लघुकथा – उम्र का साथ

सबेरे सबेरे घर के पास ही बने गार्डन में लगभग 10 से 12 लोग जमा होकर बातचीत करते रहते हैं, आशिमा के दद्दू भी रोज जाया करते है। मार्निग वॉकर क्लब भी बना हुआ है उनका और हफ्ते में रविवार का उन सब को बेसब्री से इंतजार रहता हैं|
रविवार को वे सब टोली सहित आनंद बाजार में प्रशान्त उसल पर उसल पोहा और जलेबी खाते है।
एक दिन आशिमा से रहा नहीं गया और उसने दद्दू से आखिर पूछ ही लिया,
दद्दू ! आप रोज क्यों गार्डन जाते है?
और आखिर रविवार का ही क्यों इंतजार करते हो जबकि आप चाहों तो रोज पोहा-जलेबी घर में खा सकते हो |
पर…..!
इतना कहना ही था आशिया का और दद्दू ने जवाब दिया “बेटा, अब तुम सब घर में तो दिनभर मोबाईल, कम्प्यूटर में लगे रहते हो, तुम्हारे पास कौन-सा हमारे लिए समय होता है, ऐसे में मार्निग वॉकर क्लब ही बची हुई जिन्दगी का सहारा है।”

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

लघुकथा- बदलाव

“अरे आश्वस्ति! तुम अपने मायके से इतनी जल्दी कैसे आ गई?” पड़ोस वाली भाभी ने लौटती हुई आश्वस्ति से पूछा।

“अब क्या ही बताऊँ भाभी! आजकल मायके से ज़्यादा अपना घर याद आता है। वहाँ भी भाभी, भैया की अपनी ज़िंदगी है। उनके भी अपने काम हैं। एक समय बाद मायका बदल ही जाता है।”

“अच्छा! क्या इसीलिए तुम्हारी ननद भी आजकल छुट्टियों में तुम्हारे घर कम आती है?”

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

लघुकथा- चुनौती

*चुनौती*
सुन निगोड़ी… रोज सुबह उठ कर कहा चली जाती है, रोज के काम करना ही नहीं चाहती,
घर के बर्तन, कपड़े, खाना बनाना ये सब कौन करेगा…? तेरी माँ???
नौकरी से ज्यादा जरुरी घर का काम भी है…

रमा की सास ने रमा को डाँटते हुए कहा.. इसी बीच रमा का पति आकर कहने लगा…

*’रमा इस बार मकान की किश्त तुम तुम्हारी तनख्वाह से चुका देना, मेरी तन्ख्वाह इस बार भी नहीं मिली है……😔’*

अब चुनौती रमा के लिए यह है कि सास के काम में हाथ बटाएं या नौकरी करके घर चलाएं…?

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*

हिन्दीग्राम, इंदौर

लघुकथा- मंचों की कवयित्री

संस्कृति मंचों की एक उम्दा कवियत्री है । सप्ताह में 4 से अधिक कवि सम्मेलनों में रचना पाठ करना ही संस्कृति की पहचान थी ।
पुरुषप्रधान समाज होने के कारण कई बार संस्कृति का सामना फूहड़ कवियों और श्रोताओं से भी होता था ।
इसी बीच एक गाँव में हुए कवि सम्मेलन में संचालक द्वारा संस्कृति की रचना को लेकर भद्दी और अश्लील फब्तियाँ मंच से कस दी ।
संस्कृति ने आव देखा ना ताव, मंच से ही संचालक के शब्दों का कड़ी *प्रतिक्रिया* दी और दो टूक शब्दों में संचालक कवि की लू उतार दी ।
उस संचालक को आयोजकों ने भी खूब लताड़ा और मंच से उतार दिया । शर्मिंदगी के मारे उस संचालक को काव्य जगत से भागना ही पड़ा ।
आज संस्कृति के प्रतिक्रियावादी रवैये से कई स्त्रीयों का लाभ हुआ जो मंच के गौरव के कारण यह सब सह जाती थी ।
यदि समाज में रहना है तो हर गलत कथ्य या आचरण का प्रतिकार करना आना चाहिए, वर्ना प्रतिकार न करना चलन का हिस्सा बन जाता है । और इससे कई लोग प्रभावित होते है ।

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
हिन्दीग्राम, इंदौर

लघुकथा- प्रतिक्रिया

*लघुकथा- प्रतिक्रिया*

सारांश अपनी व्यस्त जीवन शैली में संचयनी के साथ बहुत खुश था, पर संचयनी अपनी सहेलियों और सहकर्मीयों के बीच बहुत सीधी और भोली थी |
संचयनी के सहकर्मी उसके भोलेपन का हमेशा नाजायज फायदा उठा कर संचयनी को ही तंज कसते रहते थे, जिसके कारण वह पिछले कुछ दिनों से थोड़ी उखड़ी-उखड़ी सी रहने लगी थी, जबकि संचयनी पेशे से एक्युप्रेशर चिकित्सक थी, और उसका शौक लेखन था ।
उसकी एक सहकर्मी ने संचयनी की डीग्री पर जलनवश टिप्पणी की थी , जिससे संचयनी बहुत ज्यादा व्यथित थी ।
उसके माथे की शिकन देखकर सारांश ने उससे कारण जाना ।
कारण जानने के बाद सारांश ने तर्क दिया कि
संचयनी तुम प्रतिक्रियावादी समाज में रहती हो, और तुम एक बात ध्यान रखो
हर क्रिया की एक *प्रतिक्रिया* होती है,
जब तक तुम प्रतिक्रिया नहीं दोगी, ये समाज तुम्हे जीने नहीं देगा ।
जिस सहकर्मी ने टिप्पणी दी उसका भी तो तुम व्यक्तित्व देखो, क्या वो उस लायक भी है जिसे महत्व दिया जाए, तो तुम क्यों लिहाज करती हो, तुम्हें प्रतिक्रिया देना आना चाहिए ।
इनसब संवाद के बाद से संचयनी के जीवन में बहुत सुधार आया और संचयनी अब प्रतिक्रियावादी समाज में सहर्ष प्रतिक्रिया देकर जीवन को सशक्तता से जीने लग गई है ।

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
इंदौर, मध्यप्रदेश