लघुकथा- मंचों की कवयित्री

संस्कृति मंचों की एक उम्दा कवियत्री है । सप्ताह में 4 से अधिक कवि सम्मेलनों में रचना पाठ करना ही संस्कृति की पहचान थी ।
पुरुषप्रधान समाज होने के कारण कई बार संस्कृति का सामना फूहड़ कवियों और श्रोताओं से भी होता था ।
इसी बीच एक गाँव में हुए कवि सम्मेलन में संचालक द्वारा संस्कृति की रचना को लेकर भद्दी और अश्लील फब्तियाँ मंच से कस दी ।
संस्कृति ने आव देखा ना ताव, मंच से ही संचालक के शब्दों का कड़ी *प्रतिक्रिया* दी और दो टूक शब्दों में संचालक कवि की लू उतार दी ।
उस संचालक को आयोजकों ने भी खूब लताड़ा और मंच से उतार दिया । शर्मिंदगी के मारे उस संचालक को काव्य जगत से भागना ही पड़ा ।
आज संस्कृति के प्रतिक्रियावादी रवैये से कई स्त्रीयों का लाभ हुआ जो मंच के गौरव के कारण यह सब सह जाती थी ।
यदि समाज में रहना है तो हर गलत कथ्य या आचरण का प्रतिकार करना आना चाहिए, वर्ना प्रतिकार न करना चलन का हिस्सा बन जाता है । और इससे कई लोग प्रभावित होते है ।

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
हिन्दीग्राम, इंदौर

कविता- वसुंधरा

सौम्य सुधा सब पक्ष हमारा,
जीवन का अगणित श्रृंगार |
सबकुछ सहकर कुछ ना बोले,
वहीं माँ है हमारी तारणहार ||

तंतु की विवेचना भी सहती,
न निकले कभी अश्रु की धार |
अहम के टकराव में रहती,
धरती माँ है हमारी पालनहार ||

निश्चल मन, निर्मल स्वअंग है,
सबसे ही करती वो भी प्यार |
कभी न करती फेर किसी में
वहीं धरा है हमारी चिंतनहार ||

न जाति न रंग भेद है उसमें
सबका उस पर है अधिकार |
मौन स्वीकृति सबको देती
‘अवि’ वसुंधरा है पुरणहार ||

अर्पण जैन ‘अविचल
इंदौर (.प्र.)