लघुकथा- मंचों की कवयित्री

संस्कृति मंचों की एक उम्दा कवियत्री है । सप्ताह में 4 से अधिक कवि सम्मेलनों में रचना पाठ करना ही संस्कृति की पहचान थी ।
पुरुषप्रधान समाज होने के कारण कई बार संस्कृति का सामना फूहड़ कवियों और श्रोताओं से भी होता था ।
इसी बीच एक गाँव में हुए कवि सम्मेलन में संचालक द्वारा संस्कृति की रचना को लेकर भद्दी और अश्लील फब्तियाँ मंच से कस दी ।
संस्कृति ने आव देखा ना ताव, मंच से ही संचालक के शब्दों का कड़ी *प्रतिक्रिया* दी और दो टूक शब्दों में संचालक कवि की लू उतार दी ।
उस संचालक को आयोजकों ने भी खूब लताड़ा और मंच से उतार दिया । शर्मिंदगी के मारे उस संचालक को काव्य जगत से भागना ही पड़ा ।
आज संस्कृति के प्रतिक्रियावादी रवैये से कई स्त्रीयों का लाभ हुआ जो मंच के गौरव के कारण यह सब सह जाती थी ।
यदि समाज में रहना है तो हर गलत कथ्य या आचरण का प्रतिकार करना आना चाहिए, वर्ना प्रतिकार न करना चलन का हिस्सा बन जाता है । और इससे कई लोग प्रभावित होते है ।

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
हिन्दीग्राम, इंदौर

लघुकथा- प्रतिक्रिया

*लघुकथा- प्रतिक्रिया*

सारांश अपनी व्यस्त जीवन शैली में संचयनी के साथ बहुत खुश था, पर संचयनी अपनी सहेलियों और सहकर्मीयों के बीच बहुत सीधी और भोली थी |
संचयनी के सहकर्मी उसके भोलेपन का हमेशा नाजायज फायदा उठा कर संचयनी को ही तंज कसते रहते थे, जिसके कारण वह पिछले कुछ दिनों से थोड़ी उखड़ी-उखड़ी सी रहने लगी थी, जबकि संचयनी पेशे से एक्युप्रेशर चिकित्सक थी, और उसका शौक लेखन था ।
उसकी एक सहकर्मी ने संचयनी की डीग्री पर जलनवश टिप्पणी की थी , जिससे संचयनी बहुत ज्यादा व्यथित थी ।
उसके माथे की शिकन देखकर सारांश ने उससे कारण जाना ।
कारण जानने के बाद सारांश ने तर्क दिया कि
संचयनी तुम प्रतिक्रियावादी समाज में रहती हो, और तुम एक बात ध्यान रखो
हर क्रिया की एक *प्रतिक्रिया* होती है,
जब तक तुम प्रतिक्रिया नहीं दोगी, ये समाज तुम्हे जीने नहीं देगा ।
जिस सहकर्मी ने टिप्पणी दी उसका भी तो तुम व्यक्तित्व देखो, क्या वो उस लायक भी है जिसे महत्व दिया जाए, तो तुम क्यों लिहाज करती हो, तुम्हें प्रतिक्रिया देना आना चाहिए ।
इनसब संवाद के बाद से संचयनी के जीवन में बहुत सुधार आया और संचयनी अब प्रतिक्रियावादी समाज में सहर्ष प्रतिक्रिया देकर जीवन को सशक्तता से जीने लग गई है ।

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
इंदौर, मध्यप्रदेश