कविताः गुरुत्वाकर्षण

जैसे लौटती है बूंद,
वैसे ही लौटती है ज़िन्दगी।

जैसे लौटता है समय,
वैसे ही लौटती हैं स्मृतियाँ।

जैसे लौटती है चिड़िया,
वैसे ही लौटता है कलरव।

जैसे लौटती है कविता,
वैसे ही लौटती है किताबें।

जैसे लौटती हैं पुरानी कतरने,
वैसे ही लौटती हैं पुरानी चिट्ठियाँ।

जैसे लौटते हैं मनुष्य,
वैसे ही लौटती है मनुष्यता।

यही गुरुत्वाकर्षण का
अबोध सिद्धांत है।

हर चीज़ लौटती है,
अपने समयानुशासन में…..

है न….?

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

Photo Clicked by Dr. Arpan Jain ‘Avichal’

सुनो…मेरे यार

सुनो,
ये सब इतना आसान नहीं था,
न ही इतना सहज था,
न हो सकता था प्रेम,
न ही हो सकता था द्वेष,

सबकुछ अचानक से नहीं हुआ,
जितने सरल रुप में दुनिया ने देखा,
गुजरे जमाने की यादों के सहारे
मैने जिया है तुम्हें, तुम्हारे रंग को..

मैने पाया नहीं तुम्हें अचानक से,
मैने जीता है तुम्हारा विश्वास, तुम्हारा प्रेम,

तब जाकर कहीं मुकम्मल हुई है
मेरे खतों के किरदार की गज़ल

हाँ !
बिलकुल वैसे ही रिश्तों से परते छँट गई,
जैसे किताबों में रखे सुखे गुलाब में आई हो जान..
मेरे किवाड़ से आने वाली हवा के
संदेशों को मैने
तु़झमे महसूस करके
पाया है तुम्हें
और तुम्हारे प्यार को…
सलामत रहें मेरा प्यार…
मेरा यार..

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
हिन्दीग्राम,इंदौर