आसां नहीं है इश्क़ में अमृता हो जाना

जन्मदिवस विशेष

सां नहीं है इश्क़ में अमृता हो जाना

Amrita pritam
Amrita pritam

‘मैं उस प्यार के गीत लिखूँगी,
जो गमले में नहीं उगता,
जो सिर्फ़ धरती में उग सकता है।’

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अमृता प्रीतम

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🖊 *डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*

दो किताबें पढ़ीं, ‘मन मिर्ज़ा , तन साहिबा’ और ‘इश्क़ अल्लाह हक़ अल्लाह’, इसके पहले केवल नाम भर सुना। पढ़ने के बाद लगा मानो प्रेम और जीवन दर्शन का बेहतरीन सामंजस्य कहीं है तो वह इसी लेखिका की लेखनी में है। उसके बाद अमृता जी की किताबें छोड़ने का मन नहीं हुआ।
और ये भी सच है कि अमृता जी ने वही लिखा, जो उनके जीवन में घटित हुआ, कोई कपोल कल्पित पात्र नहीं, बल्कि यथार्थ स्वीकृति के साथ।
कहते हैं, स्कूटर चलाते हुए इमरोज़ की पीठ पर नाम साहिर होता था और लिखने वाली अमृता। किन्तु यह भी सच है कि इमरोज़ जी भी अमृता जी से ही बहुत प्यार करते थे, हमेशा उनका ख़्याल रखना, अपनी तस्वीरों में अमृता जी को उकेरना, यही इमरोज़ का काम होता था।

मेरी सबसे प्रिय लेखिका हैं अमृता प्रीतम जी…..आजकल की महिला लेखिकाओं को अमृता जी से प्रेरणा लेनी चाहिए।
‘मन मिर्ज़ा, तन साहिबा’ इनकी एक पुस्तक है, जिसे हर व्यक्ति को पढ़ना चाहिए। लेखन की गहराई और सूक्ष्मता की प्रतिबोधक देखने के लिए कुछ पढ़ना है, उसमें एक नाम शामिल होगा अमृता प्रीतम जी का।

हज़ारों किस्से, प्रीतम को छोड़ कर साहिर के इश्क़ में डूब जाना, इसके बाद इमरोज़ का अमृता को चाहना और अमृता का साहिर को। इन्हीं किस्सागोई के बीच कुछ शेष था तो वह प्रेम ही था।
कभी अमृता और साहिर का प्रेम अहम की टकसाल से नहीं गुज़रा, न ही अमृता ने थोपना अपनी आदत बनाया। इसीलिए वह प्रेम अमर हुआ।
चाय का एक झूठा कप, जली हुई सिगरेट के कुछ टुकड़े, कुछ किस्से, कुछ यादें और ढेर सारे खुतूत। साहिर और अमृता की मोहब्बत की ये कुल जमा-पूंजी थी।
अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में अमृता प्रीतम ने साहिर के साथ हुई मुलाक़ातों का ज़िक्र किया है। वो लिखती हैं कि, ‘जब हम मिलते थे, तो ज़ुबां ख़ामोश रहती थी, नैन बोलते थे। दोनों बस एक टक एक-दूसरे को देखा करते और इस दौरान साहिर लगातार सिगरेट पीते रहते थे। मुलाक़ात के बाद जब साहिर वहाँ से चले जाते, तो अमृता अपने दीवाने की सिगरेट के टुकड़ों को लबों से लगाकर अपने होंठों पर उनके होंठों की छुअन महसूस करने की कोशिश करती थीं।
अमृता प्रीतम और साहिर की मोहब्बत की राह में कई रोड़े थे। एक वक़्त था, जब अमृता और साहिर दोनों लाहौर में रहा करते थे। फिर मुल्क़ तकसीम हो गया। अमृता अपने पति के साथ दिल्ली आ गईं। साहिर मुंबई में रहने लगे। अमृता अपने प्यार के लिए शादी तोड़ने को तैयार थीं। बाद में, वो अपने पति से अलग भी हो गईं। दिल्ली में एक लेखिका के तौर पर वो अपने स्थान और शोहरत को भी साहिर पर क़ुर्बान करने को तैयार थीं।
साहिर ने अमृता को ज़हन में रखकर न जाने कितनी नज़्में, कितने गीत, कितने शे’र और कितनी ग़ज़लें लिखीं। वहीं अमृता प्रीतम ने भी अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में खुलकर साहिर से इश्क़ का इज़हार किया है।
कोई कल्पित कहानी नहीं थी अमृता और साहिर के बीच, इश्क़ अल्लाह हक़ अल्लाह की तरह अमृता और साहिर केवल प्रेम करते थे, और प्रेम को अमर कर गए।
अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ की भूमिका में अमृता प्रीतम लिखती हैं – ‘मेरी सारी रचनाएँ, क्या कविता, क्या कहानी, क्या उपन्यास, सब एक नाजायज़ बच्चे की तरह हैं। मेरी दुनिया की हक़ीक़त ने मेरे मन के सपने से इश्क़ किया और उसके वर्जित मेल से ये रचनाएँ पैदा हुईं। एक नाजायज़ बच्चे की किस्मत इनकी किस्मत है और इन्होंने सारी उम्र साहित्यिक समाज के माथे के बल भुगते हैं।’
हज़ारों किस्से हैं इस प्रेम कहानी के, उसके बाद भी अमृता का प्रेम के प्रति पूर्ण समर्पण इस बात का प्रमाण था कि अमृता ने किसी वजह के बिना प्रेम किया था, प्रेम को जीया था, कभी आवेग या अहम की भेंट नहीं चढ़ने दिया अपने प्रेम को, इसीलिए साहिर कभी छोड़ कर गए भी नहीं।

*इसीलिए आसां नहीं है अमृता हो जाना…..*

मेरी प्रिय लेखिका अमृता प्रीतम जी के जन्म स्मरण दिवस की हार्दिक बधाई।

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
हिन्दीग्राम, इंदौर
www.arpanjain.com

शब्द की साधना और हिन्दी पत्रकारिता

शब्द की साधना और हिन्दी पत्रकारिता

◆डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

 

शब्द-शब्द मिलकर जब ध्येय को स्थापित करते हैं, शब्द-शब्द मिलकर जब राष्ट्र का निर्माण करते हैं, शब्द-शब्द मिलकर जब सत्ता का केंद्र और जन मानस का स्वर बनते हैं, शब्द-शब्द मिलकर जब व्यक्ति से व्यक्तित्व का रास्ता बनाते हैं, तब कहीं जाकर शब्द के साधकों की आत्मा के सौंदर्य का प्रतिबोध होता है।
लगभग दो शताब्दियों तक का सफ़र तय करने वाली हिन्दी पत्रकारिता, आज आपने गौरव से सुसज्जित भी है तो वहीं कालांतर में हुए बदलाव से अचंभित भी।

बंगाल की धरती पर 30 मई 1826 में पण्डित युगल किशोर शुक्ल जी ने ‘उद्दण्ड मार्तण्ड’ नामक पहले हिन्दी अख़बार का प्रकाशन कर हिन्दी पत्रकारिता के स्वर्णिम इतिहास को लिखने वाले स्वर्ण अक्षर का टंकण किया था। निःसंदेह यह स्वर्ण अक्षर देश और दुनिया को यह अनूठी सीख भी दे गया कि भारत में अनेकता में एकता का चित्र हर जगह नज़र आ सकता है। बंगाली भाषी प्रदेश से हिन्दी पत्रकारिता की नींव का रखा जाना, इसी वृहद समन्वयक भारत की तस्वीर रही है।
इतिहास साक्षी है भारत के शब्द साधकों के श्रम का और उनके अवदान का, जिसने विश्व को पत्रकारिता के नए मानक और नए बिम्ब देकर नई दिशा भी प्रदान की है।
15-16वीं सदी में आरम्भ हुई पत्रकारिता का केंद्र रोम और यूरोप हुआ करता था, उस कालखण्ड में पत्रकारिता का उद्देश्य मनोरंजनभर से इतर कुछ नहीं था, बल्कि भारत में आरम्भ होने वाली हिन्दी पत्रकारिता ने मूल्य, मानवीयता, देश प्रेम और भारत की आज़ादी का उद्देश्य स्थापित कर विश्व को यह दिखा दिया कि हर पहलू में भारतीयता सदा से नवाचार और मूल्य आधारित मानकों की स्थापना में अव्वल है।

विश्व हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास इस बात का साक्षी है कि आज दो शताब्दी बीत जाने के बावजूद भी समय के पहिये ने धधकती आग ही लिखने का साहस किया, अवसाद और कोरोना के काल में सत्ता और राजनीति के अलावा जनमानस की आवाज़ को मुखर किया, लाशों के ढेर पर बन रही लोकतंत्र की इमारतों का विरोध किया, सकारात्मक ख़बरों का बीजारोपण करते हुए उसे अंकुरित करने का प्रयास किया, बच्चों की किलकारियों को सहेजा और आने वाली पीढ़ी के लिए नज़ीर बनने का प्रयास किया।

यह भी अटल सत्य है कि जिस तरह सर्प समय आने पर अपनी केचुली बदलता है, आदमी स्नान उपरांत कपड़े बदलता है, उसी तरह, पत्रकारिता ने भी समय के साथ कदमताल करते हुए अपने स्वरूप को लगातार बदला भी है, प्रिंट से इलेक्ट्रॉनिक, इलेक्ट्रॉनिक से रेडियो और वेब, वेब से मोबाइल पत्रकारिता इसके उदाहरण हैं। इस स्वरूप के बदलाव के मध्यकाल में कई बार मूल्यों और आदर्शों के साथ भी समझौते हुए हैं और निश्चित तौर पर आगत-अनागत का दोष भी हुआ है किन्तु इसके बावजूद भी कई तूफ़ानों को ख़ुद में समाहित करते हुए एक अजेय योद्धा की तरह हिन्दी पत्रकारिता अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर है।
साहित्य का सहज सामंजस्य साहित्यग्राम में दिखा, हिन्दी का अभिजात्य हिन्दीग्राम से बन रहा है, यही भाषाई सौंदर्य और मूल्यों की स्थापना का शिखर कलश रखा जा रहा है ताकि भविष्य के नौनिहाल हिन्दी पत्रकारिता पर गर्व करें यानी उन्हें हिन्दी के पत्रकार होने का घमण्ड हो।
हिन्दी पत्रकारिता दिवस की अशेष शुभकामनाओं के साथ…..

जय हिन्दी!

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
राष्ट्रीय अध्यक्ष, मातृभाषा उन्नयन संस्थान,
संपादक, ख़बर हलचल न्यूज़

www.arpanjain.com

 

ब्लॉगर पर ब्लॉग कैसे बनाएँ

ब्लॉगर पर ब्लॉग कैसे बनाएँ

■ *डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*

यदि आपने ब्लॉगिंग करने का निश्चय किया है तो निश्चित तौर पर आज के समय के अनुसार आपका सही निर्णय है।
निम्नलिखित प्रक्रिया और निर्देशों का पालन करते हुए आप ब्लॉग बना सकते हैं-

1. अपने वेब ब्राउज़र (क्रोम, ब्राउज़र) खोलें उसमें सबसे पहले www.blogger.com पर जाएँ।

2. ब्लॉग बनाने के लिए अपने Gmail account से sign up करें।

3. अब आपको दो option नज़र आते हैं Google+Profile और Blogger Profile किसी एक को चुनें और Profile set करें। इसके बाद Create Blog पर क्लिक करें।
उपरोक्त प्रक्रिया अपनाते ही आपको ब्लॉग दिखेगा, उसने विकल्प आएँगे जैसे-

*Title*

अपने blog का Title लिखें जैसे अगर आपके blog का address है। www.arpanjain.com है तो यहाँ पर arpan jain अथवा अर्पण जैन के आलेख। डॉ अर्पण का लेखन आदि लिखें।

*Address*
जैसे आप 204 अनु अपार्टमेंट 21/2 साकेत नगर में रहते हैं तो यह आपका भौतिक पता है, वैसे ही इंटरनेट की दुनिया में यूआरएल, वेबसाइट एड्रेस, ब्लॉग एड्रेस आपका पता होता है, जिसके माध्यम से आपके ब्लॉग को अथवा आपको गूगल पर खोजा जाता है।
अपने blog का address लिखें, यह वो एड्रेस है जिसे लोग Google में सर्च करके आपके blog तक पहुँचते हैं, जैसे www.asjainindia.blogspot.in अगर आपके द्वारा दिया गया address available होगा तो आपको “This Blog address is available” मैसेज दिखाई देगा।

*Theme*
आप अपने ब्लॉग की Theme किसी तरह की रखना चाहते हैं, उसे भी select करें जिसे आप बाद में भी बदल सकते हैं।

*Create Blog* पर क्लिक करते ही आपका blog बनकर तैयार हो चुका है।

आशा है आपको उपरोक्त प्रक्रिया समझ आ गई होगी, कहीं कोई समस्या आने पर जब आप कम्प्यूटर के सामने बैठे ब्लॉग बना रहे हो तो आप मुझे फ़ोन पर सम्पर्क कर सकते हैं, मेरा संपर्क सूत्र 09893877455 है।

 

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
हिन्दीग्राम, इंदौर

राजनीति के अजातशत्रु का यूँ चला जाना…..खल गया साहब

राजनीति के अजातशत्रु का यूँ चला जाना…..खल गया साहब

*डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’*

 

विधि के विधान के आगे विधिविद की भी नहीं चली, कर्क रोग ने जब से जकड़ा वित्त और न्याय मंत्री का दायित्व भी कमजोर होता चला गया, लंबे समय से जिंदगी और मौत के बीच संघर्ष करते-करते आखिरकार अरुण जेटली जी ने अलविदा कह दिया।
वकील पिता महाराज किशन जेटली जी व माता रतन प्रभा जेटली जी की संतान के रूप में अरुण जेटली जी का जन्म हुआ। उन्होंने अपनी विद्यालयी शिक्षा सेंट जेवियर्स स्कूल, नई दिल्ली से 1957-69 में पूर्ण की। उन्होंने अपनी 1973 में श्री राम कॉलेज ऑफ कॉमर्स, नई दिल्ली से कॉमर्स में स्नातक की। फिर 1977 में दिल्ली विश्‍वविद्यालय के विधि संकाय से विधि की डिग्री प्राप्त की। छात्र के रूप में अपने कैरियर के दौरान, उन्होंने अकादमिक और पाठ्यक्रम के अतिरिक्त गतिविधियों दोनों में उत्कृष्ट प्रदर्शन के विभिन्न सम्मानों को प्राप्त किया हैं। वो 1974 में दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संगठन के अध्यक्ष भी रहे।
अरुण जेटली ने 24 मई 1982 को संगीता जेटली से विवाह किया। उनके दो बच्चे, पुत्र रोहन और पुत्री सोनाली हैं। आपके बच्चें भी अधिवक्ता के रूप में ही कार्य कर रहें हैं।
जेटली जी का राजनैतिक सफर तब चरम पर आने लगा जब साल 1991 से भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य बनें। वह 1999 के आम चुनाव से पहले की अवधि के दौरान भाजपा के प्रवक्ता बन गए।
1999 में, भाजपा की वाजपेयी सरकार के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सत्ता में आने के बाद, उन्हें 13 अक्टूबर 1999 को सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) नियुक्त किया गया। उन्हें विनिवेश राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) भी नियुक्त किया गया। विश्व व्यापार संगठन के शासन के तहत विनिवेश की नीति को प्रभावी करने के लिए पहली बार एक नया मंत्रालय बनाया गया। उन्होंने 23 जुलाई 2000 को कानून, न्याय और कंपनी मामलों के केंद्रीय कैबिनेट मंत्री के रूप में राम जेठमलानी के इस्तीफे के बाद कानून, न्याय और कंपनी मामलों के मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार संभाला।
मई 2004 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की हार के साथ, जेटली एक महासचिव के रूप में भाजपा की सेवा करने के लिए वापस आ गए, और अपने कानूनी कैरियर में वापस आ गए।
मोदी युगीन सरकार में 26 मई 2014 को, जेटली को नवनिर्वाचित प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा वित्त मंत्री के रूप में चुना गया (जिसमें उनके मंत्रिमंडल में कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय और रक्षा मंत्री शामिल हैं।)
भारत के वित्त मंत्री के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान, सरकार ने 9 नवंबर, 2016 से भ्रष्टाचार, काले धन, नकली मुद्रा और आतंकवाद पर अंकुश लगाने के इरादे से महात्मा गांधी श्रृंखला के 500 और 1000 के नोटों का विमुद्रीकरण किया।
इसके बाद अगले आर्थिक सुधार के रूप में 20 जून, 2017 को उन्होंने पुष्टि की कि जीएसटी रोलआउट अच्छी तरह से और सही मायने में ट्रैक पर है।
यानी नोटबन्दी और जीएसटी पर जेटली जी का पहनाया चोला ही देश में चला।

विपक्षियों के भी चहेते रहें जेटली राजनीति के अजातशत्रु रहें है। आज जब दिन के 12 बजकर 7 मिनट पर उन्हें दिल्ली के एम्स अस्पताल में अंतिम सांस लेकर जेटली युग को अलविदा कह दिया तब देश ने सही मायनों में एक कुशल रणनीतिकार और गंभीर नेतृत्व खो दिया। यह नुकसान न केवल भाजपा का रहा बल्कि राष्ट्र ने भी अच्छा विधिविद खोया है।
भावपूर्ण श्रद्धांजलि सहित…

*डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’*
www.arpanjain.com

सवाल तो विधान का था…

सवाल तो विधान का था…
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■ डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’

हस्तिनापुर के अनुबंध और करार में बंधें गुरू द्रोणाचार्य ने जब वनवासी बालक और क्षेत्रीय काबिले के सरदार के पुत्र को धनुर्विद्या सीखाने से इंकार कर दिया तो वही वनवासी बलवान एकलव्य गुरु द्रोण की मूर्ति से धनुर्विद्या सीखने लगा और पारंगत होने पर उसी के जंगल में एक कुकुर का भोंकना भी वह न सह सका और शरों से उस कुकुर के मुँह को बंद कर दिया।
तभी गुरु द्रोणाचार्य और पाण्डव उसकी प्रशस्त धनुर्विद्या को खोजते-खोजते एकलव्य से जा मिले, गुरु ने संवाद के बाद जानने पर गुरुदक्षिणा में अंगूठा मांग लिया।
सवाल तो तब भी उठे, और तब भी जब गुरु द्रोण ने धनुर्विद्या सिखाने से इंकार किया ।
जबकि सच तो यह है कि अनुबंध और विधान नाम की कोई चीज होती है, इसको लेकर बुद्धिमान प्रश्न नहीं करते और उनके अतिरिक्त अन्य को आप समझा भी दोगे तो समझ नहीं आएगी, क्योंकि नीति विरुद्ध तो आप भी हो ही।
क्या एकलव्य का दोष नहीं था कि बिना गुरु द्रोण की आज्ञा के क्यों उसने उनकी मूर्ति बनाई?
सवाल तो यह भी उठा कि एकलव्य निरीह वनवासी था, तो महाशय कोई निरीह सीधा-साधा व्यक्ति धनुर्विद्या ही क्यों सीखेगा?
धनुर्विद्या वही सीखते है जिन्हें योद्धा बनना होता है, और कबिले के सरदार का बेटा यानी उस कबिले का अगला सरदार निरीह या मूर्ख नहीं हो सकता।
खैर प्रश्न यही था न कि ‘गुरु द्रोण ने एकलव्य को क्यों धनुर्विद्या नहीं सिखाई?’ और उसके उपरांत भी ‘अँगूठा क्यों दक्षिणा में मांग लिया?’
दोनों ही प्रश्नों का जवाब केवल एक ही था, वो है ‘अनुबंध या संविधान’ ।
हस्तिनापुर को दिए वचनों में धनुर्विद्या सिखाने का अनुबंध केवल हस्तिनापुर के राजपुत्रों से था, अतिरिक्त किसी को वो सिखा नहीं सकते थे और यही जब एकलव्य ने किया तो दुनिया वाले उनके बाद ये नहीं कहें कि गुरु द्रोणाचार्य वचन के पक्के या विधान के पक्के नहीं थे इसलिए अँगूठा दक्षिणा में मांगा।
इसके अतिरिक्त एक और बात कि गुरु द्रोण भी जानते थे कि कौन किस विद्या को प्राप्त करने का अधिकारी है , एक निरीह श्वान पर अपनी विद्या का प्रयोग करने वाला धैर्यवान योद्धा हो ही नहीं सकता।

अब बात विधान, संविधान और अनुबंध की करते है-
प्रत्येक जीवन में, संस्था में, ग्राम, नगर,प्रान्त और राष्ट्र में संचालन विधान और संविधान अनुरूप होता है।
संचालन की सुस्पष्टता उसमें निहित संवैधानिक शक्तियों के कारण होती है। नियमों से बंधा जीवन अलंकार होता है।
कोई व्यक्ति हठ कर सकता है, किन्तु संस्था, राज्य, राष्ट्र हठी नहीं हो सकतें ,यदि ऐसा होता है तो उस संस्था, राज्य और राष्ट्र की अवनति तय है।
उसके संचालन हेतु बनाए गए नियमों को मानना ही होता है, उदाहरण के लिए कोई अति बुद्धिमान व्यक्ति यह कहता है कि केवल उसके लिए नियम बदल दो तो यह न संस्थान, राज्य या राष्ट्र के लिए संभव है, क्योंकि ये संवैधानिक व्यवस्था से चलने वाला तंत्र है।
संस्थान या राष्ट्र किसी का घर नहीं जो आपके व्यक्तिगत के लिए नियमों को ताक में रख दें।
उसके उपरांत भी व्यक्तिगत मदद की जा सकती है, किन्तु संस्थागत नियमों का उलंघन करके एक परिपाठी न बनाने की इच्छा भी संवैधानिक कमेटी की होती है।
नियमों को तोड़ने की प्रगाढ़ता चाहने वाले शाख से टूट जाया करते है और उसके बाद खुद के वजूद तलाशते रहते है।
वैसे जो संस्थान या राष्ट्र में दोगला चरित्र निभाते है, इधर-उधर की करने में जीते है, केवल अपना सम्मान, मंच औऱ पैगाम चाहते है वो भी तो कहाँ टिक पाते है। उनके हाथ क्या आता है वो भी जग जाहिर है। वो दो ही कोढ़ी के होते है, इसमें कोई शक भी नहीं है। यदि नियमों से बंधे रहें तो लहरों से भी मोहब्बत मिलती है, वरना ज्वार बनकर लहरें ही डूबा देती है। इसलिए संविधान और विधान का मान आवश्यक है।

*– डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’*

अहद प्रकाश जी को जन्मदिन की बधाई

शुभ जन्मदिवस अहद प्रकाश जी

अक्षरों को टटोलते-टटोलते जो शब्द ढूंढ लेते है और शब्दों से गढ़ते है ग़ज़ल ,कविता या गीत, और कभी तो पुस्तकों से मकरंद ढूंढ कर लिख देते है समीक्षाएँ,सच ही है कि जो शब्दों से, भावनाओं से और पुस्तकों से इश्क करते हो उनका नाम *अहद प्रकाश जी* है।

बड़े ताल की हवाओं से ख़ुशनुमा, भोज की नगरी में साहित्य की समर्पित प्राकार अट्टालिका, जिनके जीवन में जयघोष केवल साहित्यिक है, वित्तीय संस्थान में सेवाएँ देने के बाद भी साहित्य से कही दूर नहीं हुए, हिन्दी-उर्दू का अद्भुत समन्वय, जो कभी प्रेमी की बात करते है तो कभी विरह को ढाल देते है, कभी बाल मन के गीत गढ़ जाते है तो कभी पुस्तकों की कहानी अपनी जुबान में कह जाते है।
कभी भारत के किसानों के दर्द को लिखते है जैसे-
*सम्मानित वे लोग हो, जिनके काँधें पर हल हो,*
*सीने तो फौलादी हो, दिल जिनके निर्मल हो*
– अहद प्रकाश जी

कभी एक विरहणी के दर्द को ग़ज़ल में उतार देते है।

ऐसे पितृ सत्ता के अधिकारी, पिता तुल्य, संस्मय पत्रिका के संपादक, हिन्दीग्राम के संरक्षक, आदरणीय अहद प्रकाश जी को जन्मदिवस की हार्दिक शुभकामना सहित प्रणाम।
यूँ ही हम पर आपका स्नेह बना रहें, आप स्वस्थ्य एवं दीर्घायु हो यही परमात्मा से कामना है।

*—डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’*

 

हिन्दी योद्धा

हिन्दी योद्धा

रत्नगर्भा भारत की धरा पर सदा से ही माँ, मातृभाषा और मातृभूमि के प्रति व्यक्ति के कर्तव्यबोध का व्याकरण बना हुआ है। हमारे यहाँ का ताना-बाना ही संस्कार और संस्कृति के प्रति अपने कर्तव्यों के निर्वाहन का बना है। हमारे यहाँ धर्मग्रन्थ भी ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ के सिद्धांत का प्रवर्तन करते है। आधुनिक काल में भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने कहा है कि –

‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।

विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।

सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।’

किन्तु वर्तमान में हमारी मातृभाषा जो हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा होना चाहिए वो हिन्दीभाषा दूषित राजनीती की शिकार होती जा रही है। सन १९६७ में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने से रोक कर राजभाषा बना दिया। साथ ही एक विदेशी भाषा अंग्रेजी की दास्ताँ को स्वीकार करते हुए उसे भी राजभाषा बना दिया गया।

फिर मत और आधिपत्य के साथ तुष्टिकरण की राजनीती ने अनुसूचियों के माध्यम से छल करके लगातार हिन्दी को अलग-थलग करके उसको तोड़ा भी जा रहा है और फिर हिन्दी के सम्पूर्ण स्वाभिमान पर कुठाराघात किया जा रहा है। हिन्दी भाषा पर आए इस संकट की घडी में  भारतीयता के नाते भारत के स्वाभिमानी स्वयंसेवक योद्धाओं की आवश्यकता है। भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को पुनर्स्थापित करने के लिए मातृभाषा उन्नयन संस्थान निरन्तर प्रयासरत है। डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’ और डॉ प्रीति सुराना के साथ आज संस्थान के प्रत्येक सारथी भारतेन्दु हरीशचंद और महात्मा गाँधी के सपनों को पूर्ण करने के लिए इस भारत की पावन भूमि पर कार्य करती है। हिन्दी के स्वाभिमान की स्थापना के आन्दोलन से देश के अंतिम व्यक्ति तक ले जाने और उन्हें जोड़ कर हिन्दी के प्रति निष्ठावान बनाने के संकल्प को पूर्ण करने के लिए जो भी भाई-बहन इस सेवा के लिए रोज 1 से 2 घंटा समय दे सकते हैं तथा इस कार्य को नौकरी या व्यवसाय के रूप में नही, बल्कि राष्ट्र सेवा, मातृभाषा सेवा, मातृभूमि सेवा समझकर सेवा भाव से करना चाहते हैं। हम ऐसे कर्मठ, पुरुषार्थी व संस्कारी, भाई-बहनों को ‘हिन्दी योद्धा’ बनने के लिए आमंत्रित करते है।

हिन्दी योद्धा का कर्तव्य:

  • आज हिन्दी को विश्वस्तर पर पहचान दिलाने के लिए हमें जुटकर हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना होगा,
  • हस्ताक्षर बदलो अभियान को अपने क्षेत्र में संचालित एवं प्रचारित करना होगा,
  • हिन्दी लेखन करने वाले साथियों को आय दिलवाने में मदद करनी होगी,
  • हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए उसे बाजार मूलक भाषा बनानी होगी,
  • हिन्दी साहित्य को आमजन तक पहुँचाना होगा,
  • हिन्दी के प्रचार हेतु अपने क्षेत्र में हिन्दी प्रेमियों का समुच्चय बनाकर प्रतियोगीताएं, कार्यक्रम आदि का संचालन करना होगा।

हिन्दी योद्धा द्वारा किए जाने वाले आवश्यक कार्य:

  • हस्ताक्षर बदलो अभियान संचालित करना।
  • ‘शिक्षालय की ओर चले हिन्दीग्राम’ संचालित करना।
  • हिन्दी प्रशिक्षण शिविर आयोजित करना।
  • आदर्श हिन्दीग्राम बनाना और गतिविधियां संचालित करना।
  • संगणक योद्धा , संवाद सेतु, हिन्दी समर्थक जनमानस को जोड़ना।
  • जनसमर्थन अभियान को संचालित कर हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु समर्थन प्राप्त करना।
  • हिन्दी व्याख्यानमाला, काव्य गोष्ठी, निबंध प्रतियोगिताएं, चित्रकला प्रतियोगिता, पुस्तक समीक्षा आदि आयोजित करना।
  • हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार करना।
  • प्रत्येक हिन्दी योद्धा द्वारा संचालित समस्त कार्यों का विवरण अनिवार्यतः संस्थान की केंद्रीय मुख्यालय द्वारा प्रदत्त निश्चित प्रारूप में करना अनिवार्य है।

अन्य संगठनात्मक कार्य –

  • ग्राम-प्रखण्ड-तहसील-वार्ड समिति का निर्माण करना
  • आदर्श हिन्दी ग्राम निर्माण में सहयोग करना।
  • भाषाई स्वच्छता अभियान का विद्यालओं में सचालन करना।
  • समाचार संस्थाओं में समाचार के माध्यम से अभियान का प्रचार-प्रसार करना
  • समय-समय पर मुख्यालय द्वारा निर्देशित सेवाओं को पूर्ण प्रामाणिकता से निभाना।

नियमित स्वाध्याय करना 

स्वाध्यायाद्योगमासीत् योगात् स्वाध्यायमामनेत्।

योगस्वाध्याय सम्पत्या परमात्मा प्रकाशते।।

प्रत्येक हिन्दी योद्धा को दिन में एक बार कम से कम 1 घंटा नियमित स्वाध्याय करें। इससे आपके ज्ञान एवं प्रशिक्षण में नवीनता व दिव्यता निरन्तर बढ़ती रहेगी। प्रशिक्षण एवं स्वाध्याय हेतु हिन्दी के महनीय साहित्यकारों की पुस्तके, राजभाषा अधिनियम, अनुसूची, के साथ-साथ संस्थान द्वारा प्रदत्त साहित्य  अनिवार्य रूप से पढ़े। इन पुस्तकों के निरन्तर स्वाध्याय से आपके ज्ञान में अत्यन्त वृद्धि और आचरण में शुचिता पवित्रता व सात्विकता बनी रहगी।

हिन्दीग्राम सदस्यता अभियान

हिंदी प्रचार हेतु संस्थान एक साप्ताहिक अख़बार ‘हिन्दी ग्राम’ निकाल रहा है। इस अख़बार का मूल उद्देश्य ही सम्पूर्ण राष्ट्र में हिंदी प्रचार करने के साथ-साथ साहित्य और हिन्दी से जुड़ी गतिविधियों, आयोजनों आदि की सूचना प्रेषित करना, हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु आवश्यकत तत्वों को अख़बार में शामिल करके उसे प्रचारित करना है। संस्थान द्वारा संचालित एक साप्ताहिक अख़बार हिन्दी ग्राम की सदस्यता हेतु जागरूकता भी हिंदी योद्धा कर सकते है।

हिंदी योद्धा गाँव, नगर व प्रान्त में ‘हिन्दी ग्राम’ के सदस्य भी बना सकते है जिससे हम हिन्दी भाषा से जुड़े समाचार और साहित्यिक सामग्री को जन-जन तक पहुंचा सकें। साथ ही हिन्दी योद्धा बतौर हिन्दी पत्रकार भी अखबार के लिए कार्य कर सकते है।

हिन्दी योद्धा का व्यक्तित्व

व्यक्तित्व शब्द अपने आप में बहुत व्यापक अर्थ रखता है जो व्यक्ति के एक-एक कार्य-कलाप व आदत से निर्मित होता है। सामाजिक कार्यकर्त्ता का व्यक्तित्व प्रभावशाली दिव्य और हिन्दी भाषा की समझ रखने वाला और मन-वचन और कर्म से हिन्दी भाषा का समर्थक होना अति आवश्यक  है ताकि उसके व्यक्तित्व से समाज के लोग प्रेरणा लें और सदगुणों को धारण करके उसके जैसा बनने का प्रयास करें। अपने व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने के लिए हिन्दी योद्धा निम्न गुणों को धारण करने के लिए दृढ संकल्पित हो-

1-प्रभावशाली सम्बोधन- हिन्दी योद्धा की भाषा-शैली अत्याधिक मृदु होनी चाहिए। यदि आप प्रभावशाली संबोधन करेंगे तो लोगों में आपकी बात को सुनने में रूचि उत्पन्न होगी। किसी भी कार्यकर्त्ता या अन्य व्यक्ति को आदरणीय, श्रद्धामयी माताओं, पिता तुल्य बुजुर्गो, संतों आदि के लिए पूज्य, श्रद्धेय, आदरणीय भाईयो-बहनो आदि प्रयोग करना चाहिए।

2-विषय की सम्पूर्ण व प्रामाणिक जानकारी होना- क्योंकि हिन्दी योद्धा का मुख्य कार्य लोगों को हिन्दी भाषा से जोड़ना और उसके प्रति प्रेम उत्पन्न करके उसे राष्ट्रभाषा बनाने हेतु आंदोलित करना। अतः हिन्दी योद्धा को भाषा अधिनियम, हिन्दी आंदोलनों की जानकारी, साहित्यकारों से परिचय, महनीय हिन्दी सेवकों के बारे में अध्ययन, भाषा की मानकता और वर्तनी दोषों से मुक्ति के साथ ग्रन्थों का सामान्य परन्तु प्रामाणिक ज्ञान होना आवश्यक है। जिससे कि अपना आत्मविश्वास भी बना रहे और लोगों को हिन्दी भाषा का सही महत्व भी समझ में आ सके।

3-वक्ता व श्रोता का आत्मीय भाव सम्पर्क- किसी भी विषय को भावपूर्वक तरीके से रखें। लोगों के जीवन से विषय को सीधा जोड़कर उनके ह्रदय, मस्तिष्क व भावों से एकाकार होकर अपनी बात कहे। इससे श्रोता आत्मीयता का अनुभव करते हैं और आपके आत्मविश्वास में भी अभिवृद्धि होगी।

4-नेतृत्व– सामाजिक कार्यकर्ता में नेतृत्व का गुण होना आवश्यक है। एक हिन्दी योद्धा को जाति, मजहब आदि की श्रेष्ठता के अहंकार से मुक्त होकर समाज के विभिन्न वर्गों, जाति, मजहब, धर्म, सम्प्रदाय, के लोगों को एक साथ लेकर चलना चाहिए। कार्य की सफलता का श्रेय सभी को देते हुए असफलता या विरोधाभासों के बीच खुद आगे आकर समूह का नेतृत्व करने का सामर्थ्य होना चाहिए।

5-अनचाहे शब्दों से बचना- समूह में अपनी बात रखते हुए हमें अनचाहे शब्दों से बचने का प्रयास करना चाहिये। क्योंकि अनचाहे शब्दों को बार-बार दोहराने से समूह में आपके प्रति गंभीरता कम होती है। जैसे-कहने का मतलब, समझ गये न, जो है न , वाह, अरे, अबे, यार, ओके, अभद्र मजाक न करें आदि।

हिन्दी योद्धा बनने हेतु अनिवार्य अर्हताएँ

  • शिक्षा- कक्षा १० से अधिक पढ़ाई किए हुए हिन्दी प्रेमी
  • संगणक (कम्प्यूटर) पर कार्य करने का अनुभव।
  • सोशल मीडिया पर कार्य करना आता हो।
  • आयु – १८ वर्ष से अधिक

आवश्यक सत्यापित प्रमाणपत्रः- संस्थान से जुड़ने पर हिन्दी योद्धा को अपना आधारकार्ड या मतदान परिचय पत्र की छायाप्रति जमा करानी होगी उसके साथ पासपोर्ट साइज फोटो और शैक्षणिक प्रमाण पत्रों की फोटो कॉपी हिन्दी योद्धा प्रकल्प में जमा करनी होगी।

स्तरहीन कवि सम्मेलनों से हो रहा हिन्दी की गरिमा पर आघात

स्तरहीन कवि सम्मेलनों से हो रहा हिन्दी की गरिमा पर आघात

डॉ. अर्पण जैन अविचल

कवि सम्मेलनों का समृद्धशाली इतिहास लगभग सन १९२० माना जाता हैं । वो भी जन सामान्य को काव्य गरिमा के आलोक से जोड़ कर देशप्रेम प्रस्तावित करना| चूँकि उस दौर में भारत में जन समूह के एकत्रीकरण के लिए बहाने काम ही हुआ करते थे, जिसमें लोग सहजता से आएं और वहां क्रांति का स्वर फूंका जा सके|  उसके बाद कवि सम्मेलन भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग बन गए। उस मुद्दे के बाद कवि  सम्मेलनों में नौ रसों को शामिल करने की कवायद शुरू हुई| भारत में स्वाधीनता के बाद से ८० के दशक के आरम्भिक दिनों तक कवि सम्मेलनों का ‘स्वर्णिम काल’ कहा जा सकता है। ८० के दशक के उत्तरार्ध से ९० के दशक के अंत तक भारत का युवा बेरोज़गारी जैसी कई समस्याओं में उलझा रहा। इसका प्रभाव कवि-सम्मेलनों पर भी हुआ और भारत का युवा वर्ग इस कला से दूर होता गया। मनोरंजन के नए उपकरण जैसे टेलीविज़न और बाद में इंटरनेट ने सर्कस, जादू के शो और नाटक की ही तरह कवि सम्मेलनों पर भी भारी प्रभाव डाला। कवि सम्मेलन संख्या और गुणवत्ता, दोनों ही दृष्टि से कमज़ोर होते चले गए। श्रोताओं की संख्या में भी भारी गिरावट आई। इसका मुख्य कारण यह था कि विभिन्न समस्याओं से घिरे युवा दोबारा कवि-सम्मेलन की ओर नहीं लौटे। साथ ही उन दिनों भीड़ में जमने वाले उत्कृष्ट कवियों की कमी थी। लेकिन नई सहस्त्राब्दी के आरम्भ होते ही इंटरनेटयुगिन युवा पीढ़ी, जो कि अपना अधिकांश समय इंटरनेट पर गुज़ार देती हैं वह कवि सम्मेलन को पसन्द करने लगी। इसी युग में काव्य को कई कवियों ने सहजता और सरलता से आम जनमानस की भाषा में लिखकर काव्य किताबों से निकल कर मंचो पर सजने लगा |

२००४ से लेकर २०१० तक का काल हिन्दी कवि सम्मेलन का दूसरा स्वर्णिम काल भी कहा जा सकता है। श्रोताओं की तेज़ी से बढती हुई संख्या, गुणवत्ता वाले कवियों का आगमन और सबसे बढ़के, युवाओं का इस कला से वापस जुड़ना इस बात की पुष्टि करता है। पारम्परिक रूप से कवि सम्मेलन सामाजिक कार्यक्रमों, सरकारी कार्यक्रमों, निजी कार्यक्रमों और गिने चुने कार्पोरेट उत्सवों तक सीमित थे। लेकिन इक्कईसवीं शताब्दी के आरम्भ में शैक्षिक संस्थाओं में इसकी बढती संख्या प्रभावित करने वाली है। जिन शैक्षिक संस्थाओं में कवि-सम्मेलन होते हैं, उनमें आई आई टी, आई आई एम, एन आई टी, विश्वविद्यालय, इंजीनियरिंग, मेडिकल, प्रबंधन और अन्य संस्थान शामिल हैं। उपरोक्त सूचनाएं इस बात की तरफ़ इशारा करती है, कि कवि सम्मेलनों का रूप बदल रहा, परन्तु इसी दौर में साहित्यिक शुचिता का वो हश्र भी हुआ की भारत की संस्कृति में एक हवा बाजारवादी और विज्ञापनवादी संस्कृति की भी घुस गई जिसने स्ट्रीक को भोग्य समझा और उसी के साथ चुहल करने को साहित्य का नाम देकर काव्य से परिवारों को तोड़ दिया |इसी दौर में डॉ उर्मिलेश ने लिखा हैं

तुम अगर कवि हो तो मेरा ये निवेदन सुन लो,

खोल कर कान जरा वक्त की धड़कन सुन लो,

तुम और न ये श्रृंगार न लिखो गीतों

तुम न अब प्यार या श्रृंगार लिखो गीतों

वक्त की मांग हैं अंगार लिखों गीतों में

सिर्फ कुंठाओं की अभिव्यक्ति नहीं है कविता

काम क्रीड़ाओं की आसक्ति नहीं है कविता

कविता हर देश की तस्वीर हुआ करती हैं

निहत्थे लोगो की शमशीर हुआ करती हैं…

तुम भी शमशीर या तलवार लिखों गीतों में

वक्त की मांग हैं अंगार लिखों गीतों में

इसी कविता में डॉ. उर्मिलेश कहते हैं कि जवानी को नपुंसक न बनाओं कवियों.. आखिर क्यों आवश्यकता आन पड़ी इस पंक्तियों को लिखने की ?  जरूर मंचों से वाग्देवी की पुत्रियों द्वारा पड़े श्रृंगार पर छींटाकशी ने उनके भी ह्रदय को विदारित किया ही होगा, इसीलिए उन्होंने श्रृंगार विहीन मंच की बात कही होगी, क्योंकि डॉ उर्मिलेश कोई कमजर्फ तो नहीं थे, बल्कि उस दौर के नायक रहें हैं। पहले उसके बोलो पर ग़ज़लों की बहर कही जा सकती थी, अब उन्ही बोलों की इशारा माना जाने लगा है और न जाने क्यों सीमाएं लांघी जाने लगी है। कवि सम्मेलनों के स्तरहीन होने पर अब सूरज को भी युगधर्म सीखने का समय है| कवि कुमार विश्वास की कविता की पंक्तियाँ यही कहती है कि-

तम शाश्वत है, रात अमर है, गिरवी पड़े उजाले बोले,

सूरज को युगधर्म सिखाते, अंधियारों के पाले बोले

चीर-हरण पर मौन साधते,प्रखर मुखों के ताले बोले

बधिरों के हित  रचें युग ऋचा, वाणी के रखवाले बोले

नितांत आवश्यक प्रश्न हैं कि वर्तमान में कवि सम्मेलनों के स्तरहीन होने पर वाणी के रखवाले क्यों खामोश है ? और सबसे पहले तो ये हो क्यों रहा हैं ? उपभोक्तावादी कविसम्मेलनों में लगातार आयोजक और संयोजक मिलकर कविता को धनपशुओं की रखैल बनाने पर आमद हो रहे हैं|वर्तमान में हिन्दी कवि सम्मेलनों में स्तरहीनता होने के पीछे कवि, संयोजक और आयोजको के साथ-साथ हिन्दी के पाठक और श्रोता भी जिम्मेदार हैं| क्योंकि आप ही यदि विरोध नहीं करेंगे तो प्रतिध्वनियों के कोलाहल पर ध्वनियों का मौन हो जाना ही स्वीकृति देने सामान हैं | यहाँ चुप्पी, चीखों का हल नहीं हैं|  स्त्री को भोग्या मानना और उसका उपहास उड़ाने के बाद भी द्विअर्थी संवादों के बहाने सम्पूर्ण नारी जाती को कटघरे में खड़ा करने में जिम्मेदार कुछ एक कवियत्रियाँ भी हैं जो सस्ती लोकप्रिय और ज्यादा काम पाने की लालसा में सरस्वती के मंच को वैश्यालय बनाने से बाज नहीं आ रही हैं |

हिन्दी  भाषा के रचनाकार इतने अभागे नहीं है कि अपने घर की बहन-बेटियों को आयोजकों और संयोजकों को परोसकर अपना घर चलाए , फिर क्यों वे आशा करते है भारत की बेटियों से कि वो स्वयं को परोसे और फिर कवि सम्मलेन से रोजगार और प्रसिद्धि पाएं | मंचों पर शब्दबाणों से कविता के साथ-साथ स्त्री का भी चीर-हरण होता हैं, और सभा में बैठे धृतराष्ट्र मुँह फाड़ -फाड़ कर ठिठोली करते हुए असंख्य दुःशासनों के हौसलों को बढ़ा रहें हैं, इस तरह से तो हिन्दी कवि सम्मेलनों और मुजरों में फर्क ही कहा रह जाएगा |

पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला
घेर ले छाया अमा बन
आज कंजलअश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन

निश्चित तौर पर आ. महादेवी वर्मा जी की कविता की प्रथम पंक्ति में ही समाधान के संग्रह को समाहित कर लिया गया है, इस समस्या का सीधा-सा समाधान हैं, या तो ऐसे कवि सम्मेलनों का बहिष्कार हो जहाँ द्विअर्थी संवादों के सहारे कविता के नाम पर फुहड़ता परोसी जा रही हो, या फिर उसी मंच पर फूहड़ या अभद्र होने वाले दुस्शासन हों तमाचा रसीद किया जाए, क्योंकि आपके भी घर में माँ-बेटी होती है और यदि कोई कवियत्री फुहड़ता परोसने में सहभागी बन रही हो तो हाथ-पकड़ कर मंच से उतरा जाए, क्योंकि मंच सरस्वती का मंदिर है, नगरवधुओं का घर नहीं| यदि देश के ५-१० कवि सम्मेलनों में भी ऐसा हो गया तो निश्चित तौर पर अन्य दलालों को शिक्षा मिल जाएगी| हिन्दी के श्रोताओं को जागना होगा यदि  हम न जागे तो हिन्दी के मंचों से ही हिन्दी की दुर्दशा का स्वर्णिम अध्याय लिखा जाएगा |

डॉ. अर्पण जैनअविचल

पत्रकार एवं स्तंभकार

संपर्क: ०७०६७४५५४५५

अणुडाक: arpan455@gmail.com

अंतरताना:www.arpanjain.com

[ लेखक डॉ. अर्पण जैनअविचलमातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं| ]

दंभ में डूबे हुए शिवराज, भाजपा के उल्टे दिन शुरु

*दंभ में डूबे हुए शिवराज, भाजपा के उल्टे दिन शुरु*

# *डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’*

जैसे ही विधानसभा चुनाव की तारीख नजदीक आती जा रही है, मध्यप्रदेश के मुखिया के तेवर वैसे-वैसे अकड़ और दंभ से भरते जा रहे है ।
मुखिया के हाल बदले से है, या तो हार का डर सता रहा है या फिर शिवराज भी समझ रहे हैं कि दुल्हन की विदाई तय है। राजधानी का हाल भी कुछ ऐसा ही हो रहा है, एक तरफ बढ़ रही गर्मी शहर के तापमान की ठंडक तो खत्म कर चुकी है वैसे ही राजभवन से लेकर मुख्यमंत्री आवास तक और श्यामला से लेकर सचिवालय तक गर्मी का प्रकोप छाया है, इस गर्मी का कारण चुनाव में भाजपा पर मंडरा रहे संकट के बादल ही हैं।
मध्यप्रदेश सरकार के काम भी इतने प्रभावी नहीं रहे जो मतदाताओं को लुभा सकें… व्यापम, वनरक्षक, डम्पर घोटाले से लेकर किसानों की आत्महत्याएँ, किसानों का आन्दोलन, मंदसौर काण्ड, सूबे के विधायको के बड़बोले बोल, अन्नदाताओं को अपमानित करना, गरीब, मजदूर, दलित और  शोषित वर्ग को दरकिनार कर प्रभुत्वसंपन्नो की सरकार कहलाना, बेटियों का राज्य में सबसे असुरक्षित रहना, आए दिन बेलगाम अफसरशाही का होना, जनमानस के बीच से विकास नाम के मिट्ठू का गायब होना, कृषि की नई तकनीकि सिखाने वाली विदेश यात्राओं में फर्जी किसानों को भेजना, और इसके अतिरिक्त भी हुए कई घोटालों के बावजूद भी सरकार की ओर से राहत तो नहीं बल्कि मुख्यमंत्री के  तेज तर्रार तेवर से राजधानी की बौखलाहट साफ तौर पर मुखिया के चेहरे पर दिखाई दे रहीं है।
रसूखदारों के कामों को करवाने के लिए पूरी अफसरशाही रास्ते पर बैठी है, पर गरीब केवल दफ्तरों के चक्कर लगा-लगा कर ही नीला हो रहा है।
बीते शुक्रवार राजधानी में 400 किमी पैदल चलकर धार जिले की सरदारपुर के किसान, पत्रकार, मजदूर और छात्र पहुँचे, यादगार ए शाहजानी पार्क में धरने पर बैठे, जिसकी सूचना भी मुख्यमंत्री को दी गई, उन्होंने इतने दंभ भरे लहजे में किसानों से मिलना नहीं चाहा जैसे रामायण में रावण ने राम के दूत को दंभ दिखाया था|
खैर, किसान आन्दोलन भी समीप ही आ रहा है…
चूंकि कांग्रेस पूरे मनोयोग से, पूर्ण ताकत से चुनाव नहीं लड़ पाती है, न कोई कद्दावर कद सामने आता है, वर्ना मामा के सत्ता में लौटने के ख्वाब ही जीवन से दफा हो जाए। परन्तु कांग्रेस भी न जाने क्यों वॉक ओवर देने का चलन बना चुकी है।
बाबाओं को, उनके पट्ठों को, जमीन के जादुगर कांग्रेसियों को और धर्म की आड़ में वासना के शातिरों को तो मामा राज्यमंत्री दर्जा दे चुका है, क्योंकि वो डरा हुआ तो है पर बीते सप्ताह अमित शाह के प्रदेश दौरे के बाद शायद विदाई को लेकर आश्वस्त भी है कि भाजपा आए या न आए पर मामा का लौटना संभव नहीं है… इसी के चलते मामा भी अब कंस से ज्यादा हानिकारक बनने पर आतुर भी है।
नर्मदा यात्रा के घोटालों पर पर्दा डालने में असमर्थ, शराब बंदी में असफल, अपराध नियंत्रण में असक्षम, भ्रष्टाचार और व्याभिचार पर नकेल लगाने में फिसड्डी होने के बाद जो डर मुख्यमंत्री रहते हुए शिवराज के चेहरे पर दिख रहा है वो निश्चित तौर पर उन्हें भाजपा के शिवराज के नेतृत्व में चुनाव लड़कर बाद में डब्बा गोल होने के संकेत का पूर्वानुमान होना ही माना जाएगा।
मध्यप्रदेश की राजनीति का ये स्याह चेहरा भी विगत 15 से 20 साल में ज्यादा स्पष्ट तौर पर सामने आया है, जब उमा के नेतृत्व से चुनाव जीता फिर डब्बा गोल कर बाबूलाल गौर को काबिज़ किया, फिर शिव का नंबर आया, अब वही हाल शिवराज का भी होने की पूरी संभावनाएं है ।
खैर, हो भी क्यों न, जब आप ही बबूल के बीज बो रहे हों तो स्वाभाविक तौर पर आम तो उगने से रहें। आपने जो गड्डे दूसरों के लिए खोदे हैं, वो कभी न कभी रंग तो आपके लिए भी दिखाएंगे ही।
वैसे भी शिवराज और पाला बदलना दोनों साथ चलते है, कभी पटवा जी की आड़ लेकर तो कभी कैलाश जोशी जी, कभी आडवानी की गोद में तो कभी अमित शाह को मनाने में… मतलब साफ है, स्वार्थ जब तक है तब तक शिवराज आपके है वर्ना आपकी लाश पर भी पैर रखकर जाना पडे़ तो शिवराज को कोई गुरेज न होगा। अब सोचना मतदाताओं को होगा कि क्या ऐसे एहसान फरामोश को जीताना सही होगा, क्योंकि कुछ दिनों पूर्व शिव ने एक बयान में कहा कि वे कभी भी जा सकते है, हो सकता है शीर्ष नेतृत्व ने कुछ संकेत दिए हो जिससे भी शिवराज अनायास भय से आक्रान्तित हो जिसके कारण भी वो प्रदेश में असहजता जाहिर कर  रहें हों । अंतत: शिव की विदाई के साथ भाजपा की विदाई के संकेत भी हैं। परिणाम चाहे जो भी हो पर अब शिव के सर पर घमंड चढ़ चुका है जो निश्चित तौर पर भाजपा के बुरे दिन लाएगा।

*डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’*
खबर हलचल न्यूज, इंदौर
#खबरहलचलन्यूज #राजनीति #शिवराज

प्रकाशित पुस्तकें ही है लेखक की पहचान

*प्रकाशित पुस्तकें ही है लेखक की पहचान*

पुस्तक सर्वदा बहुत अच्छी मित्र होती है, इसके पीछे एक कारण यह है कि पुस्तक ही किसी सृजक के उपलब्ध ज्ञान का निष्कर्ष होती है।
जब तक लेखक किसी विषय को गहनता से अध्ययन नहीं कर लेता उस पर लेखन उसके लिए संभव नहीं है और गहराई से ग्रहण किए ज्ञान का निचोड़ ही उसके सृजन में उसकी मेधा का परिचय देता है।
वर्तमान समय में प्रत्येक पांचवाँ व्यक्ति एक कवि, लेखक या अन्य विधा का सृजक बनता जा रहा है, क्योंकि इस समय चलन है इंटरनेट व सोशल मीडिया का। बात यदि हिन्दी लेखन की ही की जाए तो वर्तमान में 2000 से अधिक अंतरताने उपलब्ध हैं जहाँ आप अपनी रचनाओं को स्थान दिलवा सकते है, जैसे अमरउजाला.कॉम, हिन्दीलेखक, गद्धकोश, मातृभाषा.कॉम, प्रतिलिपी, कविताकोश, प्रवक्ता, भारतवार्ता, आदि के साथ-साथ फेसबुक, ट्वीटर, इंस्टाग्राम भी है परन्तु इन सबके अतिरिक्त एक शौकिया या व्यावसायिक लेखक के तौर पर मिलने वाली पहचान की मुहर आपके द्वारा लिखी पुस्तक से ही मिल सकती है।
और वर्तमान समय में वो दौर भी खत्म सा हो गया जब प्रकाशक ही लेखकों को खोजते थे, अब लेखक स्वयं भी प्रकाशक खोज सकते हैं ।
ई एल जेम्स, ह्यूघ हॉवी और अमांडा हॉकिंग्स सफल प्रकाशक हो सकते हैं, तब कोई भी कारण नहीं है कि आप वह नहीं हो सकते। एक लेखक के रूप में आप कितने अच्छे हैं, यह सबसे अधिक महत्व रखता है। यद्यपि स्वयं-प्रकाशक के रूप में आपके लेखन की सफलता भी प्रकाशकों के दृष्टिकोण बदल सकती है और तब आपका लाखों में खेल सकते हैं।
लेखक की सृजनशीलता का मापदण्ड, उसका आभामंडल, उसका पाठक वर्ग और उसका किरदार भी उसके द्वारा लिखी पुस्तक से ही आँका जा सकता है।
जब आपको कोई प्रकाशन प्रकाशित नहीं कर रहा है तो इसका कारण यह बिलकुल भी नहीं है कि आपका लेखन कमजोर है, बल्कि प्रकाशक की व्यावसायिक मजबूरियाँ भी उत्तरदायी होती हैं, क्योंकि जब तक आप सम्मानित या स्थापित साहित्यकारों की श्रेणी में नहीं आते तब तक आपकी पुस्तक कोई क्यों खरीदेगा?
दुनिया नाम के पीछे भागती है, और ऐसे में स्वयं प्रकाशन एक बेहतर उपलब्ध विकल्प है, जिसके माध्यम से आप बतौर रचनाकार या लेखक अपनी पुस्तकें प्रकाशित करवा कर अपना पाठक वर्ग खोज सकते हैं।
कई लोग आज भी ये सोचते हैं कि स्वयं प्रकाशन योजना एक अत्यधिक खर्चीला प्रकाशन प्रकल्प है, और अत्यधिक पैसा लगा कर ही स्वान्तय सुखाय पुस्तकें प्रकाशित करवाई जा सकती हैं, जबकि ऐसा हमेशा सहीं नहीं होता।
मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले से एक महिला साहित्यकार डॉ.प्रीति सुराना द्वारा संचालित *अन्तरा शब्दशक्ति प्रकाशन* ने इस तरह के तमाम सारे मिथक तोड़ दिए हैं ।
उनका प्रकाशन छोटी पुस्तकों के प्रकाशन और ईबुक से रचनाकार के सृजन के प्रचार की कई योजनाएं लाया है, जिसमें महज 1500 रु से भी कम खर्च में 16 पृष्ठ की छोटी पुस्तकें प्रकाशित करवाई जा सकती हैं ।
और उस पर आईएसबीएन भी लिया जा सकता हैं । ये योजना एक रचनाकार के लिए सोने पर सुहागा है, क्योंकि पुस्तकों का आकार या पृष्ठ संख्या उतनी मायने नहीं रखती जितनी आपके परिचय में जुड़ी प्रत्येक पुस्तक।
यही प्रकाशित पुस्तक आपकी पहचान होती है।
अन्तरा-शब्दशक्ति प्रकाशन के माध्यम से डॉ.प्रीति सुराना जी द्वारा सैकड़ों या कहें हजारों गुमनाम और अनायास भय से आक्रान्तित (जिन्हें स्वयं प्रकाशन खर्चीला जान पड़ता था) सृजकों को एक अदद पहचान मुहैय्या करवाई जा रही है।
मानो आप एक साझा संग्रह का ही हिस्सा बनने जा रहें हो तो वहाँ जुड़ने का खर्च 500 रुपये से लेकर 2500 रुपये तो होगा ही, वहाँ पर यह राशि देने के बाद भी परिचय में साझा संग्रह ही जुड़ेगा जबकि इतने ही खर्च में आप स्वयं की पुस्तक प्रकाशित करवा सकते हैं और उस प्रकाशित पुस्तक का ईबुक संस्करण भी आपके लिए पाठक खोज लाएगा, जब आपके विश्वास हो जाए कि आपके पास पर्याप्त पाठक हो रहे हैं तो आप स्वयं की पुस्तकें ज्यादा छपवा कर विक्रय भी कर सकते है, जिससे आपको आय भी प्राप्त होगी या फिर निजी अन्तरताना (वेबसाईट या ब्लॉग) बना कर पाठक बढ़ा सकते है, जिससे गूगल एडसेंस के माध्यम से भी आय प्राप्त होगी , इसके लिए लेखकों को www.antrashabdshakti.com पर पंजीकरण करवाना होता है, पाण्डुलीपि भेजना और फिर आकर्षक कवर के साथ पुस्तकों का प्रकाशन हो जाता है, मय संपादन के |
अन्तरा शब्दशक्ति प्रकाशन की यह छोटी पुस्तकों और ईबुक के माध्यम से रचनाकारों के प्रचार की पहल निश्चित तौर पर हिन्दुस्तान के साहित्य आकाश में कई सितारे तो देगी ही वरन साहित्कारों को स्वयं प्रकाशन योजना में उलझाने वाले प्रकाशकों और लेखक की बजाय प्रकाशकों के नाम को प्रकाशित करने बाले कुनबें से भी दूर करेगी।
वैसे साहित्य की कितनी महिमा होती है ये तो महाकवि रामधारी सिंह दिनकर ने यह कहकर ही प्रतिपादित कर दिया था कि *’जब-जब राजनीति लड़खड़ाई है, साहित्य ने ही उसे संभाला हैं’*
यह अक्षरश: सत्य भी है, इसीलिए साहित्य सृजन जारी रखें और एक बार स्वयं की छोटी पुस्तकों के प्रकाशन के बारें में जरूर सोचे.. क्योंकि *’ये प्रकाशित पुस्तकें ही साहित्यकार होने की शर्त भी और पहचान भी हैं।’*

*डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’*
हिन्दीग्राम, इंदौर