हिन्दीयोद्धा डॉ. अर्पण जैन को मिलेगा लघुकथा शोध केंद्र समिति द्वारा विशिष्ट हिन्दी सेवा सम्मान

भोपाल। लघुकथा शोध केंद्र समिति, भोपाल म.प्र. द्वारा आयोजित अखिल भारतीय शोध संगोष्ठी 2025 के अवसर पर हिन्दी के प्रचार-प्रसार और विस्तार में जुटे मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ को लघुकथा शोध केंद्र भोपाल द्वारा वर्ष 2025 का हिन्दी सेवी सम्मान प्रदान किया जाएगा।

ज्ञात हो कि डॉ. अर्पण जैन सुप्रसिद्ध हिन्दी सेवी हैं, जिन्होंने अब तक लगभग 30 लाख लोगों के हस्ताक्षर बदलवा दिए हैं। साहित्य अकादमी मध्य प्रदेश शासन द्वारा वर्ष 2020 का अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार और जम्मू कश्मीर साहित्य एवं कला अकादमी एवं वादीज़ हिन्दी शिक्षा समिति द्वारा वर्ष 2023 का अक्षर सम्मान डॉ. अर्पण जैन को प्राप्त हुए हैं।
यह सम्मान आगामी 19 जून को भोपाल में आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा अधिवेशन एवं शोध संगोष्ठी में प्रदान किए जाएँगे।

विश्व रंगमंच पर पर्दा नहीं गिरा है अभी

विश्व रंगमंच पर पर्दा नहीं गिरा है अभी
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एक आम भारतीय के दृष्टिकोण से यह कहना बहुत उचित है कि भारत की सरकार ने समझौता किया और अमेरिका के दबाव में कदम पीछे लिए किन्तु जब इसे अंतरराष्ट्रीय परिपेक्ष्य, युद्धनीति और वैश्विक विवशताओं के साथ जोड़कर देखेंगे तो निःसंदेह इसका दूसरा पक्ष भी है, जो जल्द ही सामने आएगा।
मत देखिए कि पाकिस्तान को मदद करने वाले देश कौन हैं पर यह अवश्य देखें कि behind the curtain क्या हो रहा होगा!
एक संवेदनशील प्रधानमंत्री और उनसे भी कहीं अधिक धैर्य रखने वाली भारतीय सेना… विश्वास कीजिए, अवश्य कुछ अलग और बेहतर होगा।
इस समय भारत विकासशील देशों की श्रेणी में आता है, एक उदाहरण है ना कि जब हम सड़क पर चलते हैं तो साइकिल सवार यदि ग़लती से भी कार से टकरा जाए, तब भी ग़लती कार चालक की मानी जाती है। उसी तरह पाकिस्तान साइकिल सवार देश है और भारत कार चालक।
चीन यही चाहता है कि भारत को युद्ध में उलझा कर कुछ नुक़सान करे। पर यह भी तय है कि देश का गंभीर नेतृत्व कुछ तो सोच ही रहा होगा, जबकि वह जानता है कि आगामी चुनाव में इस तरह रणछोड़ बनना उसके राजनैतिक दल के लिए घातक हो सकता है, फिर भी यह निर्णय लिया है तो कुछ तैयारी के साथ ही यह कदम उठाया होगा।
शेष सब शुभ हो, यही कामना है।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं लेखक
इन्दौर

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विचार

‘घर में एक महँगी सामग्री कम लाना पर छोटा-सा पुस्तकालय अवश्य बनाना। पुस्तकें सदैव सहायक होती हैं।’

-डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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लघुकथा – उम्र का साथ

सबेरे सबेरे घर के पास ही बने गार्डन में लगभग 10 से 12 लोग जमा होकर बातचीत करते रहते हैं, आशिमा के दद्दू भी रोज जाया करते है। मार्निग वॉकर क्लब भी बना हुआ है उनका और हफ्ते में रविवार का उन सब को बेसब्री से इंतजार रहता हैं|
रविवार को वे सब टोली सहित आनंद बाजार में प्रशान्त उसल पर उसल पोहा और जलेबी खाते है।
एक दिन आशिमा से रहा नहीं गया और उसने दद्दू से आखिर पूछ ही लिया,
दद्दू ! आप रोज क्यों गार्डन जाते है?
और आखिर रविवार का ही क्यों इंतजार करते हो जबकि आप चाहों तो रोज पोहा-जलेबी घर में खा सकते हो |
पर…..!
इतना कहना ही था आशिया का और दद्दू ने जवाब दिया “बेटा, अब तुम सब घर में तो दिनभर मोबाईल, कम्प्यूटर में लगे रहते हो, तुम्हारे पास कौन-सा हमारे लिए समय होता है, ऐसे में मार्निग वॉकर क्लब ही बची हुई जिन्दगी का सहारा है।”

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

संकट में है अख़बार, भविष्य अधर में

✍🏻 *डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*

‘एक समय आएगा जब अख़बार रोटरी पर छपेंगे, संपादकों की ऊँची तनख्वाह होगी, पर तब संपादकीय संस्थाएँ समाप्त हो जाएँगी।’ ऐसी बात आज़ादी के पहले बाबू विष्णु पराड़कर जी लिख गए, जो आज अक्षरश: सत्य नज़र आ रही है।
आज संपादकीय संस्थान तो विज्ञापन या कहें सर्कुलेशन विभाग के मुनाफ़े और आज्ञा पर ही जीवित हैं।
असल बात तो यह है कि हिंदुस्तानी अख़बार दुनिया का एकमात्र ऐसा हसीन उत्पाद (प्रोडक्ट) है, जो अपनी लागत मूल्य से कम से कम पाँच या दस गुना कम मूल्य में बिकता है क्योंकि शेष लाभ विज्ञापन आधारित माना जाता है।
इसी कारण संपादकीय विभाग भी विज्ञापन विभाग के दबाव में रहने लगा है।
इस मूल्य की क्षीणता के साथ ही वर्तमान समय में देशबन्दी के कारण अख़बारी दुनिया केवल खानापूर्ति मात्र हो रही है।
अख़बारों को संचालित करने वाली व्यवस्था, जिसे विज्ञापन कहते हैं, वो अख़बारों से गायब है, और जब विज्ञापन नहीं होंगे तो अख़बार कैसे ज़िंदा रहेगा!
हालात तो यह है कि देश के कई मीडिया संस्थान कर्ज़े में हैं, घाटे में हैं, कई महीनों से नियमित तनख्वाह तक दे पाने में असमर्थ हैं। इसके बावजूद कोरोना कहर के कारण वितरण भी प्रभावित है और समाचार भी।
ऐसी स्थिति में अख़बारों का प्रबंधन वेंटिलेटर पर आ जाएगा। आर्थिक रूप से टूटे हुए अख़बारी लोग तनख्वाह, भत्ते आदि से परेशान रहेंगे, नौकरियों में संकट आना स्वाभाविक है और कामगारों और पत्रकारों के लिए दुगुनी चिंता क्योंकि समय पर वेतन न मिलने का बोझ और नौकरी करने के कारण जेब से ख़र्च करके नियमित काम करने का भी तनाव। यहाँ तक कि अख़बारी काग़ज़, स्याही आदि ख़रीदी की भी चिंता। इन सबके बावजूद भी अख़बार के घटते पाठक या ग्राहक और डिजिटल मीडिया पर भरोसा करते हुए लोग भी तो अख़बारी पाठन से दूर हो रहे हैं।
वैसे भी विश्व के कई देशों में प्रिंट मीडिया ने अपना रुख इंटरनेट मीडिया की ओर काफ़ी पहले कर लिया है, बीते एक दशक से तो डिजिटल संस्करण श्रेष्ठ विकल्प बनकर उभर रहे हैं।
ऐसे मुश्किल हालात में सरकारों को भी नियमित अख़बारी छपाई को रोक कर डिजिटल संस्करण को अधिक मान्यता देनी चाहिए।
काग़ज़ भी बचेगा यानी जंगल बचेंगे और साथ में यह उद्योग भी लाभ के उद्योग में तब्दील हो पाएगा।
इस संकट की घड़ी में ही सही किन्तु सरकारें यदि नियमित छपी हुई प्रति की माँग को समाप्त कर दें तो शायद अख़बारी दुनिया भी डिजिटल की ओर रुख कर लें, वैसे भी डिजिटल संस्करण की ताक़त ज़्यादा होती है।
और अभी की देशबन्दी के हालातों के बाद तो यकीन जानिए आगामी एक वर्ष तो विज्ञापनों की आमद होने में संकट है और बिना विज्ञापन के अख़बार का भविष्य भी संकट में ही है।
कवि कुमार विश्वास कहीं लिखते है कि
‘जिसके विरुद्ध था युद्ध उसे
हथियार बना कर क्या पाया?
जो शिलालेख बनता उसको
अख़बार बना कर क्या पाया?’
आज अख़बार की दुनिया दोतरफ़ा संकट में है। मूल्यों का क्षरण तो लगातार हो ही रहा है और आर्थिक रूप से पड़ने वाली मार तो ज़्यादा संकट में डालेगी।
डिजिटल दुनिया में तो एक लाभ और भी है कि आप अपने विज्ञापनदाताओं को यह स्पष्टता के साथ बता पाओगे कि कितने लोगों ने विज्ञापन देखा जबकि अख़बार में यह सुनिश्चितता तो है ही नहीं। इसी के चलते ज़्यादा विज्ञापन मिलेंगे क्योंकि कम लागत में विज्ञापनदाताओं का लाभ अधिक है। समय रहते यदि अख़बार नहीं संभल पाए तो आर्थिक, सामाजिक और व्यवस्थाजन्य तो कमज़ोर होंगे ही, साथ में अस्तिव भी संकट में आ जाएगा। जागना आवश्यक है, वर्ना, अख़बार का भविष्य खतरे से खाली नहीं है ।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
ख़बर हलचल न्यूज़, इंदौर

सवाल तो विधान का था…

सवाल तो विधान का था…
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■ डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’

हस्तिनापुर के अनुबंध और करार में बंधें गुरू द्रोणाचार्य ने जब वनवासी बालक और क्षेत्रीय काबिले के सरदार के पुत्र को धनुर्विद्या सीखाने से इंकार कर दिया तो वही वनवासी बलवान एकलव्य गुरु द्रोण की मूर्ति से धनुर्विद्या सीखने लगा और पारंगत होने पर उसी के जंगल में एक कुकुर का भोंकना भी वह न सह सका और शरों से उस कुकुर के मुँह को बंद कर दिया।
तभी गुरु द्रोणाचार्य और पाण्डव उसकी प्रशस्त धनुर्विद्या को खोजते-खोजते एकलव्य से जा मिले, गुरु ने संवाद के बाद जानने पर गुरुदक्षिणा में अंगूठा मांग लिया।
सवाल तो तब भी उठे, और तब भी जब गुरु द्रोण ने धनुर्विद्या सिखाने से इंकार किया ।
जबकि सच तो यह है कि अनुबंध और विधान नाम की कोई चीज होती है, इसको लेकर बुद्धिमान प्रश्न नहीं करते और उनके अतिरिक्त अन्य को आप समझा भी दोगे तो समझ नहीं आएगी, क्योंकि नीति विरुद्ध तो आप भी हो ही।
क्या एकलव्य का दोष नहीं था कि बिना गुरु द्रोण की आज्ञा के क्यों उसने उनकी मूर्ति बनाई?
सवाल तो यह भी उठा कि एकलव्य निरीह वनवासी था, तो महाशय कोई निरीह सीधा-साधा व्यक्ति धनुर्विद्या ही क्यों सीखेगा?
धनुर्विद्या वही सीखते है जिन्हें योद्धा बनना होता है, और कबिले के सरदार का बेटा यानी उस कबिले का अगला सरदार निरीह या मूर्ख नहीं हो सकता।
खैर प्रश्न यही था न कि ‘गुरु द्रोण ने एकलव्य को क्यों धनुर्विद्या नहीं सिखाई?’ और उसके उपरांत भी ‘अँगूठा क्यों दक्षिणा में मांग लिया?’
दोनों ही प्रश्नों का जवाब केवल एक ही था, वो है ‘अनुबंध या संविधान’ ।
हस्तिनापुर को दिए वचनों में धनुर्विद्या सिखाने का अनुबंध केवल हस्तिनापुर के राजपुत्रों से था, अतिरिक्त किसी को वो सिखा नहीं सकते थे और यही जब एकलव्य ने किया तो दुनिया वाले उनके बाद ये नहीं कहें कि गुरु द्रोणाचार्य वचन के पक्के या विधान के पक्के नहीं थे इसलिए अँगूठा दक्षिणा में मांगा।
इसके अतिरिक्त एक और बात कि गुरु द्रोण भी जानते थे कि कौन किस विद्या को प्राप्त करने का अधिकारी है , एक निरीह श्वान पर अपनी विद्या का प्रयोग करने वाला धैर्यवान योद्धा हो ही नहीं सकता।

अब बात विधान, संविधान और अनुबंध की करते है-
प्रत्येक जीवन में, संस्था में, ग्राम, नगर,प्रान्त और राष्ट्र में संचालन विधान और संविधान अनुरूप होता है।
संचालन की सुस्पष्टता उसमें निहित संवैधानिक शक्तियों के कारण होती है। नियमों से बंधा जीवन अलंकार होता है।
कोई व्यक्ति हठ कर सकता है, किन्तु संस्था, राज्य, राष्ट्र हठी नहीं हो सकतें ,यदि ऐसा होता है तो उस संस्था, राज्य और राष्ट्र की अवनति तय है।
उसके संचालन हेतु बनाए गए नियमों को मानना ही होता है, उदाहरण के लिए कोई अति बुद्धिमान व्यक्ति यह कहता है कि केवल उसके लिए नियम बदल दो तो यह न संस्थान, राज्य या राष्ट्र के लिए संभव है, क्योंकि ये संवैधानिक व्यवस्था से चलने वाला तंत्र है।
संस्थान या राष्ट्र किसी का घर नहीं जो आपके व्यक्तिगत के लिए नियमों को ताक में रख दें।
उसके उपरांत भी व्यक्तिगत मदद की जा सकती है, किन्तु संस्थागत नियमों का उलंघन करके एक परिपाठी न बनाने की इच्छा भी संवैधानिक कमेटी की होती है।
नियमों को तोड़ने की प्रगाढ़ता चाहने वाले शाख से टूट जाया करते है और उसके बाद खुद के वजूद तलाशते रहते है।
वैसे जो संस्थान या राष्ट्र में दोगला चरित्र निभाते है, इधर-उधर की करने में जीते है, केवल अपना सम्मान, मंच औऱ पैगाम चाहते है वो भी तो कहाँ टिक पाते है। उनके हाथ क्या आता है वो भी जग जाहिर है। वो दो ही कोढ़ी के होते है, इसमें कोई शक भी नहीं है। यदि नियमों से बंधे रहें तो लहरों से भी मोहब्बत मिलती है, वरना ज्वार बनकर लहरें ही डूबा देती है। इसलिए संविधान और विधान का मान आवश्यक है।

*– डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’*

वह बिनती लोहा…. इंदौर के पथ पर

वह बीनती लोहा…. इंदौर के पथ पर

डॉ अर्पण  जैन ‘अविचल’

भरी दुपहरी में सूर्य के ताप को सहती, जिसके तन पर कपड़े भी मजबूरी ने फाड़ रखे हो, चेहरे की झुर्रियाँ उम्र की ढलान की ओर साफ तौर पर इशारा कर रही है, जिम्मेदारियों का बोझ उठाते-उठाते थके हुए कंधे जो पति के आवश्यकता के समय साथ छोड़ कर गौलोक की शरण लेना जता रहे हो, गंदी, मैली-कुचैली साड़ी केवल इसलिए पहनी हो क्योंकि एक ही साड़ी का अन्य विकल्प घर में नहीं होना है, बालों की लटों में जमी धूल समय के साधन और अपने गुरु ‘कर्म’ की व्यवस्था की सूचक बन रही हो, जो यह बताती है कि हर पल जिसका धूल से ही वास्ता है, पर सिर ढका होने से समाज की उन व्यवस्थाओं का भी निर्वाहन माना जा रहा है जिसमें पुरुष के सामने उघाड़े सिर न जाने की रवायत शामिल है। परंपराओं और समाज के तयशुदा खाकों में बंधी यह एक तस्वीर ही नहीं बल्कि कई सपनों और हकीकत के बीच की एक रेखा बनाती समग्र को अपने अंदर समेट कर इंदौर की जमीन पर महाराष्ट्र से आकर अपनी जमीन तलाश में अपनी उम्र गुजार देने का नाम है कमला बाई…..।

बात करने से पहले तो हिचकिचाती पर फिर कमला बाई बताती है कि वे मूलत: महाराष्ट्र के बुलढाना के पास की रहने वाली है और लगभग 82 वर्ष उम्र बताती है। सालों पहले पति और परिवार के साथ इंदूर (जिसे आज हम इंदौर के नाम से जानते है) की तरफ आई कमला बाई मालवी और मराठी सभ्यता का अनूठा मिश्रण बनकर अपनी बची हुई जिन्दगी को अलहदा मस्तानेपन के साथ जी रही है। न केवल जी रही है बल्कि व्यवस्थाओं के खिलाफ खड़ी अट्टालिका है।

इंदौर के ग्वालटोली इलाके के गैरेजों पर कचरे में एक बड़े चुम्बक के सहारे लोहा बीन कर उस कबाड़ को बेच कर लगभग 70-80 रु प्रतिदिन कमाकर अपना खाना चौका चला लेती है कमला बाई । वह चुम्बक भी कमलाबाई के संघर्ष का गवाह भी है, और देखा जाये तो वही चुम्बक ही संतान की भांति कमलाबाई के जीवन निर्वहन का सहारा भी है।
लगभग 70-80 रुपयें में दोनों समय केवल खुद का भोजन बना कर एक झोपड़े में गुजारा करने के बाद भी ‘भीख मांगना’ जैसी अघोषित ‘व्यवस्था’ का सहारा न लेने वाली कमलाबाई अपने आप में स्वालंबन और स्वाभिमानी होने का अदम्य परिचय है। समाज की निर्वासित व्यवस्थाओं के बीच अधर में लटकती शक्ति की आभा जिसके ह्रदय में इन व्यवस्थाओं के प्रति धधकता शोला तो है पर महलों में बैठ समर भवानी देखने वालों के मुँह पर तमाचा भी है।

मार…. मार… इसका अपराध है कचरा बीनना

इसी बीच इंदौर की सामंतवादी व्यवस्था के रहनुमा जो शहर की व्यवस्था में लगे कर्मचारी न हो कर स्वयं को शहर का राजा मानते हो, उन्होंने चिमनबाग में कचरा बीनने वालों को पकड़ा और थप्पड़ भी मारे,
अहो! क्या यह इंदौर है जहाँ अपनी खीज या नाकामी को छुपाने के लिए निहत्थे और निरीह लोगों पर अपना शक्ति प्रदर्शन किया जाता हो?
ये टिड्डीदल किस समाज का निर्माण कर रहा है? ये भी नहीं जानते कि जिस ‘मार…. मार……’ का नभभेदी जयकारा लगा रहे हो, उसके लिए पहले व्यवस्थाओं का निर्माण तो किया होता। वाह रे निखट्टुओं, किस बुते पर जवान मर्द बनने कर दम्भ भरते हो। इन टिड्डीदलों के खिलाफ हुँकार भी भरना होगा और फिर इनके विरुद्ध तो गौरा जैसे योद्धाओं के कबंध भी लड़ जाएंगे।
अपनी नाकामियों को कचरा बीनने वाले, बच्चों, बुजुर्गो, निरीह लोगो पर हाथ उठा कर बल प्रयोग कर रहे हो? औकात है तो शहर के बड़े गुण्डों कम राजनेताओं के मोहल्ले में भी जा कर कुछ बोल कर भी दिखाओं, वह हो रही कानून की धुनाई पर आवाज तो उठाओ, अपना अधिकारीपना थोड़ा तो दिखाओ.. तब तो देखे तुम्हारी मर्दानगी…

डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’

पत्रकार एवं स्तंभकार

संपर्क०७०६७४५५४५५

अणुडाकarpan455@gmail.com

अंतरताना:www.arpanjain.com

[लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान,भाषासमन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं ]

 

सूतक लग चुका है… सनद रहें

सूतक लग चुका है…. सनद रहें

–डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’

चुनावी मौसम खुमार पर आया, शहर के व्यस्ततम क्षेत्र राजवाड़े से माँ अहिल्या की प्रतिमा पर पहले बम के संदेह में जाँच करवाने के बाद भाजपा के मुखिया अमित शाह ने अपने चुनावी अभियान के तहत सड़क मार्ग से जनसंपर्क अभियान का प्रारंभ कर दिया ।
व्यवस्था में खुमार आया ही था कि खबरें चलने लगी… चुनाव की तारीख घोषित और आज से सूतक यानि आचार संहिता लागू…
सूतक के घोषित होते ही हल्ला बोल शुरु हो गया… वैसे भी 250 से 300 रुपये की मजदूरी वाले झण्डे उठाने के लिए लाए तो गए… पर यकीनन सामने कमजोर विपक्ष होने से सब गौण या कहें मौन हो गया।
भीड़ तन्त्र भी टिकट मांगने वालों का शक्ति प्रदर्शन ही रहा… न जाने क्यों राजनीति की दिशा में धनकुबेरों का कब्जा हो गया…
हालांकि रैली तो होमी दाजी के समय भी हुई थी… और राजवाड़े के विक्रेताओं का भी अपना दौर रहा… भला हो इंदौरी सफेद शेर का वर्ना तब ही राजवाड़े की रजिस्ट्री हो जाती… और हाथ मलते भिया…
बहरहाल हम तो बात कर रहें है सूतक यानी आचार की शासकीय संहिता की… विचार जहाँ तमाशाबीन है और शुचिता का गला घोटा जा चुका है…
शाम ढलते ही श्रीनगर कांकड़ में लगे बैनर हटाए जाने लगे… वैसे मामला तो आपसी विवाद का था पर रंग तो सूतक का चड़ा दिया…
खैर…. सूतक के राजवंश को मौका मिल गया अपनी दादागिरी दिखाने का…. और दिखाएं भी क्यों नहीं… जब जनप्रतिनिधि किसी को जानते ही नहीं और अपनी नाकामी को छुपाने के लिए शहर में नया आया बताने से भी गुरेज कहाँ करते है… और अपने गंदे धन्धे पर गला भी कर्मचारी का फँसा देते है और पिसती तो बैचारी जनता ही है….
सूतक की महामाया का दौर है, सूतक के नाम पर पूर्व में करवाएं गए कार्यों का भुगतान भी लंबित हो सकता है और अटक सकती है तनख्वाह भी…. क्योंकि अपने ही बादशाह और अपने वजीर है…
नज़र तो केवल जनता ही नहीं आती… भोजन, भण्डारे, यात्रा, सामग्री वितरण सब बंद कर दो भिया…. वर्ना सूतक तो ठहरा सूतक……

कमजोर विपक्ष का फायदा मिलेगा, पर फिर भी एक अदद दरकार रहेगी शुचिता की… वर्ना भिया तो ठहरे सनकी… न जाने कब निर्दलीय को जीता दे…

*सूतक के मजे लीजिए… दे दनादन दे…..*
*सूतक तो लग गया है… सनद रहें….*

*डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’*
खबर हलचल न्यूज, इंदौर
www.arpanjain.com

हिन्दी के सम्मान में, हर भारतीय मैदान में जैसी अलख जगाने वाले का नाम डॉ जैन

कहानी:

अनथक हिन्दी योद्धा डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’ से खास भेंट

हिन्दी के सम्मान में, हर भारतीय मैदान में जैसी अलख जगाने वाले का नाम डॉ जैन

कहानी एक ऐसे व्यक्ति की जो हिन्दी भाषा को भारत में ही सम्मान स्वरुप राष्ट्रभाषा बनाने के लिए संघर्षरत है, जो संगणक विज्ञान अभियंता होने के बावजूद स्थापित पत्रकारिता की उसके बाद भी हिन्दी माँ के प्रति जवाबदेही से कार्य कर रहे है। एक ऐसा शख्स जो हिन्दी को भारत में रोजगार मूलक भाषा बनाने के लिए प्रतिबद्ध है।

 भारत माँ के स्वाभिमान पर जब-जब भी आँच आई है तब-तब धरा पर सपूतों का जन्म हुआ है, ऐसे ही सपूत का जन्म २९ अप्रैल १९८९ शनिवार को मध्यप्रदेश के सेंधवा में पिता सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा की कुक्षी से एक क्रांतिकारी पुत्र का जन्म हुआ जिनका नाम अर्पण रखा गया। अर्पण अपने माता-पिता के दो बच्चों में से सबसे बड़े हैं। उनकी एक छोटी बहन नेहल हैं। उनके पिता सुरेश जैन गृह और सड़क निर्माण का कार्य करते है। आपके दादा बाबूलालजी एक राजनैतिक व्यक्तित्व रहे। अर्पण जैन मध्यप्रदेश के धार जिले की छोटी-सी तहसील कुक्षी में पले बड़े, आरंभिक शिक्षा कुक्षी के वर्धमान जैन हाईस्कूल और शा. बा. उ. मा. विद्यालय कुक्षी में हासिल की, तथा फिर इंदौर में जाकर राजीव गाँधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्धयालय के अंतर्गत एसएटीएम महाविद्यालय से संगणक विज्ञान (कम्प्यूटर साइंस) में बेचलर ऑफ इंजीनियरिंग (बीई-कंप्यूटर साइंस) में स्नातक की पढ़ाई के दौरान ही अर्पण जैन ने सॉफ्टवेयर व वेबसाईट का निर्माण शुरू कर दिया था। इसी दौरान सॉफ्टवेयर कंपनी में नौकरी भी की। पिता के कारोबार में रूचि न होने और अपनी अलग दुनिया बनाने की इच्छाशक्ति ने अर्पण को तकनिकी योद्धा बनाया।

एक मध्यवर्गीय परिवार से आने वाले किसी भी शख्स का सपना क्या होता है? यही न कि एक अच्छी शिक्षा प्राप्त करने के बाद मोटी रकम वाली सम्मानजनक नौकरी मिल जाए। लेकिन अर्पण अपनी इस 9 से 5 वाली और मोटे वेतन वाली नौकरी से संतुष्ट नहीं थे। एक दिन उन्होंने अपने सुविधा क्षेत्र से बाहर निकलने का फैसला किया और अपना खुद का उद्यम शुरू किया। सपने बड़े होने के कारण स्वयं की कंपनी बनाने का ख्वाब पूरा करने में अर्पण जुटे तो सही परन्तु दो माह बिना नौकरी के भी घर पर ही भविष्य की रणनीति बनाने के दौरान सभी बचत ख़त्म कर चुके अर्पण के जेब में मात्र १५० रुपये ही बचे थे। मात्र १५० रुपये लेकर ११ जनवरी २०१० को ‘सेन्स टेक्नोलॉजीस की शुरुआत हुई, अर्पण ने फॉरेन ट्रेड में एमबीए किया, तथा पत्रकारिता के शौक के चलते एम.जे. की पढाई भी की है। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’  पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। समाचारों की दुनिया ही उनकी असली दुनिया थी, जिसके लिए उन्होंने सॉफ्टवेयर के व्यापार के साथ ही खबर हलचल वेब मीडिया की स्थापना की और इसे भारत की सबसे तेज वेब चैनल कंपनियों में से एक बना दिया। सेंस टेक्नॉलजीस और खबर हलचल न्यूज भारत के लगभग 29 राज्यों में २०० से ज़्यादा लोगो के दल के साथ कार्यरत पंजीकृत कंपनी है।

इसी दौरान पत्रकारिता के उन्नयन हेतु कई पत्रकारिता संगठन में कार्य किया जैसे श्रमजीवी पत्रकार परिषद में बतौर महासचिव, इंदौर प्रेस क्लब, सेव जर्नलिस्म संस्थान के सदस्य आदि। इसके बाद पत्रकार संचार परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष का दायित्व भी संभाला। आप राष्ट्रीय मानव अधिकार परिषद महासंघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रहे।

वर्ष २०१५ में शिखा जैन जी से उनका विवाह हुआ। विवाह उपरांत भी तन्मयता से पत्रकारिता और भाषा के सौंदर्य को स्थापित करने के लिए श्री जैन सतत संघर्षरत रहे। आपने अपनी कविताओं, आलेखों के माध्यम से भी समाज की पीड़ा, परिवेश का साहस और व्यवस्थाओं के खिलाफ तंज़ को बखूबी उकेरा हैं और आलेखों में ज़्यादातर पत्रकारिता के आधार आंचलिक पत्रकारिता और समाज के लिए ज़्यादा लिखा हैं।

अर्पण ने व्यापार के दूसरे क्षेत्रों में भी उत्कृष्ट सफलताएँ प्राप्त की हैं। पत्रकारिता से अपने गहरे सरोकार को दर्शाते हुए उन्होंने भारत के पत्रकारों के लिए पहली सोशल नेटवर्किंग साइट ‘इंडियनरिपोर्टर्स.कॉम (www.IndianReporters.com)’ बनाई, जिसके फलस्वरूप पंजाब, उत्तराखंड और सिक्किम जैसे भारत के सभी राज्यों के पत्रकार जुड़े हुए हैं। जैन ने कई संस्थाओं के साथ जुड़ कर पत्रकारिता के क्षेत्र में भी और अन्य सामाजिक कार्यों और जनहितार्थ आंदोलनों में भी सक्रिय भूमिका निभाई है।

समाचारों की दुनिया से जुड़े होने के कारण अर्पण का हिन्दी प्रेम प्रगाड़ होता चला गया, इसी के चलते वर्ष २०१६ में अर्पण ने मातृभाषा.कॉम की शुरुआत की और फिर तब से लेकर आज तक हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने के लिए प्रतिबद्ध होकर कार्यरत रहे। इस दौरान भारत के विभिन्न राज्यों में हिन्दी भाषा के महत्व को स्थापित करने के लिए यात्राएँ की, जनमानस को हिन्दी से जोड़ा, और मातृभाषा उन्नयन संस्थान और हिन्दी ग्राम की स्थापना की। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए सतत प्रयासरत है, इसी प्रकल्प में योगगुरु और पतंजलि योगपीठ के सूत्रधार स्वामी रामदेव जी का आशीर्वाद मिला। वर्तमान में हिन्दी के गौरव की स्थापना हेतु व हिन्दी भाषा को राजभाषा से राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए संघर्षरत डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ भारतभर में इकाइयों का गठन करके आंदोलन का सूत्रपात कर रहे हैं, और वे मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी है और हिन्दी ग्राम के संस्थापक भी हैं। डॉ. वेद प्रताप वैदिक के संरक्षण में संस्थान देश भर में हस्ताक्षर बदलो अभियान संचालित कर रही हैं। हिन्दी योद्धा, संगणक योद्धा और संवाद सेतु के माध्यम से सम्पूर्ण भारत में हिन्दी का प्रचार प्रयास कर रहे है।

डॉ अर्पण जैन अविचल का ध्येय वाक्य है ‘हिन्दी के सम्मान में, हर भारतीय मैदान में’ इसी को सम्पूर्ण राष्ट्र का समर्थन मिल रहा है। डॉ जैन ‘एक घंटा राष्ट्र को, एक घंटा देह को और एक घंटा हिन्दी को’ जैसा आव्हान भी जनता से कर रहे है, जिसे भरपूर समर्थन मिल रहा है।

डॉ अर्पण जैन अविचल कहते है कि ‘हिन्दी भाषा भारत की सांस्कृतिक अखंडता को मजबूत करने में अग्रणी कारक है, हिन्दी के माध्यम से ही भारत के संस्कार बचे है क्योंकि हमारे राष्ट्र में संस्कार देने दादी-नानी की कहानियां महनीय भूमिका अदा करती है, ऐसे में दादी-नानी की कहानियों की भाषा हिन्दी है, इसलिए हिन्दी युग के निर्माण हेतु हिन्दी का संरक्षण और प्रचार-प्रसार आवश्यक है। तभी भारत के संस्कार बचेंगे और भारत बचेगा वर्ना गुलामी की स्थिति बनेगी।’

हिन्दी भाषा को प्रचारित एवं प्रसारित करने के उद्देश्य से ग्राम, नगर प्रान्त में श्री जैन व्याख्यान, परिचर्चा , गोष्ठियां आदि करते है, जनमानस को हिन्दी का महत्व समझाते हुए उसके राष्ट्रभाषा बनने के कारण बताते है और जनजागृति लाते है। वर्तमान में डॉ अर्पण जैन व मातृभाषा उन्नयन संस्थान की प्रेरणा से  लगभग ४ लाख से अधिक लोगों में प्रामाणिक रूप से अपने हस्ताक्षर हिन्दी में करना प्रारंभ कर दिए है। डॉ अर्पण जैन के हिन्दी आंदोलन का महत्वपूर्ण हिस्सा डॉ प्रीति सुराना है जिन्हे डॉ जैन अपना प्रेरणा पुंज बताते है। इन्ही के साथ उनके अभिन्न मित्र और उप सैनानी कमलेश कमल जी भी है जो हिन्दी जे मानकीकरण पर कार्य कर रहे है और देश भर में कमल की कलम के माध्यम से हिन्दी को शुद्ध करने की दिशा में प्रयासरत है।

डॉ जैन से जब भी पूछों कि जीवन जीने का उद्देश्य क्या है, तब उनका एक ही जवाब होता है ‘हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने में हमारा योगदान दर्शक का नहीं बल्कि कार्यकर्ता का हो, हमें तमाशा देखने वाला न समझा जाए, जब भी याद किया जाए तब ये कहा जाए कि ये लोग घरों में बैठे नहीं थे, इन्होने काम किया है।’

जिन लोगो से आप प्रेरणा पाते है उनकी सूची में शामिल है- सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, बाबा नागार्जुन, रामधारी सिंह दिनकर, बाबू विष्णु पाराडकर, गणेशचंद्र विद्धयार्थी, प. दीनदयाल उपाध्याय ( एकात्मवाद के कारण), डॉ. अबुल पॅकिर जेनुलआबदीन अब्दुल कलाम, राजेंद्र माथुर (रज्जु बाबू), राहुल बारपुते, स्वदेशी प्रवर्तक राजीव दीक्षित, धीरू भाई अंबानी( रिलायंस), वारेन बफ़ेट(बर्कले हैथशायर), स्टीव जॉब्स (एपल), डॉ. प्रीति सुराना (अंतरा शब्दशक्ति)।

हिन्दी को राष्ट्रभाषा ही नहीं वरन जनभाषा बनाना जिसका मूल ध्येय हो ऐसी शख्सियत समाज में सदैव अपने कार्यों से समाज को प्रेरित करती है। और इस जीवन के होने के उद्देश्य को पूरा भी।