एक वर्ष पूरा होते-होते मातृभाषा.कॉम में ८०० से अधिक रचनाकारओं की २५०० से ज्यादा रचनाएँ प्रकाशित हुई है।

मातृभाषा.कॉम पर हिन्दी साहित्य की विधाओं जैसे साहित्य, काव्यभाषा, आलोचना, संस्मरण, यात्रा, लघुकथा, उपन्यास, व्यंग्य, पुस्तक समीक्षा, साक्षात्कार, हायकू आदि के साथ-साथ वैश्विक चिंतन, राष्ट्रीय एवं समसामयिक मुद्दों पर टिप्पणियाँ, अर्थ, फिल्म, विधि, खेल, स्वास्थ्य,धर्म-दर्शन, मीडिया,आधी आबादी आदि विषयों पर भी सामग्री संयोजित है।

वर्तमान में अंतरजाल पर १२०० से अधिक रचनाकारों का लेखन उपलब्ध है जिसमें भारत के प्रसिद्द रचनाकारों जैसे डॉ.वेद प्रताप वैदिक, डॉ.दिविक रमेश, राजकुमार कुम्भज, प्रभु जोशी जी, डॉ.प्रकाश हिन्दुस्तानी, डॉ मोहसिन खान, मधुदीप गुप्ता, सहित भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह, स्वराज अभियान के योगेंद्र यादव, फिल्म अभिनेता आशुतोष राणा सहित कई नाम हैं। और भारत के २९ राज्यों के रचनाकार जुड़े है। इसी कारण से मातृभाषा.कॉम वर्तमान में संचालित समस्त अन्तरतानों में सर्वाधिक प्रचलित और सुव्यवस्थित स्रोतो में से एक है।

मातृभाषा.कॉम‘ का उद्देश्य

  1. ‘मातृभाषा.कॉम’ काउद्देश्यहिंदी साहित्य को विश्व के हर कोने में सुलभ कराना है जिससे विश्व भर में फैले हिंदी प्रेमी अपनी सुविधानुसार इसका रसास्वादन और अध्ययन कर सकें।
  2. हमाराउद्देश्य होगा कि विश्व के हर कोने में हिंदी साहित्य की रचना में संलग्न लेखकों को एक मंच पर लाया जा सके जहाँ वे अपने अनुभवों और रचना प्रतिभा का आदान प्रदान कर सकें और इस प्रकार हिंदी के विकास में सहायक बनें।
  3. हिंदीसाहित्य की लोकप्रियता को विश्व के समक्ष प्रस्तुत करना तथा नए लेखकों की रचनाएँ प्रकाशित कर के उन्हें प्रोत्साहित करना।

मातृभाषा.कॉम की विकास यात्रा

  1. ११नवम्बर २०१६ को आरम्भ हुआ मातृभाषा.कॉम ।
  2. ३१ दिसंबर २०१६ तक ५० रचनाकार जुड़ें ।
  3. २१ फरवरी २०१७ को अंतराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया ।
  4. हिंदीमें हस्ताक्षर करने हेतु आंदोलन का आरम्भ किया ।
  5. ३१ मार्च २०१७ तक १०० से अधिक रचनाकारों को पटल से जोड़ा ।
  6. १४ सितम्बर २०१७ को हिंदी दिवस के दिन हस्ताक्षर हस्ताक्षर बदलो अभियान से १ लाख लोग जुड़े
  7. तब तक २ लाख पाठक मातृभाषा.कॉम से जुड़े ।
  8. २७ अगस्त २०१७ को अंतरा शब्दशक्ति और मातृभाषा.कॉम की सहकार्यता आरम्भ हुई
  9. २८ सितम्बर २०१७ को मातृभाषा.कॉम द्वारा काव्य गोष्ठी आयोजित की गई।
  10. २९ नवम्बर २०१७ को कश्मीर में हस्ताक्षर बदलों अभियान का आरम्भ हुआ ।
  11. ७ दिसम्बर २०१७ को हिन्दीग्राम की नींव रखी गई।
  12. २० दिसंबर २०१७ को हिन्दीग्राम और मातृभाषा.कॉम को योगगुरु स्वामी रामदेव जी का आशीष प्राप्त  हुआ।
  13. १३ जनवरी २०१८ को विश्व पुस्तक मेला-दिल्ली में मातृभाषा.कॉम की सहभागिता रही ।
  14. ३ फरवरी २०१८ को डॉ वेद प्रताप वैदिक के मुख्य आतिथ्य में इंदौर में अंतरा शब्दशक्ति सम्मान  २०१८ आयोजित हुआ जिसमे मातृभाषा.कॉम के प्रथम काव्य संग्रह मातृभाषा.कॉम का विमोचन हुआ।
  15. ८ मार्च २०१८ को अंतराष्ट्रीय महिला दिवस के उपलक्ष्य में महिलाओं पर केंद्रित पुस्तक अंतरा  शब्दशक्ति प्रकाशन और वुमन आवाज के सहयोग से विमोचित हुई।
  16. ३१ मई २०१८ को अंतरा शब्दशक्ति प्रकाशन और मातृभाषा के साझा प्रयासों से काव्य संध्या  आयोजित की गई और ४६ किताबों का विमोचन हुआ।
  17. ४ सितम्बर २०१८ को ६६ किताबों का विमोचन और ५५ महिलाओं का सम्मान  किया गया।
  18. पांचलाख से अधिक पाठकों और १२०० से अधिक रचनाकारों का स्नेह मातृभाषा.कॉम को मिला।

उल्लेखनीय गतिविधियाँ/ उपलब्धियाँ/ प्रतिभागिता:

मातृभाषा.कॉम के द्वारा हिंदी रचनाकारों को मंच देने के उद्देश्य से ‘मातृभाषा.कॉम’ साझा संग्रह भी निकाला गया था साथ ही समय समय पर काव्य गोष्ठियां , परिचर्चा भी आयोजित की जाती है। इसी अंतरजाल के माध्यम से लगभग ३ लाख से अधिक लोगों ने प्रतिज्ञा पत्र देकर  हिन्दी में हस्ताक्षर करने की प्रतिज्ञा ली है। वार्षिक रुप से यह संस्था हिन्दी रचनाकारों को प्रोत्साहन स्वरुप सम्मानित भी करती हैं।

पता: एस- २०७, नवीन भवन, इंदौर प्रेस क्लब परिसर,  महात्मा गाँधी मार्ग, इंदौर (म.प्र.) ४५२००१

अणुडाक: matrubhashaa@gmail.com  संपर्क: +91-9406653005 | 9009465259 | 7067455455

वेबसाइट / ब्लॉग: www.matrubhashaa.com

सूचनास्रोत:

https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%83%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A4%BE_%E0%A4%89%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%AF%E0%A4%A8_%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%A8

http://copnews.in/?tag=%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%83%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A4%BE-%E0%A4%89%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%AF%E0%A4%A8-%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%A8

https://www.bhaskar.com/mp/dhamnod/news/MP-MAT-latest-dhamnod-news-022002-1304368-NOR.html

https://www.punjabkesari.in/aapki-kalam-se/news/hindi-anti-shivraj-government-758550

https://www.jagran.com/bihar/supaul-educational-activities-17542240.html

https://www.bhaskar.com/rajasthan/jaipur/news/RAJ-JAI-HMU-MAT-latest-jaipur-news-025002-1063079-NOR.html

स्तरहीन कवि सम्मेलनों से हो रहा हिन्दी की गरिमा पर आघात

स्तरहीन कवि सम्मेलनों से हो रहा हिन्दी की गरिमा पर आघात

डॉ. अर्पण जैन अविचल

कवि सम्मेलनों का समृद्धशाली इतिहास लगभग सन १९२० माना जाता हैं । वो भी जन सामान्य को काव्य गरिमा के आलोक से जोड़ कर देशप्रेम प्रस्तावित करना| चूँकि उस दौर में भारत में जन समूह के एकत्रीकरण के लिए बहाने काम ही हुआ करते थे, जिसमें लोग सहजता से आएं और वहां क्रांति का स्वर फूंका जा सके|  उसके बाद कवि सम्मेलन भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग बन गए। उस मुद्दे के बाद कवि  सम्मेलनों में नौ रसों को शामिल करने की कवायद शुरू हुई| भारत में स्वाधीनता के बाद से ८० के दशक के आरम्भिक दिनों तक कवि सम्मेलनों का ‘स्वर्णिम काल’ कहा जा सकता है। ८० के दशक के उत्तरार्ध से ९० के दशक के अंत तक भारत का युवा बेरोज़गारी जैसी कई समस्याओं में उलझा रहा। इसका प्रभाव कवि-सम्मेलनों पर भी हुआ और भारत का युवा वर्ग इस कला से दूर होता गया। मनोरंजन के नए उपकरण जैसे टेलीविज़न और बाद में इंटरनेट ने सर्कस, जादू के शो और नाटक की ही तरह कवि सम्मेलनों पर भी भारी प्रभाव डाला। कवि सम्मेलन संख्या और गुणवत्ता, दोनों ही दृष्टि से कमज़ोर होते चले गए। श्रोताओं की संख्या में भी भारी गिरावट आई। इसका मुख्य कारण यह था कि विभिन्न समस्याओं से घिरे युवा दोबारा कवि-सम्मेलन की ओर नहीं लौटे। साथ ही उन दिनों भीड़ में जमने वाले उत्कृष्ट कवियों की कमी थी। लेकिन नई सहस्त्राब्दी के आरम्भ होते ही इंटरनेटयुगिन युवा पीढ़ी, जो कि अपना अधिकांश समय इंटरनेट पर गुज़ार देती हैं वह कवि सम्मेलन को पसन्द करने लगी। इसी युग में काव्य को कई कवियों ने सहजता और सरलता से आम जनमानस की भाषा में लिखकर काव्य किताबों से निकल कर मंचो पर सजने लगा |

२००४ से लेकर २०१० तक का काल हिन्दी कवि सम्मेलन का दूसरा स्वर्णिम काल भी कहा जा सकता है। श्रोताओं की तेज़ी से बढती हुई संख्या, गुणवत्ता वाले कवियों का आगमन और सबसे बढ़के, युवाओं का इस कला से वापस जुड़ना इस बात की पुष्टि करता है। पारम्परिक रूप से कवि सम्मेलन सामाजिक कार्यक्रमों, सरकारी कार्यक्रमों, निजी कार्यक्रमों और गिने चुने कार्पोरेट उत्सवों तक सीमित थे। लेकिन इक्कईसवीं शताब्दी के आरम्भ में शैक्षिक संस्थाओं में इसकी बढती संख्या प्रभावित करने वाली है। जिन शैक्षिक संस्थाओं में कवि-सम्मेलन होते हैं, उनमें आई आई टी, आई आई एम, एन आई टी, विश्वविद्यालय, इंजीनियरिंग, मेडिकल, प्रबंधन और अन्य संस्थान शामिल हैं। उपरोक्त सूचनाएं इस बात की तरफ़ इशारा करती है, कि कवि सम्मेलनों का रूप बदल रहा, परन्तु इसी दौर में साहित्यिक शुचिता का वो हश्र भी हुआ की भारत की संस्कृति में एक हवा बाजारवादी और विज्ञापनवादी संस्कृति की भी घुस गई जिसने स्ट्रीक को भोग्य समझा और उसी के साथ चुहल करने को साहित्य का नाम देकर काव्य से परिवारों को तोड़ दिया |इसी दौर में डॉ उर्मिलेश ने लिखा हैं

तुम अगर कवि हो तो मेरा ये निवेदन सुन लो,

खोल कर कान जरा वक्त की धड़कन सुन लो,

तुम और न ये श्रृंगार न लिखो गीतों

तुम न अब प्यार या श्रृंगार लिखो गीतों

वक्त की मांग हैं अंगार लिखों गीतों में

सिर्फ कुंठाओं की अभिव्यक्ति नहीं है कविता

काम क्रीड़ाओं की आसक्ति नहीं है कविता

कविता हर देश की तस्वीर हुआ करती हैं

निहत्थे लोगो की शमशीर हुआ करती हैं…

तुम भी शमशीर या तलवार लिखों गीतों में

वक्त की मांग हैं अंगार लिखों गीतों में

इसी कविता में डॉ. उर्मिलेश कहते हैं कि जवानी को नपुंसक न बनाओं कवियों.. आखिर क्यों आवश्यकता आन पड़ी इस पंक्तियों को लिखने की ?  जरूर मंचों से वाग्देवी की पुत्रियों द्वारा पड़े श्रृंगार पर छींटाकशी ने उनके भी ह्रदय को विदारित किया ही होगा, इसीलिए उन्होंने श्रृंगार विहीन मंच की बात कही होगी, क्योंकि डॉ उर्मिलेश कोई कमजर्फ तो नहीं थे, बल्कि उस दौर के नायक रहें हैं। पहले उसके बोलो पर ग़ज़लों की बहर कही जा सकती थी, अब उन्ही बोलों की इशारा माना जाने लगा है और न जाने क्यों सीमाएं लांघी जाने लगी है। कवि सम्मेलनों के स्तरहीन होने पर अब सूरज को भी युगधर्म सीखने का समय है| कवि कुमार विश्वास की कविता की पंक्तियाँ यही कहती है कि-

तम शाश्वत है, रात अमर है, गिरवी पड़े उजाले बोले,

सूरज को युगधर्म सिखाते, अंधियारों के पाले बोले

चीर-हरण पर मौन साधते,प्रखर मुखों के ताले बोले

बधिरों के हित  रचें युग ऋचा, वाणी के रखवाले बोले

नितांत आवश्यक प्रश्न हैं कि वर्तमान में कवि सम्मेलनों के स्तरहीन होने पर वाणी के रखवाले क्यों खामोश है ? और सबसे पहले तो ये हो क्यों रहा हैं ? उपभोक्तावादी कविसम्मेलनों में लगातार आयोजक और संयोजक मिलकर कविता को धनपशुओं की रखैल बनाने पर आमद हो रहे हैं|वर्तमान में हिन्दी कवि सम्मेलनों में स्तरहीनता होने के पीछे कवि, संयोजक और आयोजको के साथ-साथ हिन्दी के पाठक और श्रोता भी जिम्मेदार हैं| क्योंकि आप ही यदि विरोध नहीं करेंगे तो प्रतिध्वनियों के कोलाहल पर ध्वनियों का मौन हो जाना ही स्वीकृति देने सामान हैं | यहाँ चुप्पी, चीखों का हल नहीं हैं|  स्त्री को भोग्या मानना और उसका उपहास उड़ाने के बाद भी द्विअर्थी संवादों के बहाने सम्पूर्ण नारी जाती को कटघरे में खड़ा करने में जिम्मेदार कुछ एक कवियत्रियाँ भी हैं जो सस्ती लोकप्रिय और ज्यादा काम पाने की लालसा में सरस्वती के मंच को वैश्यालय बनाने से बाज नहीं आ रही हैं |

हिन्दी  भाषा के रचनाकार इतने अभागे नहीं है कि अपने घर की बहन-बेटियों को आयोजकों और संयोजकों को परोसकर अपना घर चलाए , फिर क्यों वे आशा करते है भारत की बेटियों से कि वो स्वयं को परोसे और फिर कवि सम्मलेन से रोजगार और प्रसिद्धि पाएं | मंचों पर शब्दबाणों से कविता के साथ-साथ स्त्री का भी चीर-हरण होता हैं, और सभा में बैठे धृतराष्ट्र मुँह फाड़ -फाड़ कर ठिठोली करते हुए असंख्य दुःशासनों के हौसलों को बढ़ा रहें हैं, इस तरह से तो हिन्दी कवि सम्मेलनों और मुजरों में फर्क ही कहा रह जाएगा |

पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला
घेर ले छाया अमा बन
आज कंजलअश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन

निश्चित तौर पर आ. महादेवी वर्मा जी की कविता की प्रथम पंक्ति में ही समाधान के संग्रह को समाहित कर लिया गया है, इस समस्या का सीधा-सा समाधान हैं, या तो ऐसे कवि सम्मेलनों का बहिष्कार हो जहाँ द्विअर्थी संवादों के सहारे कविता के नाम पर फुहड़ता परोसी जा रही हो, या फिर उसी मंच पर फूहड़ या अभद्र होने वाले दुस्शासन हों तमाचा रसीद किया जाए, क्योंकि आपके भी घर में माँ-बेटी होती है और यदि कोई कवियत्री फुहड़ता परोसने में सहभागी बन रही हो तो हाथ-पकड़ कर मंच से उतरा जाए, क्योंकि मंच सरस्वती का मंदिर है, नगरवधुओं का घर नहीं| यदि देश के ५-१० कवि सम्मेलनों में भी ऐसा हो गया तो निश्चित तौर पर अन्य दलालों को शिक्षा मिल जाएगी| हिन्दी के श्रोताओं को जागना होगा यदि  हम न जागे तो हिन्दी के मंचों से ही हिन्दी की दुर्दशा का स्वर्णिम अध्याय लिखा जाएगा |

डॉ. अर्पण जैनअविचल

पत्रकार एवं स्तंभकार

संपर्क: ०७०६७४५५४५५

अणुडाक: arpan455@gmail.com

अंतरताना:www.arpanjain.com

[ लेखक डॉ. अर्पण जैनअविचलमातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं| ]

दंभ में डूबे हुए शिवराज, भाजपा के उल्टे दिन शुरु

*दंभ में डूबे हुए शिवराज, भाजपा के उल्टे दिन शुरु*

# *डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’*

जैसे ही विधानसभा चुनाव की तारीख नजदीक आती जा रही है, मध्यप्रदेश के मुखिया के तेवर वैसे-वैसे अकड़ और दंभ से भरते जा रहे है ।
मुखिया के हाल बदले से है, या तो हार का डर सता रहा है या फिर शिवराज भी समझ रहे हैं कि दुल्हन की विदाई तय है। राजधानी का हाल भी कुछ ऐसा ही हो रहा है, एक तरफ बढ़ रही गर्मी शहर के तापमान की ठंडक तो खत्म कर चुकी है वैसे ही राजभवन से लेकर मुख्यमंत्री आवास तक और श्यामला से लेकर सचिवालय तक गर्मी का प्रकोप छाया है, इस गर्मी का कारण चुनाव में भाजपा पर मंडरा रहे संकट के बादल ही हैं।
मध्यप्रदेश सरकार के काम भी इतने प्रभावी नहीं रहे जो मतदाताओं को लुभा सकें… व्यापम, वनरक्षक, डम्पर घोटाले से लेकर किसानों की आत्महत्याएँ, किसानों का आन्दोलन, मंदसौर काण्ड, सूबे के विधायको के बड़बोले बोल, अन्नदाताओं को अपमानित करना, गरीब, मजदूर, दलित और  शोषित वर्ग को दरकिनार कर प्रभुत्वसंपन्नो की सरकार कहलाना, बेटियों का राज्य में सबसे असुरक्षित रहना, आए दिन बेलगाम अफसरशाही का होना, जनमानस के बीच से विकास नाम के मिट्ठू का गायब होना, कृषि की नई तकनीकि सिखाने वाली विदेश यात्राओं में फर्जी किसानों को भेजना, और इसके अतिरिक्त भी हुए कई घोटालों के बावजूद भी सरकार की ओर से राहत तो नहीं बल्कि मुख्यमंत्री के  तेज तर्रार तेवर से राजधानी की बौखलाहट साफ तौर पर मुखिया के चेहरे पर दिखाई दे रहीं है।
रसूखदारों के कामों को करवाने के लिए पूरी अफसरशाही रास्ते पर बैठी है, पर गरीब केवल दफ्तरों के चक्कर लगा-लगा कर ही नीला हो रहा है।
बीते शुक्रवार राजधानी में 400 किमी पैदल चलकर धार जिले की सरदारपुर के किसान, पत्रकार, मजदूर और छात्र पहुँचे, यादगार ए शाहजानी पार्क में धरने पर बैठे, जिसकी सूचना भी मुख्यमंत्री को दी गई, उन्होंने इतने दंभ भरे लहजे में किसानों से मिलना नहीं चाहा जैसे रामायण में रावण ने राम के दूत को दंभ दिखाया था|
खैर, किसान आन्दोलन भी समीप ही आ रहा है…
चूंकि कांग्रेस पूरे मनोयोग से, पूर्ण ताकत से चुनाव नहीं लड़ पाती है, न कोई कद्दावर कद सामने आता है, वर्ना मामा के सत्ता में लौटने के ख्वाब ही जीवन से दफा हो जाए। परन्तु कांग्रेस भी न जाने क्यों वॉक ओवर देने का चलन बना चुकी है।
बाबाओं को, उनके पट्ठों को, जमीन के जादुगर कांग्रेसियों को और धर्म की आड़ में वासना के शातिरों को तो मामा राज्यमंत्री दर्जा दे चुका है, क्योंकि वो डरा हुआ तो है पर बीते सप्ताह अमित शाह के प्रदेश दौरे के बाद शायद विदाई को लेकर आश्वस्त भी है कि भाजपा आए या न आए पर मामा का लौटना संभव नहीं है… इसी के चलते मामा भी अब कंस से ज्यादा हानिकारक बनने पर आतुर भी है।
नर्मदा यात्रा के घोटालों पर पर्दा डालने में असमर्थ, शराब बंदी में असफल, अपराध नियंत्रण में असक्षम, भ्रष्टाचार और व्याभिचार पर नकेल लगाने में फिसड्डी होने के बाद जो डर मुख्यमंत्री रहते हुए शिवराज के चेहरे पर दिख रहा है वो निश्चित तौर पर उन्हें भाजपा के शिवराज के नेतृत्व में चुनाव लड़कर बाद में डब्बा गोल होने के संकेत का पूर्वानुमान होना ही माना जाएगा।
मध्यप्रदेश की राजनीति का ये स्याह चेहरा भी विगत 15 से 20 साल में ज्यादा स्पष्ट तौर पर सामने आया है, जब उमा के नेतृत्व से चुनाव जीता फिर डब्बा गोल कर बाबूलाल गौर को काबिज़ किया, फिर शिव का नंबर आया, अब वही हाल शिवराज का भी होने की पूरी संभावनाएं है ।
खैर, हो भी क्यों न, जब आप ही बबूल के बीज बो रहे हों तो स्वाभाविक तौर पर आम तो उगने से रहें। आपने जो गड्डे दूसरों के लिए खोदे हैं, वो कभी न कभी रंग तो आपके लिए भी दिखाएंगे ही।
वैसे भी शिवराज और पाला बदलना दोनों साथ चलते है, कभी पटवा जी की आड़ लेकर तो कभी कैलाश जोशी जी, कभी आडवानी की गोद में तो कभी अमित शाह को मनाने में… मतलब साफ है, स्वार्थ जब तक है तब तक शिवराज आपके है वर्ना आपकी लाश पर भी पैर रखकर जाना पडे़ तो शिवराज को कोई गुरेज न होगा। अब सोचना मतदाताओं को होगा कि क्या ऐसे एहसान फरामोश को जीताना सही होगा, क्योंकि कुछ दिनों पूर्व शिव ने एक बयान में कहा कि वे कभी भी जा सकते है, हो सकता है शीर्ष नेतृत्व ने कुछ संकेत दिए हो जिससे भी शिवराज अनायास भय से आक्रान्तित हो जिसके कारण भी वो प्रदेश में असहजता जाहिर कर  रहें हों । अंतत: शिव की विदाई के साथ भाजपा की विदाई के संकेत भी हैं। परिणाम चाहे जो भी हो पर अब शिव के सर पर घमंड चढ़ चुका है जो निश्चित तौर पर भाजपा के बुरे दिन लाएगा।

*डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’*
खबर हलचल न्यूज, इंदौर
#खबरहलचलन्यूज #राजनीति #शिवराज

प्रकाशित पुस्तकें ही है लेखक की पहचान

*प्रकाशित पुस्तकें ही है लेखक की पहचान*

पुस्तक सर्वदा बहुत अच्छी मित्र होती है, इसके पीछे एक कारण यह है कि पुस्तक ही किसी सृजक के उपलब्ध ज्ञान का निष्कर्ष होती है।
जब तक लेखक किसी विषय को गहनता से अध्ययन नहीं कर लेता उस पर लेखन उसके लिए संभव नहीं है और गहराई से ग्रहण किए ज्ञान का निचोड़ ही उसके सृजन में उसकी मेधा का परिचय देता है।
वर्तमान समय में प्रत्येक पांचवाँ व्यक्ति एक कवि, लेखक या अन्य विधा का सृजक बनता जा रहा है, क्योंकि इस समय चलन है इंटरनेट व सोशल मीडिया का। बात यदि हिन्दी लेखन की ही की जाए तो वर्तमान में 2000 से अधिक अंतरताने उपलब्ध हैं जहाँ आप अपनी रचनाओं को स्थान दिलवा सकते है, जैसे अमरउजाला.कॉम, हिन्दीलेखक, गद्धकोश, मातृभाषा.कॉम, प्रतिलिपी, कविताकोश, प्रवक्ता, भारतवार्ता, आदि के साथ-साथ फेसबुक, ट्वीटर, इंस्टाग्राम भी है परन्तु इन सबके अतिरिक्त एक शौकिया या व्यावसायिक लेखक के तौर पर मिलने वाली पहचान की मुहर आपके द्वारा लिखी पुस्तक से ही मिल सकती है।
और वर्तमान समय में वो दौर भी खत्म सा हो गया जब प्रकाशक ही लेखकों को खोजते थे, अब लेखक स्वयं भी प्रकाशक खोज सकते हैं ।
ई एल जेम्स, ह्यूघ हॉवी और अमांडा हॉकिंग्स सफल प्रकाशक हो सकते हैं, तब कोई भी कारण नहीं है कि आप वह नहीं हो सकते। एक लेखक के रूप में आप कितने अच्छे हैं, यह सबसे अधिक महत्व रखता है। यद्यपि स्वयं-प्रकाशक के रूप में आपके लेखन की सफलता भी प्रकाशकों के दृष्टिकोण बदल सकती है और तब आपका लाखों में खेल सकते हैं।
लेखक की सृजनशीलता का मापदण्ड, उसका आभामंडल, उसका पाठक वर्ग और उसका किरदार भी उसके द्वारा लिखी पुस्तक से ही आँका जा सकता है।
जब आपको कोई प्रकाशन प्रकाशित नहीं कर रहा है तो इसका कारण यह बिलकुल भी नहीं है कि आपका लेखन कमजोर है, बल्कि प्रकाशक की व्यावसायिक मजबूरियाँ भी उत्तरदायी होती हैं, क्योंकि जब तक आप सम्मानित या स्थापित साहित्यकारों की श्रेणी में नहीं आते तब तक आपकी पुस्तक कोई क्यों खरीदेगा?
दुनिया नाम के पीछे भागती है, और ऐसे में स्वयं प्रकाशन एक बेहतर उपलब्ध विकल्प है, जिसके माध्यम से आप बतौर रचनाकार या लेखक अपनी पुस्तकें प्रकाशित करवा कर अपना पाठक वर्ग खोज सकते हैं।
कई लोग आज भी ये सोचते हैं कि स्वयं प्रकाशन योजना एक अत्यधिक खर्चीला प्रकाशन प्रकल्प है, और अत्यधिक पैसा लगा कर ही स्वान्तय सुखाय पुस्तकें प्रकाशित करवाई जा सकती हैं, जबकि ऐसा हमेशा सहीं नहीं होता।
मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले से एक महिला साहित्यकार डॉ.प्रीति सुराना द्वारा संचालित *अन्तरा शब्दशक्ति प्रकाशन* ने इस तरह के तमाम सारे मिथक तोड़ दिए हैं ।
उनका प्रकाशन छोटी पुस्तकों के प्रकाशन और ईबुक से रचनाकार के सृजन के प्रचार की कई योजनाएं लाया है, जिसमें महज 1500 रु से भी कम खर्च में 16 पृष्ठ की छोटी पुस्तकें प्रकाशित करवाई जा सकती हैं ।
और उस पर आईएसबीएन भी लिया जा सकता हैं । ये योजना एक रचनाकार के लिए सोने पर सुहागा है, क्योंकि पुस्तकों का आकार या पृष्ठ संख्या उतनी मायने नहीं रखती जितनी आपके परिचय में जुड़ी प्रत्येक पुस्तक।
यही प्रकाशित पुस्तक आपकी पहचान होती है।
अन्तरा-शब्दशक्ति प्रकाशन के माध्यम से डॉ.प्रीति सुराना जी द्वारा सैकड़ों या कहें हजारों गुमनाम और अनायास भय से आक्रान्तित (जिन्हें स्वयं प्रकाशन खर्चीला जान पड़ता था) सृजकों को एक अदद पहचान मुहैय्या करवाई जा रही है।
मानो आप एक साझा संग्रह का ही हिस्सा बनने जा रहें हो तो वहाँ जुड़ने का खर्च 500 रुपये से लेकर 2500 रुपये तो होगा ही, वहाँ पर यह राशि देने के बाद भी परिचय में साझा संग्रह ही जुड़ेगा जबकि इतने ही खर्च में आप स्वयं की पुस्तक प्रकाशित करवा सकते हैं और उस प्रकाशित पुस्तक का ईबुक संस्करण भी आपके लिए पाठक खोज लाएगा, जब आपके विश्वास हो जाए कि आपके पास पर्याप्त पाठक हो रहे हैं तो आप स्वयं की पुस्तकें ज्यादा छपवा कर विक्रय भी कर सकते है, जिससे आपको आय भी प्राप्त होगी या फिर निजी अन्तरताना (वेबसाईट या ब्लॉग) बना कर पाठक बढ़ा सकते है, जिससे गूगल एडसेंस के माध्यम से भी आय प्राप्त होगी , इसके लिए लेखकों को www.antrashabdshakti.com पर पंजीकरण करवाना होता है, पाण्डुलीपि भेजना और फिर आकर्षक कवर के साथ पुस्तकों का प्रकाशन हो जाता है, मय संपादन के |
अन्तरा शब्दशक्ति प्रकाशन की यह छोटी पुस्तकों और ईबुक के माध्यम से रचनाकारों के प्रचार की पहल निश्चित तौर पर हिन्दुस्तान के साहित्य आकाश में कई सितारे तो देगी ही वरन साहित्कारों को स्वयं प्रकाशन योजना में उलझाने वाले प्रकाशकों और लेखक की बजाय प्रकाशकों के नाम को प्रकाशित करने बाले कुनबें से भी दूर करेगी।
वैसे साहित्य की कितनी महिमा होती है ये तो महाकवि रामधारी सिंह दिनकर ने यह कहकर ही प्रतिपादित कर दिया था कि *’जब-जब राजनीति लड़खड़ाई है, साहित्य ने ही उसे संभाला हैं’*
यह अक्षरश: सत्य भी है, इसीलिए साहित्य सृजन जारी रखें और एक बार स्वयं की छोटी पुस्तकों के प्रकाशन के बारें में जरूर सोचे.. क्योंकि *’ये प्रकाशित पुस्तकें ही साहित्यकार होने की शर्त भी और पहचान भी हैं।’*

*डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’*
हिन्दीग्राम, इंदौर

मासूमों की चित्कारों से लथपथ भारतीय राजनीति

मासूमों की चित्कारों से लथपथ भारतीय राजनीति

डॉ.अर्पण जैन अविचल

भारत के भाल से पढ़े जा रहें कसीदे, कमलनी के तेज पर प्रहार हो रहा है, समाजवाद से गायब समाज है, वामपंथी भी संस्कृति और धर्म के बीच का अन्तर भूल चुके हैं, न देश की चिन्ता है,न ही परिवेश की| धर्म और जातियों के जहर में मासूम चित्कारों के गर्म तवे पर राजनैतिक खिचड़ी पकाई जा रही है, शर्म करों सत्ता के धृतराष्ट्र, शर्म करों जनता के कंधों और भावनाओं का इस्तेमाल करने वालों, शर्म करों….

देश में विगत एक पखवाड़े में लगातार ३ मासूम बच्चियों के साथ दुष्कर्म हुआ, कठुआ, उन्नाव और इंदौर |  सत्तामद में डूबे नेताओं ने उस पर भी राजनीति करना शुरू कर दी | एक और मोमबत्ती गेंग सक्रिय हो गई दूसरी और राजनेताओं का जुलूस और शक्ति प्रदर्शन |

कोई तंत्र को दोषी ठहरा रहा हैं तो कोई जागरूकता की कमी | असल मानों तो यह बलात्कार की घटनाएँ केवल और केवल मानवता की हार से ज़्यादा नहीं | मानवीय धर्म कमजोर पड़ चुका हैं, क्योंकि व्याभिचारी कितना भी गिर क्यों न जाए पर जब बात मासूम की आती है तो शायद वो भी थोड़ा तो मानवीय हो सकता है | परंतु ऐसा नहीं होना मतलब साफ तौर पर मानवीय पहलू में छिपी सांस्कृतिक अक्षुण्णता नस्ते-नाबूत हो चुकी हैं |

किस मानसिक अवसाद के चलते यह कुकृत्य हो रहे है, यह तो जानना कठिन है किंतु इतना तो हम समझ ही सकते है क़ि कहीं न कहीं मानव धर्म ख़तरे में हैं | कोई हिंदू का तो कोई मुस्लिम का बलात्कार बता रहा हैं, परंतु बलात्कार धर्म का नहीं बल्कि लड़की का होता है, जिसका धर्म मायने नहीं रखता, अस्मिता मायने रखती हैं |

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रतिदिन लगभग 50 बलात्कार के मामले थानों में पंजीकृत होते हैं। इस प्रकार भारतभर में प्रत्येक घंटे दो महिलाएं बलात्कारियों के हाथों अपनी इज़्ज़त गंवा देती हैं, लेकिन आंकड़ों की कहानी पूरी सच्चाई बयां नहीं करती। बहुत सारे मामले ऐसे हैं, जिनकी रिपोर्ट ही नहीं हो पाती।

प्रत्येक वर्ष बलात्कार के मामलों में लगातार बढ़ोतरी होती जा रही है। वर्ष 2011 में देशभर में बलात्कार के कुल 7,112 मामले सामने आए, जबकि 2010 में 5,484 मामले ही दर्ज हुए थे। आंकड़ों के हिसाब से एक वर्ष में बलात्कार के मामलों में 29.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई।

बलात्कार के मामलों में मध्यप्रदेश सबसे अव्वल रहा, जहां 1,262 मामले दर्ज हुए, जबकि दूसरे और तीसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश (1,088) और महाराष्ट्र (818) रहे। इन तीनों प्रदेशों के आंकड़े मिला दिए जाएं तो देश में दर्ज बलात्कार के कुल मामलों का 44.5 प्रतिशत इन्हीं तीनों राज्यों में दर्ज किया गया। यह आंकड़ा राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो का है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीबी के आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली बलात्कार के मामले में सबसे आगे है। पिछले कुछ दिनों में ही दिल्ली में कार में बलात्कार के कई सनसनीखेज मामले दर्ज हुए। दूसरी ओर राजस्थान की राजधानी जयपुर भी बलात्कार के मामलों में देशभर में पांचवें नंबर पर है। दिल्ली, मुंबई, भोपाल और पुणे के बाद जयपुर का नंबर इस मामले में आता है।

2007 से 2011 की अवधि के दौरान अर्थात चार साल के आंकड़ों पर नजर डालें तो इस मामले में दिल्ली नंबर वन रही। एनसीबी के आंकड़ों के मुताबिक देश की राजधानी लगातार चौथे साल बलात्कार के मामले में सबसे आगे है। आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में साल 2011 में रेप के 568 मामले दर्ज हुए, जबकि मुंबई में 218 मामले दर्ज हुए। रिपोर्ट के मुताबिक 2007 से 2008 के बीच 18 से 30 की उम्र के करीब 57,257 लोगों को गिरफ्तार किया गया। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा यह आंकड़े सिर्फ महिला अत्याचार के आधार पर जारी किए गए हैं।

बलात्कार के मामले में भारत विश्व की ‘डर्टी कंट्री’ की श्रेणी में शामिल हो रहा हैं, तब हमारी सरकारों और जनता की चिंता और बड़ जानी चाहिए, क्योंकि भारत का नाम विश्व पटल पर संस्कार सिंचन में अव्वल रहा हैं किंतु वर्तमान के हालात तो हमें दैहिक शोषण और यौन शोषण में ‘विश्वगुरु’ का दर्जा दिलाने से बाज नहीं आ रहे हैं |

‘विश्व स्वास्थ संगठन के एक अध्ययन के अनुसार, ‘भारत में प्रत्येक 54वें मिनट में एक औरत के साथ बलात्कार होता है।’ वहीं महिलाओं के विकास के लिए केंद्र (सेंटर फॉर डेवलॅपमेंट ऑफ वीमेन) के अनुसार, ‘भारत में प्रतिदिन 42 महिलाएं बलात्कार का शिकार बनती हैं। इसका अर्थ है कि प्रत्येक 35वें मिनट में एक औरत के साथ बलात्कार होता है।’

बलात्कार के मामलों की जांच में जुटे पुलिस अधिकारियों का मानना है कि ऐसे अधिकतर मामलों में आरोपी को पीड़िता के बारे में जानकारी होती है। यह एक सामाजिक समस्या है और ऐसे अपराधों पर नकेल कसने के लिए रणनीति बनाना असंभव है।

अधिकारियों की मानें तो इनमें से अधिकांश मामले बेहद तकनीकी होते हैं। अक्सर ऐसे अपराध दोस्तों या रिश्तेदारों द्वारा किए जाते हैं, जो पीड़िता को झूठे वादे कर बहलाते हैं, फिर गलत काम करते हैं। कई बार ऐसे अपराध अज्ञात लोग करते हैं और पुलिस की पहुंच से आसानी से बच निकलते हैं। हालांकि कुछ मामलों में यह भी देखा गया है कि इसमें पीड़िता की रजामंदी होती है। उसे इस बात के लिए रजामंद कर लिया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि बलात्कार से पीड़ित महिला बलात्कार के बाद स्वयं अपनी नजरों में ही गिर जाती है, और जीवनभर उसे उस अपराध की सजा भुगतनी पड़ती है, जिसे उसने नहीं किया।

वर्तमान में बाल अनुकूल न्यायिक प्रक्रिया ( पॉक्सो क़ानून) में बदलाव किया जिसमें १२ वर्ष के कम उम्र की बच्चियों से दुष्कर्म करने पर फाँसी की सज़ा दी जाएगी| यह निर्णायक परिवर्तन आवश्यक है साथ ही समाज को भी इस तरह के आरोपी के परिवार का सामाजिक बहिष्कार भी करना चाहिए, ताकि दुष्कर्म करने जैसे घृणित कार्य करने के पहले व्यक्ति उसके परिवार की दुर्दशा से भी बाख़बर रहें |

हमारे राष्ट्र में यदि दुष्कर्म के मामलों में वृद्धि हो रही है तो देश के तमाम राजनैतिक दलों को मिलकर एक रूपरेखा बनानी चाहिए जिससे इस तरह की समस्या से देश को बचाए जा सके, और किस क़ानून और प्रावधान के तहत दुष्कर्मी को दंड दे सके ताकि भविष्य में कोई पुनरावृत्ति न कर सके, साथ ही देश के सभी धर्म गुरुओं को भी मानवीयता के गिरते स्तर पर चिंता जाहिर करते हुए उसे बचाने के प्रयास करना चाहिए, न की सड़कों पर निकल कर राजनीति |

हमारे राष्ट्र में चुनावी आक्षेप लगाना बहुत आसान हैं, जबकि यदि राष्ट्र की असमर ख़तरे में है तो हम सब की नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है की सरकार के साथ मिल कर देश बचाएँ, मीडिया, राजनेता, समाजसेवी, आंदोलनकारी आदि सभीजन मिल कर इस समस्या का समाधान निकाल सकते हैं, पर हमारे यहाँ सभी ज़िम्मेदारों को राजनीति करने से फुरसत मिले तब तो देश के बारे में सोचेंगे |

कठुआ, उन्नाव और इंदौर कांड पर भी सरे आम राजनीतिक प्रपंच किए गए, बयानबाजी, नारे-प्रदर्शन आदि आदि | किंतु समाधान की दिशा में किसी ने नहीं सोचा, न समाज ने, न ही समाज के ठेकेदारों ने| लिहाजा कुकृत्य होने से कोई रोक नहीं सकता, रोकना केवल मानवीयता के गिरते स्तर को है |

डॉ. अर्पण जैनअविचल

पत्रकार एवं स्तंभकार

संपर्क: ०७०६७४५५४५५

अणुडाक: arpan455@gmail.com

अंतरताना:www.arpanjain.com

[लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ पत्रकार होने के साथ-साथ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं| ]

 

अंतर्राज्यीय भाषा समन्वय से भारत में स्थापित होगी हिन्दी

अंतर्राज्यीय भाषा समन्वय से भारत में स्थापित होगी हिन्दी

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

विविधताओं में एकता की परिभाषा से अलंकृत राष्ट्र यदि कोई हैं तो भारत के सिवा दूसरा नहीं | यक़ीनन इस बात में उतना ही दम हैं जितना भारत के विश्वगुरु होने के तथ्य को स्वीकार करने में हैं | भारत संस्कृतिप्रधान और विभिन्न जाति, धर्मों, भाषाओं, परिवेश व बोलियों को साथ लेकर एक पूर्ण गणतांत्रिक राष्ट्र बना | इसकी परिकल्पना में ही सभी धर्म, पंथ, जाति और भाषाओं का समावेश हैं |

जिस राष्ट्र के पास अपनी २२ संवैधानिक व अधिकारिक भाषाएँ हों, जहां पर कोस-कोस पर पानी और चार कोस पर बानी बदलने की बात कही जाती है, जहां लगभग १७९ भाषाओं ५४४ बोलिया हैं बावजूद इसके राष्ट्र का राजकाज एक विदेशी भाषा के अधिकनस्थ और गुलामी की मानसिकता के साथ हो रहा हो यह तो ताज्जुब का विषय हैं | स्वभाषाओं के उत्थान हेतु न कोई दिशा हैं न ही संकल्पशक्ति | भारतीय भाषाएं अभी भी विदेशी भाषाओं के वर्चस्व के कारण दम तोड़ रही रही हैं | एक समय आएगा जब देश की एक भाषा हिन्दी तो दूर बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं की भी हत्या हो चुकी होगी | इसलिए राष्ट्र के तमाम भाषा हितैषियों को भारतीय भाषाओं में समन्वय बना कर हिन्दी भाषा को राष्ट्र भाषा बनाना होगा और अंतर्राज्यीय कार्यों को स्थानीय भाषाओं में करना होगा | अँग्रेजियत की गुलाम मानसिकता से जब तक किनारा नहीं किया जाता भारतीय भाषाओं की मृत्यु तय हैं| और हिन्दी को इसके वास्तविक स्थान पर स्थापित करने के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि इसकी स्वीकार्यता जनभाषा के रूप में हो | यह स्वीकार्यता आंदोलनों या क्रांतियों से नही आने वाली है | इसके लिए हिन्दी को रोजगारपरक भाषा के रूप में विकसित करना होगा क्योंकि भारत विश्व का दूसरा बड़ा बाजार हैं और बाजारमूलक भाषा की स्वीकार्यता सभी जगह आसानी से हो सकती हैं | साथ ही अनुवादों और मानकीकरण के जरिए इसे और समृद्धता और परिपुष्टता की ओर ले जाना होगा |

हमारे राष्ट्र को सृजन की ऐसी आधारशिला की आवश्यकता हैं जिससे हिन्दी व क्षेत्रीय भाषाओँ के उत्थान के लिए एक ऐसा सृजनात्मक द्दष्टिकोण विकसित हो जो न सिर्फ हिन्दी व क्षेत्रीय भाषाओँ को पुष्ट करेगा बल्कि उन भाषाओ को एक दूसरे का पूरक भी बनाएगा। इससे भाषा की गुणवता तो बढ़ेगी ही उसकी गरिमा फिर से स्थापित होगी। आज के दौर में हिन्दी को लेकर जो नकारात्मकता चल रही है उसे सकारात्मक मूल्यों के साथ संवर्धन हेतु प्रयास करना होगा|

भारतीय राज्यों में समन्वय होने के साथ-साथ प्रत्येक भाषा को बोलने वाले लोगो के मन में दूसरी भाषा के प्रति भरे हुए गुस्से को समाप्त करना होगा | जैसे द्रविड़ भाषाओं का आर्यभाषा,नाग और कोल भाषाओं से समन्वय स्थापित नहीं हो पाया, उसका कारण भी राजनीति की कलुषित चाल रही, अपने वोटबैंक को सहेजने के चक्कर में नेताओं ने भाषाओं और बोलियों के साथ-साथ लोगो को भी आपस में मिलने नहीं दिया | इतना बैर दिमाग़ में भर दिया कि एक भाषाई दूसरे भाषाई को अपना निजी शत्रु मानने लग गया, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए था| हर भारतवंशीय को स्वभाषा का महत्व समझा कर देश की एक केंद्रीय संपर्क भाषा के लिए तैयार करना होगा. क्योंकि विश्व पटल पर भारत की कोई भी राष्ट्रभाषा नहीं हैं, विविधताओं के बावजूद भी भारत की साख में केवल राष्ट्रभाषा न होना भी एक रोड़ा हैं| हर भारतीय को चाहना होगा एक संपर्क भाषा वरना दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदर रोटी खा जाएगा, मतलब साफ है कि यदि हमारी भारतीय भाषाओं के बीच हो लड़ाई चलती रही तो स्वभाविक तौर पर अँग्रेज़ी उस स्थान को भरेगी और आनेवाले समय में एक अदने से देश में बोली जाने वाली भाषा जिसे विश्व में भी कुल ७ प्रतिशत से ज़्यादा लोग नहीं बोलते भारत की राष्ट्रभाषा बन जाएगी |

स्वभाषाओं के बीच समन्वय का सबसे बेहतर विकल्प हैं- अंतर्राज्यीय भाषा सम्मेलन परिचर्चा | भारत के प्रत्येक वर्चस्वशील भाषाओं के बीच में साहित्यिक समन्वय से शुरुआत की जा सकती हैं | जैसे एक कवि सम्मेलन में तमिल, तेलगु, मलयाली भाषा के कवियों को आमंत्रित किया जाए और साथ में एक-एक हिन्दी अनुवादक लाए जाए जो तमिल की रचना को हिन्दी में सुनाए और हिन्दी की रचना को तमिल आदि भाषा में | साथ में भाषाओं के बोलने वालों के बीच समन्वय हेतु चर्चाओं का दौर शुरू हो, एक-दूसरे को स्वभाषा का सम्मान  बताया जाए, कमियाँ न गिना कर समन्वय की स्थापना की जाए | जब यह कार्य वृहद स्तर पर होने लगेगा तो निश्चित तौर पर हिन्दी राष्ट्र की जनभाषा का दर्जा पुन: प्राप्त कर लेगी और राष्ट्रभाषा बनने की कठिनाई भी दूर होगी|

साथ-साथ जनता में भाषा को लेकर राजनैतिक दूषिता को भी दूर करना होगा | एक भाषा की स्वीकार्यता के लिए सभी स्वभाषाओं का सम्मान करना सबसे आवश्यक कदम है | देश के २९ राज्यों और ७ केंद्रशासित राज्यों में भाषा की एकरूपता और स्वीकार्यता बहुत आवश्यक हैं | जनभाषा बनने के लिए हिन्दी भाषियों को भी विशाल हृदय का परिचय देते हुए अन्य भाषी समाज को स्वीकारना होगा तो अन्य भाषाओं के लोगों को हिन्दी भाषियों के साथ भी समन्वय रखना होगा| इसमे शासकीय भूमिका और मंशा भी महत्वपूर्ण कड़ी है | अन्यथा जनता की स्वीकारता को सरकार कमजोर भी कर सकती है यदि उनकी मंशा नहीं हैं तो | फिर भी जनतंत्र में जनता से बड़ी कोई इकाई नहीं हैं | जहाँ जनमत चाहेगा की एक भाषा हो, हिन्दी हमारी राष्ट्र की प्रतिनिधि भाषा हो तब सरकार को भी झुकना होगा | ‘एक साधे-सब सधे’ के सूत्र से राष्ट्र में भाषा क्रांति का सूत्रनाद संभव हैं, अन्यथा ढाक के तीन पात|

राजनीति से बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि इन्हीं राजनैतिक छल-प्रपंचों ने हिन्दी को अभी तक स्वाभिमान नहीं दिलाया | इन्ही पर किसी शायर का एक शेर है –

गर चिरागों की हिफ़ाज़त फिर इन्हें सौंपी गई,

तो रोशनी के शहर में बस अंधेरा ही रह जाएगा…

 

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

पत्रकार एवं स्तंभकार

[ लेखक डॉ. अर्पण जैनअविचलमातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं| ]