‘फ़ुटपाथ’ पैदल यात्रियों के लिए, ठेले लगाने के लिए नहीं

देश के सबसे स्वच्छ शहर इन्दौर अब अन्य शहरों के लिए मानक और सीखने का विश्व विद्यालय बनता जा रहा है, जैसे स्वच्छता के मामले में हमने रिकॉर्ड बढ़त हासिल की, उसी तरह शहर को सुंदर रखना भी शहर वासियों की ज़िम्मेदारी है, और शहर यदि सुंदर रहेगा तो कई समस्याओं से मुक्त भी रहेगा।
शहर के सौंदर्यीकरण और लोगों की सुविधा के लिए नगर निगम द्वारा सड़क किनारे दोनों ओर फ़ुटपाथ बनवाए हैं, परंतु फ़ुटपाथ पर दुकानदार और फल विक्रेताओं ने कब्ज़ा कर लिया है। इस कारण बाज़ार में ख़रीदारी के लिए पैदल आने वाले लोगों को मजबूरी में सड़क पर चलना पड़ रहा है। हालांकि फ़ुटपाथ पर दुकानदार के सामान और ठेला दुकानदारों की नगर निगम कई बार कार्रवाई कर चुकी है, परंतु कुछ दिन बाद स्थिति जस की तस हो जाती है।
लाखों रुपये ख़र्च करने के बाद शहर के कई इलाकों में बने फ़ुटपाथ अब कब्ज़े और अतिक्रमण के शिकार हो गए हैं, फल विक्रेता, चाय-पान के ठेले, अन्य खाद्य सामग्रियों की दुकानें और साथ-साथ दुकान के आगे बने फ़ुटपाथ पर तो दुकानदार का ही कब्ज़ा जमा गया है। निगमकर्मी जब इन ठेलों-अस्थायी दुकानों को हटाने पहुँचते हैं तो सामान्यतः विवाद होता ही है। इनमें से कई फ़ुटपाथ पर कब्ज़े तो क्षेत्रीय जनप्रतिनिधियों के समर्थन से चल रहे हैं, नेता के समर्थक नेताजी के नाम से कब्ज़े कर रहे हैं, जिनका किराया वसूला जा रहा है। ऐसे में शहर बदरंग होता जा रहा है, जो चिंता का विषय है। स्थानीय मरीमाता क्षेत्र हो अथवा एम.जी. रोड़ या एबी रोड़, हर फ़ुटपाथ पर रेहड़ी, ठेले और दुकानदारों के अतिक्रमण सामान्यतः दिख ही जाएँगे।
महानगर की दिशा में बढ़ते इन्दौर की व्यवस्थाओं में बेहद सुधार आवश्यक है, जो निगम की सख़्ती, दंडात्मक कार्यवाही और जनता की स्वीकार्यता से ही सम्भव है। यदि जनता भी जागरुक हो जाएगी तो शहर की ख़ूबसूरती पर कोई दाग़ नहीं लगा सकता।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं हिन्दीयोद्धा
इंदौर

शहर में फैल रहा ‘ई-रिक्शा’ से अव्यवस्थाओं का महाजाल

लापरवाह और बेपरवाह बनता जा रहा महानगर इन्दौर, इन दिनों ई-रिक्शा के कहर से भी अछूता नहीं है। जहाँ मर्ज़ी ई-रिक्शा रोकी और सवारी बैठाना-उतारना शुरू, जहाँ मर्ज़ी वहाँ पार्किंग। ऐसे में आलम यह है कि शहर की सुचारू बन रही यातायात व्यवस्थाओं में भी यह ई-रिक्शा मुसीबत बनती जा रही हैं।
बीते दिनों तो इन्दौर शहर में ई-रिक्शा की बैटरी फटने से दो लोगों की मौत हो गई। मामला विजय नगर क्षेत्र का है, जिसमें ई-रिक्शा की बैटरी फटने से झुलसी 60 वर्षीय रामकुंवर बाई पति नाथूसिंह के इलाज के दौरान बुधवार सुबह मौत हो गई। इसी हादसे में झुलसी उनकी बेटी पवित्रा की सोमवार को मौत हो गई थी। दोनों का एमवाय अस्पताल में इलाज चल रहा था। ई-रिक्शा चालक भी इस दुर्घटना में झुलसा है, जिसका इलाज चल रहा है। उसके ख़िलाफ़ पुलिस ने मामला भी दर्ज कर लिया है।
ई-रिक्शा निश्चित रूप से सस्ते और पब्लिक ट्रांसपोर्ट का अच्छा माध्यम हो सकते हैं किन्तु अव्यवस्था और मनमानी के चलते हादसों के कारण भी बनते जा रहे हैं। ऐसे कई मामले हैं जिसमें ई-रिक्शा से यात्रियों की जान जोखिम में डालना, यातायात नियमों का उल्लंघन, और दुर्घटनाएँ शामिल हैं, जैसे कि एक ई-रिक्शा में बहुत ज़्यादा लोगों का बैठना, बैटरी फटने से आग लगना, और अन्य वाहनों से टक्कर। ये घटनाएँ लापरवाही, सुरक्षा नियमों की अनदेखी और कभी-कभी जानबूझकर ख़तरे पैदा करने का परिणाम हैं।
ये बेलगाम ई-रिक्शा संचालक यात्रियों की क्षमता से ज़्यादा लोगों को उसमें बैठा लेते हैं, और इससे यात्रियों की जान जोखिम में डाल देते हैं। ई-रिक्शा का अन्य वाहनों से टकराना और दुर्घटनाओं का कारण बनना भी शामिल है, जिसमें कई मौतें भी हुई हैं।
शहर की व्यवस्थाओं को दुरुस्त करना है तो इन ई-रिक्शाओं को नियंत्रित और नियमानुसार संचालित करना होगा, भीड़ वाले क्षेत्र जैसे राजवाड़ा, रीगल, पलासिया चौराहा, मधुमिलन क्षेत्र, विजय नगर, रसोमा चौराहा सहित लालबाग चौराहा, महूनाका, अन्नपूर्णा क्षेत्र इत्यादि में इन ई-रिक्शाओं के कहर से यातायात व्यवस्था भी बिगड़ रही है और यात्रियों की जान का संकट भी खड़ा है।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं हिन्दीयोद्धा,
इन्दौर

पत्रकारों से क्यों छूट रहा पुस्तकालय या संदर्भ कक्ष?

चौथा खम्बा

लिखने से अधिक पढ़ना चाहिए, यह सनातन सत्य है, जो हर लिखने-पढ़ने वाले व्यक्ति से कहा जाता है, पर क्या आज भी लोग लिखने से अधिक पढ़ने में विश्वास करते हैं? इस प्रश्न के उत्तर को खोजने पर खाली हाथ ही लौटना होगा। कारण साफ़ है, आपाधापी के दौर में पत्रकारिता के लोग अब केवल लिखने पर विवश हैं, भाषाई समृद्धता की ओर न तो पत्रकारिता संस्थान ध्यान देते हैं और न ही पत्रकार।

यही सच है कि मीडिया संस्थानों से पुस्तकालयों ने विदाई लेना शुरू कर दी है, कुछेक इक्का-दुक्का संस्थान ही शेष बचे हैं जहाँ निजी पुस्तकालय जीवित हैं। कुछ मीडिया संस्थानों में पुस्तकालय तो जीवित हैं पर वहाँ पत्रकारों के पास फुरसत नहीं है कि उस पुस्तकालय का कभी उपयोग कर लिया जाए। इन्दौर प्रेस क्लब में पूर्व अध्यक्ष अरविंद तिवारी ने प्रीतमलाल दुआ स्मृति संदर्भ एवं अध्ययन कक्ष का निर्माण करवाया, सैंकड़ों किताबें रखवाईं, वरिष्ठ लाइब्रेरियन एवं पत्रकार कमलेश सेन के माध्यम से दुरुस्तीकरण और संयोजन भी करवाया पर भाग्य अनुसार उस पुस्तकालय में 6 महीने में कुछ पाठक भी ऐसे नहीं आए, जो किसी किताब को पढ़ना चाहते हों अथवा उन्हें पढ़ने के लिए ऐसी किसी पुस्तक की आवश्यकता हो जो पुस्तकालय में नहीं हो और क्लब उसे ख़रीदकर बुलवा सके।
ऐसे कठिन दौर में भी पत्रकारों को अपनी पढ़ने-लिखने की आदत को फिर से जीवित रखना होगा। पहले के समय में जैसे संदर्भों का उपयोग/प्रयोग ख़बरों में किया जाता था, अब वह भी डायनासोर की भांति विलुप्त होता जा रहा है। संदर्भों का अध्ययन करना होगा, तभी हमारी लिखने की शक्ति बढ़ेगी, भाषाई और शाब्दिक संपदा में बढ़ोत्तरी होगी वरना एक दिन यह अच्छी भाषा भी विलुप्त हो जाएगी। इस समय पत्रकारिता के सामने भाषाई सौन्दर्य और हिन्दीनिष्ठ भाषा दो महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ हैं, जो भाषाई अस्तित्व को बचा सकती हैं। ऐसे में यदि हमने पुस्तकालय नहीं बचाए तो पुस्तक संस्कृति मर जाएगी, फिर रोबोट ही लिखेंगे एआई या गूगल के सहारे तथ्यात्मक ख़बरें।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं लेखक, इंदौर

पारंपरिक सराफ़ा बाज़ार बचाना शहर की ज़िम्मेदारी

वर्षों से शहर की पुरातन परम्पराएँ जीवित हैं, उसमें शहर की पहचान भी सम्मिलित है और शहर के खान-पान का ठियों का भी अपना महत्त्व है। उन्हीं पारंपरिक पहचान में शहर के सराफ़ा बाज़ार में रात में लगने वाला खाने-पीने का बाज़ार भी शामिल है। लगभग सौ वर्षों से अधिक समय से यह बाज़ार इस शहर में सजता है।
इंदौर के स्‍वादिष्‍ट व्‍यंजन पूरे भारत में मशहूर हैं। यहाँ का सराफ़ा बाज़ार का स्‍ट्रीट फ़ूड मार्केट है। यहाँ घूमने आने वाले लोगों को हज़ारों तरह के अलग-अलग व्‍यंजनाें का स्‍वाद चखने का मौका मिलता है। अगर आप शाकाहारी हैं, तो आपके लिए तो यह मार्केट बहुत अच्‍छा है, क्‍योंकि यहाँ पर कुछ भी माँसाहारी नहीं मिलता। स्थानीय सराफ़ा व्यापारियों ने ही इस बाज़ार को प्रोत्साहित किया था, ताकि उनकी दुकानें अंधेरी रात में भी सुरक्षित रहें। किन्तु विगत कुछ सालों से इस बाज़ार में पारंपरिक स्वाद के अलावा विदेशी स्वाद चाइनीज़, इटालियन, मैक्सिकन खाद्य सामग्री की भरमार होने लग गई। साथ ही, कई विकृतियों ने घर करना शुरू कर दिया था। इसी को लेकर स्थानीय सराफ़ा व्यापारियों ने प्रशासन से शिकायतें कीं और परिणाम स्वरूप इस मार्केट से अब उन गैर पारंपरिक खाद्य पदार्थों का विक्रय प्रतिबंधित किया गया है।
बहरहाल, विषय यह भी है कि क्या इंदौर चाहता है कि हम ‘फ़ूड कैपिटल ऑफ़ मध्यप्रदेश’ का अपना तमगा खो दें या फिर अपने पुरातन स्वाद को समाप्त कर दें या फिर उन पारंपरिक व्यंजनों से आने वाली पीढ़ी को वंचित कर दें?
यदि इंदौर यह सब नहीं चाहता है तो फिर इंदौर को प्रशासन के इस निर्णय के साथ खड़ा होना होगा। हमें अपने पुरातन स्वाद को बचाना है तो तटस्थ होना ही होगा। हमें सराफ़ा में होने वाली उच्छंदताओं के विरुद्ध एकजुट होना पड़ेगा, खाद्य सामग्रियों के नाम पर परोसे जाने वाले कचरे का विरोध करके अपने इंदौर के पारंपरिक स्वाद को जीवित रखना होगा, तभी हम देशभर में व्याप्त हमारी पहचान बचा पाएँगे वरना एक दिन यह सब चाइनीज़, इटेलियन, मैक्सिकन और न जाने क्या उटपटांग की भेंट चढ़ जाएगा।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं हिन्दीयोद्धा
इंदौर

विकास के नाम पर ‘इंदौर की मौत’

तरक़्क़ी की गगनचुम्भी इमारत खड़ी करने की कवायद है, शहर को मेट्रो पर दौड़ाने की तैयारी जारी है, मास्टर प्लान लागू करने की बेहद जल्दी है, पर इन सबके बीच शहर के बीचोबीच बना जंगल उजाड़ा जा रहा है, पुरानी और ऐतिहासिक इमारतों को तोड़ने की चर्चा आम है। शहर की पुरानी सड़कों को दुरुस्त करने की बात तो होती है, पर बैठकों में सीधे फ़रमान जारी होता है, अतिक्रमण के नाम पर धरोहरों को तोड़ दो।
साहब! इंदौर अपने सांस्कृतिक और ऐतिहासिक वैभव के कारण जाना जाता है, विश्व की धरोहरों में शामिल राजवाड़ा जैसी इमारतों के साथ-साथ यहाँ की परम्पराएँ जैसे रंगपंचमी की गैर, अनंत चतुर्दशी की झाँकियाँ और अन्य कई उत्सव और इमारतें इस शहर की पहचान हैं।
एक तरफ़ अफ़सर यह कहते हैं कि 100 फ़ीट की सड़कें तैयार करनी हैं, तो बीच में आने वाले मकान तोड़ दो। पर वही अफ़सर इस बात पर मौन है कि मुआवज़ा कितना देना चाहिए, जिनके पास सालों से पट्टे या रजिस्ट्री हैं।
आपने आज चुना मास्टर प्लान पर 100 साल पहले या 200 साल पहले कोई मास्टर प्लान नहीं था, तात्कालिक लोगों ने अपनी ज़मीन ख़रीदी और मकान बनाए, पर आज के काग़ज़ अब उन्हें अपनी धरोहरों को अतिक्रमण साबित करने से बचाने में लगे हैं। आख़िरकार इस तरह के विकास की अंधाधुंध दौड़ से इंदौर की मौत होगी।
मर जाएगा यह उत्सवधर्मी शहर, क्योंकि इस शहर की साँस इसकी ऐतिहासिकता के कारण चल रही है। एमजी रोड, भमोरी चौराहे से एमआर 10 वाली सड़क सब तरफ़ अफ़सरों ने अतिक्रमण दिखा दिया जबकि शहर विकास के नाम पर छला जा रहा है।
शहर की मौत के ज़िम्मेदार वे जनप्रतिनिधि भी होंगे, जो इस कृत्य पर मौन हैं। जब विकास का दुःशासन शहर की पांचाली का चीर हरण कर रहा है और जितने धृतराष्ट्र, पितामह भीष्म अपना मौन धारण कर रहे हैं, वे सबके सब अपराधी ही माने जाएँगे। इतिहास इन जनप्रतिनिधियों को भी माफ़ नहीं करेगा।
एक तरफ़ मेट्रो को दौड़ाने की जल्दबाज़ी है तो दूसरी तरफ़ पार्किंग न होना शहर पर बोझ है। ऐसे में शहर इंदौर मर रहा है, अब इसे बचाने के लिए क्या फिर किसी कृष्ण के जन्म की सद्इच्छा रखनी होगी या फिर शहर यूँ ही मर जाएगा!

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं हिन्दीयोद्धा, इंदौर

मीडिया का उतावलापन है बेहद घातक

चौथा खम्बा

समाचारों को भेजने और ख़बर को ब्रेक करने की रणनीति, ‘पहले हम-पहले हम’ की अनावश्यक भागमभाग, फ़्लैश करने की हड़बड़ी और इन सबके बीच विश्वसनीयता का गहरा संकट आज की मीडिया के सामने मुँहबाहें खड़ा हुआ है।
बीते दिनों फ़िल्म अभिनेता धर्मेन्द्र के मामले में भी यही नज़र आया। देश के सबसे बड़े चैनल होने का दावा देने वाले न्यूज़ चैनल और उससे जुड़े पत्रकारों ने धर्मेन्द्र के निधन के समाचार अपने चैनल और सोशल मीडिया हैंडल पर चला दिए। इस समाचार को देख लाखों प्रशंसकों ने अपने सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलि तक दे दी, यहाँ तक कि कई बड़े राजनेताओं ने भी शोक संदेश तक जारी कर दिए। इसी बीच धर्मेन्द्र की पत्नी हेमा मालिनी एवं बेटी ईशा देओल ने पिता के जीवित होने का ट्वीट कर मीडिया को कोसा भी।
सच भी यही है कि, किसी व्यक्ति के अत्यधिक अस्वस्थता होने पर भी परिवार जीवित होने की प्रार्थनाएँ करता है और ऐसे मुश्किल समय मीडिया का इस तरह का गैर ज़िम्मेदाराना व्यवहार परिवार को भी आहत करता है।
ऐसा पहली बार भी नहीं हो रहा है, बीते 5 वर्षों में कम से कम दसियों विशिष्ट व्यक्तित्व के मामलों में मीडिया के लोगों का इस तरह अपुष्ट समाचार प्रसारित करना मीडिया की गंभीरता पर प्रश्न चिह्न लगाता है और विश्वसनीयता पर भी संकट खड़ा होता है।
पुलवामा हमले के बाद कश्मीर एवं सीमावर्ती क्षेत्रों में दुश्मन देश पाकिस्तान द्वारा ड्रोन हमले किए जा रहे हैं, उसी समय एक बड़े चैनल ने वीडियो गेम वाले ड्रोन वीडियो लाइव चैनल पर चला कर भी आमजन के बीच किरकिरी करवाई थी।
आख़िर अमानुषता मीडिया के क्षेत्र में क्यों हावी होती जा रही है? यह भी विषय खोजने का है। आख़िर किस बात की इतनी जल्दबाज़ी है कि मीडिया के साथी बिना पुष्टि और ठोस आधार के गंभीर मुद्दों पर भी जनभावना से खिलवाड़ करने वाली ख़बरें प्रसारित कर देते हैं? जब हाल बड़े चैनलों का इस तरह का है तो छोटे समाचार संस्थाओं की तो हालत और भी खस्ता है। आधे से ज़्यादा न्यूज़ पोर्टल और रीजनल चैनल अपने सोशल मीडिया पर नाम के बड़े चैनलों को ही ख़बर की पुष्टि मानकर कॉपी-पेस्ट की रणनीति के तहत ख़बरें प्रसारित कर देते हैं। उन्हें अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है, अन्यथा वैसे भी कई मामलों में भारतीय मीडिया अब जनता के बीच कम विश्वसनीय बचा है, रही सही कसर इस तरह के घटनाक्रम पूरी कर देते हैं। अब भी समय विश्वसनीयता पुनः स्थापित करने में गंभीरता दर्शाने का है, अन्यथा एक दिन मीडिया देश में अप्रासंगिक हो जाएगा।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं हिन्दीयोद्धा, इंदौर

न्यूज़ वेबसाइट के सामने मंडराता वैधानिकता का संकट

चौथा खम्बा

देश और दुनिया डिजिटल होती जा रही है, कम्प्यूटर युग चल रहा है और इसी दौर में भारत में डिजिटल क्रांति की हुँकार भरने वाली सरकारें भी मीडिया के डिजिटलीकरण पर अपनी उदासी ज़ाहिर कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपना आईटी प्रेम तो जताते हैं, पर उदासीनता मीडिया के क्षेत्र में अव्वल है। 1 जुलाई 2015 को प्रधानमंत्री ने डिजिटल इंडिया परियोजना की शुरुआत की थी।
अमेरिका जैसे विकसित राष्ट्र ने 30 जून 2000 में तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की अगुआई में इलेक्ट्रानिक हस्ताक्षर को क़ानूनी मान्यता दे कर उस राष्ट्र के सम्पूर्ण डिजिटल होने का प्रमाण दे दिया था, उसी तरह हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार देश में डिजिटल भारत के सपने को साकार करने में जुटे हैं। इसलिए भारत में मीडिया संस्थानों ने भी स्वयं को डिजिटल युग के साथ-साथ गठजोड़ बनाने के उद्देश्य से तैयार करना शुरू कर दिया।
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने वेबसाइटों पर विज्ञापन के लिए एजेंसियों को सूचीबद्ध करने एवं दर तय करने के उद्देश्य से दिशानिर्देश और मानदंड तैयार तो किए हैं। नियमों के अनुसार, विज्ञापन एवं दृश्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) सूचीबद्ध करने के लिए भारत में निगमित कंपनियों के स्वामित्व एवं संचालन वाले वेबसाइटों के नाम पर विचार करेगा। किन्तु उन वेबसाइटों का पंजीयन, क़ानूनन मान्यता अब भी अधर में लटकी हुई है।
जिस प्रकार भारत में समाचार पत्र प्रकाशित करने के लिए तमाम तरह की मान्यताएँ लेनी होती हैं, जिनमे भारत सरकार के अधीनस्थ ‘भारत के समाचार पत्रों के पंजीयक कार्यालय’ की ही महत्त्वपूर्ण भूमिका है, जिसके पंजीयन होने के बाद ही उसे टाइटल और आरएनआई नंबर मिलता है और फिर समाचार पत्र का प्रकाशन होता है, उसी तरह डिजिटल पोर्टल के पंजीयन की दिशा में सरकार का कोई ख़ास ध्यान नहीं है। मान्यता या वैधानिकता के अभाव में पोर्टल को आज भी कोई विशेष तवज्जों नहीं मिल रही।

सरकारों ने न्यूज़ वेबसाइटों के लिए विज्ञापन नीति तो बनाई है किन्तु विज्ञापन नीति के अतिरिक्त भी महत्त्वपूर्ण विषय न्यूज़ पोर्टल या कहें न्यूज़ वेबसाइटों की क़ानूनन मान्यता की है। राष्ट्रीय स्तर पर कोई संस्थान ऐसा नहीं बना, जो भारत में संचालित वेब न्यूज़ पोर्टल की रीति-नीति बना पाए, केवल पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी, भारत सरकार) ही कुछ नियम बना पाया परन्तु वो भी पोर्टल को क़ानून के दायरे में लाने में असमर्थ रहा। यदि इसी तरह चलता रहा तो वैधानिकता के अभाव में न्यूज़ पोर्टल संचालित तो होंगे पर बेलगाम ही रहेंगे।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं हिन्दीयोद्धा
इंदौर, मध्यप्रदेश

लोकतंत्र में पत्रकारिता का पक्ष बने मज़बूत

चौथा खम्बा

लोकतंत्र की मर्यादाओं को संवैधानिक दृष्टि से सदैव सर्वोपरि रखा जाता है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ पत्रकारिता को माना गया है, और यही चौथा स्तंभ महत्त्वपूर्ण भी है। इस समय इसी चौथे स्तंभ का वर्तमान बेहद संवेनशील हो रहा है। हर छोटी-सी छोटी बात पर या बड़ी घटना पर भी दोष कहीं न कहीं मीडिया का नज़र आने लगा है। देश में मीडिया के ही कुछ चेहरों के कारण मीडिया की ताक़त ही कमज़ोर हो रही है। आख़िरकार इस तरह की घटनाओं से मीडिया के अस्तित्व पर चुनौती बन रही है।
जैसे-जैसे पत्रकारिता के स्वरूप में परिवर्तन होने लगा, नए मीडिया के उदय के बाद पत्रकारिता के मूल तत्व में उद्दंडता का भी मिश्रण होने लगा है। उद्दण्ता से तात्पर्य मूल्यहीनता से भी है। पत्रकारिता में कुछ ऐसे तत्व भी आ गए, जो ये नहीं जानते कि भारतीय पत्रकारिता का इतिहास क्या है? हिंदी पत्रकारिता को किन लोगों ने पोषित किया है? किन आदर्शों और वैचारिक मूल्यों से भारत में पत्रकारिता पल्लवित और पुष्पित हुई है? इन सब ज्ञान के अभाव में विधा में शामिल रंगे सियार उसी डाल को काटने पर आमादा हो जाते हैं, जिस पर वे बैठे हैं।

मेरा इशारा उन तत्वों की ओर है, जो गाहे-बगाहे पत्रकारिता में पीत पत्रकारिता, फेक न्यूज़, दलाली, दुकानदारी और अन्य तरह के षड्यंत्र घोल रहे हैं। बेशक नए रूप में आने वाली हवा भी अपना प्रभाव साथ लाती है, उसी तरह पत्रकारिता में जिस तरह से डिजिटल मीडिया, नए अख़बारों, चैनलों का आना आरम्भ हुआ है, उसी दौरान नए पत्रकार भी बने, जिनमें से अधिकांश बिना डिग्रीधारी पत्रकार बने, जिन्हें पत्रकारिता का भूत, वर्तमान और भविष्य नहीं मालूम और बस निकल गए ख़बर की खोज में, ऐसे लोगों के कारण ही पत्रकारिता में फेक न्यूज़ जैसे तत्व को शामिल कर लिया है। कुछ पुराने चावल भी पत्रकारिता को अपने स्वार्थ के चलते गन्दा करने से बाज़ नहीं आ रहे।
वर्तमान सुधारने के लिए नींव को पुनः मज़बूत करना होगा, नींव की सुदृढ़ता न होने से इमारत लगातार खण्डित हो रही है।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं हिन्दीयोद्धा, इन्दौर

एआई के दौर में ज़रूरी है पत्रकारों की तकनीकी दक्षता

चौथा खम्बा

घटना हुई, पॉइंट बना, ब्रेकिंग हुई, इसी बीच वेबसाइट या सोशल मीडिया पर पूरा घटनाक्रम समाज के सामने आ गया, इस तकनीकी दौर में जो तत्परता सोशल मीडिया का उपयोगकर्ता दिखाता है, उससे कहीं अधिक तत्परता ज़िम्मेदार पत्रकार को भी रखनी होगी, अन्यथा उसकी प्रासंगिकता समाप्त हो जाएगी। और तत्परता के साथ-साथ ख़बरों की पुष्टि भी महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी है।
ऐसे तकनीकी दौर में पत्रकारों को नए मीडिया के साथ क़दमताल करना भी आना चाहिए। तमाम अनुभवों के बाद भी जब तकनीक की बात आती है तो पत्रकार पिछड़ते जाते हैं। इस प्रयोजन के लिए पत्रकारों को नए ज़माने के टूल्स के साथ अपना नाता बनाना होगा।
जैसे-जैसे डिजिटल मीडिया अपना विस्तार कर रहा है, वैसे-वैसे पत्रकारों को भी सूचनाओं की पुष्टि, उनका प्रेषण और प्रकाशन भी त्वरित करने की आदत डालनी होगी।
देश के कई संस्थान अपने व्यय पर तकनीकी प्रशिक्षण कार्यक्रम भी आयोजित करते हैं, और व्यक्ति निजी रूप से भी तकनीक को सीख सकता है।
जैसे एआई और ग्रुक का प्रयोग, ईमेल तकनीक, वॉइस टाइपिंग और वीडियो एडिटिंग के साथ-साथ अब नए टूल्स भी सीखना अनिवार्य होगा। कैसे गूगल का उपयोग कर सकते है,? कैसे ख़बरों के वेरिफ़िकेशन की नई टेक्नीक का इस्तेमाल कर सकते हैं? इन सबके अतिरिक्त प्रत्येक पत्रकार को अब सोशल मीडिया मार्केटिंग और सर्च इंजिन ऑप्टिमाइज़ेशन की जानकारी होना भी ज़रूरी है। अपनी ख़बरों को कैसे वायरल करें? यूट्यूब पर कैसे ख़बरे प्रसारित होती हैं? इन विषयों पर भी गंभीरता के साथ प्रशिक्षित होना आवश्यक होगा।
आने वाले समय में मोबाइल जर्नलिस्म बड़ी चुनौती बनकर सामने आ रहा है, ऐसे में हर पत्रकार को मोजो सीखना होगा ताकि अपना वजूद स्थापित रख सके, वरना नई तकनीक पुराने तरीकों को धूल धूसरित कर रही है।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं हिन्दीयोद्धा, इंदौर

मानवता की परिधि से बाहर होता इन्दौर

सच ही पढ़ा कि यह शहर अब अमानवीय होने पर आमादा है। शहर ही नहीं अपितु यहाँ आने वाले अफ़सरों को भी अमानवीयता की कार्यशाला का हिस्सा बनाकर भेजा जाता है। अफ़सरों से पहले जनप्रतिनिधियों की पाठशाला में मानवता को सरेआम कुचलना ही पदोन्नति का पर्याय हो गया है।
अब क्या ही कहें इस शहर को, जो अपने बाशिंदों की मौत पर भी मौन है?
शब्दों ने अपनी आत्मा के चोले को उतार फेंका है, बचे हुए अक्षर अब मातम मनाने का ढोंग कर रहे हैं। यही न कहें तो क्या कहें उस शहर के बारे में जो तरक़्क़ी की ऊँची-ऊँची इमारतों पर इतरा तो रहा है पर हादसों की जद में आए अपने ही लोगों की मौत पर भी मौन है।
सोमवार को इन्दौर के एरोड्रम रोड पर शाम को एक ट्रक, जो कई गाड़ियों और सड़क पर चलने वालों को मदमस्त रौंदता हुआ बढ़ गया और फिर बाद में 8 लोगों की अधिकृत मौत हो गई, कई घायल हो गए। सवाल सबसे पहला यहीं से शुरू होता है कि ‘ट्रक उस क्षेत्र में घुसा कैसे?’
फिर बात आती है कि इस हादसे के बाद शहर की क्या प्रतिक्रिया रही? फिर अफ़सरों ने कितनी लीपा-पोती की और फिर नेताओं का एकतरफ़ा मौन!
कमाल है, जो शहर मुख्यमंत्री डॉ. यादव के प्रभार वाला शहर हो, जहाँ अफ़सरों की तैनाती में भी मुख्यमंत्री कार्यालय का दख़ल होता हो, ऐसे दौर में वे अफ़सर क्यों मौन बैठ गए कि ट्रक ने कैसे रौंद दिया! और कितनी साफ़-सफ़ाई रखकर सड़क साफ़ करवाई जा सकें।
कुछ दिनों पहले शहर ही नहीं अपितु जिले के सबसे बड़े शासकीय अस्पताल में नवजात शिशु को चूहे कुतर गए थे, तब भी अफ़सरों की चुप्पी तो झेल गए पर जनता की चुप्पी खल गई। एरोड्रम वाले हादसे के बाद भी जनता अगले दिन भूल कर अपने काम में लग गई।
पहले भी यही सब हुआ है। पहले जब सरवटे बस स्टैंड के होटल के गिरने से 11 लोग मर गए, रिवर साइड स्थित पटाखे की दुकान में लगी आग ने लोगों की जान ले ली, डीपीएस विद्यालय हादसे ने बच्चों की जान ले ली, और तो और रामनवमी पर बावड़ी के धसने से 36 लोग दब कर मर गए, तब भी कुछ मोमबत्तियों के सिवा हुआ क्या?
आज भी यही बात है कि शहर की चुप्पी और नेताओं के मौन ने अफ़सरों की मनमर्ज़ी को मानो इन्दौर को अमानवीय सिद्ध करने का काम किया है। जनप्रतिनिधियों के मौन ने यह बता दिया कि अफ़सर तंत्र के आगे वे भी बेबस हो गए, अब सुरेश सेठ जैसी बेझिझक शख़्सियत शहर में बची ही नहीं, जो माँ अहिल्या के मान को बचा कर शहर को इस तरह के हादसों का गुलाम बना दिया, जो हमेशा मौन धारण करके बैठ जाता है।
मुख्यमंत्री तो शहर में आए दिन आते रहते हैं, फिर भी वो केवल आश्वासन देकर रफ़ू चक्कर।
शहर में सैंकड़ों की संख्या में बुद्धिजीवि, नेतृत्व कौशल लोग मौजूद हैं, पर सबका मौन शहर को मानवता की परिधि से बाहर कर रहा है, जिसे न रोका गया तो शहर इन्दौर व्यावसायिक तो बन जाएगा और हम हाथ मलते रह जाएँगे।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’