संकट में है अख़बार, भविष्य अधर में

संकट में है अख़बार, भविष्य अधर में

✍🏻 *डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*

‘एक समय आएगा जब अख़बार रोटरी पर छपेंगे, संपादकों की ऊँची तनख्वाह होगी, पर तब संपादकीय संस्थाएँ समाप्त हो जाएँगी।’ ऐसी बात आज़ादी के पहले बाबू विष्णु पराड़कर जी लिख गए, जो आज अक्षरश: सत्य नज़र आ रही है।
आज संपादकीय संस्थान तो विज्ञापन या कहें सर्कुलेशन विभाग के मुनाफ़े और आज्ञा पर ही जीवित हैं।
असल बात तो यह है कि हिंदुस्तानी अख़बार दुनिया का एकमात्र ऐसा हसीन उत्पाद (प्रोडक्ट) है, जो अपनी लागत मूल्य से कम से कम पाँच या दस गुना कम मूल्य में बिकता है क्योंकि शेष लाभ विज्ञापन आधारित माना जाता है।
इसी कारण संपादकीय विभाग भी विज्ञापन विभाग के दबाव में रहने लगा है।
इस मूल्य की क्षीणता के साथ ही वर्तमान समय में देशबन्दी के कारण अख़बारी दुनिया केवल खानापूर्ति मात्र हो रही है।
अख़बारों को संचालित करने वाली व्यवस्था, जिसे विज्ञापन कहते हैं, वो अख़बारों से गायब है, और जब विज्ञापन नहीं होंगे तो अख़बार कैसे ज़िंदा रहेगा!
हालात तो यह है कि देश के कई मीडिया संस्थान कर्ज़े में हैं, घाटे में हैं, कई महीनों से नियमित तनख्वाह तक दे पाने में असमर्थ हैं। इसके बावजूद कोरोना कहर के कारण वितरण भी प्रभावित है और समाचार भी।
ऐसी स्थिति में अख़बारों का प्रबंधन वेंटिलेटर पर आ जाएगा। आर्थिक रूप से टूटे हुए अख़बारी लोग तनख्वाह, भत्ते आदि से परेशान रहेंगे, नौकरियों में संकट आना स्वाभाविक है और कामगारों और पत्रकारों के लिए दुगुनी चिंता क्योंकि समय पर वेतन न मिलने का बोझ और नौकरी करने के कारण जेब से ख़र्च करके नियमित काम करने का भी तनाव। यहाँ तक कि अख़बारी काग़ज़, स्याही आदि ख़रीदी की भी चिंता। इन सबके बावजूद भी अख़बार के घटते पाठक या ग्राहक और डिजिटल मीडिया पर भरोसा करते हुए लोग भी तो अख़बारी पाठन से दूर हो रहे हैं।
वैसे भी विश्व के कई देशों में प्रिंट मीडिया ने अपना रुख इंटरनेट मीडिया की ओर काफ़ी पहले कर लिया है, बीते एक दशक से तो डिजिटल संस्करण श्रेष्ठ विकल्प बनकर उभर रहे हैं।
ऐसे मुश्किल हालात में सरकारों को भी नियमित अख़बारी छपाई को रोक कर डिजिटल संस्करण को अधिक मान्यता देनी चाहिए।
काग़ज़ भी बचेगा यानी जंगल बचेंगे और साथ में यह उद्योग भी लाभ के उद्योग में तब्दील हो पाएगा।
इस संकट की घड़ी में ही सही किन्तु सरकारें यदि नियमित छपी हुई प्रति की माँग को समाप्त कर दें तो शायद अख़बारी दुनिया भी डिजिटल की ओर रुख कर लें, वैसे भी डिजिटल संस्करण की ताक़त ज़्यादा होती है।
और अभी की देशबन्दी के हालातों के बाद तो यकीन जानिए आगामी एक वर्ष तो विज्ञापनों की आमद होने में संकट है और बिना विज्ञापन के अख़बार का भविष्य भी संकट में ही है।
कवि कुमार विश्वास कहीं लिखते है कि
‘जिसके विरुद्ध था युद्ध उसे
हथियार बना कर क्या पाया?
जो शिलालेख बनता उसको
अख़बार बना कर क्या पाया?’
आज अख़बार की दुनिया दोतरफ़ा संकट में है। मूल्यों का क्षरण तो लगातार हो ही रहा है और आर्थिक रूप से पड़ने वाली मार तो ज़्यादा संकट में डालेगी।
डिजिटल दुनिया में तो एक लाभ और भी है कि आप अपने विज्ञापनदाताओं को यह स्पष्टता के साथ बता पाओगे कि कितने लोगों ने विज्ञापन देखा जबकि अख़बार में यह सुनिश्चितता तो है ही नहीं। इसी के चलते ज़्यादा विज्ञापन मिलेंगे क्योंकि कम लागत में विज्ञापनदाताओं का लाभ अधिक है। समय रहते यदि अख़बार नहीं संभल पाए तो आर्थिक, सामाजिक और व्यवस्थाजन्य तो कमज़ोर होंगे ही, साथ में अस्तिव भी संकट में आ जाएगा। जागना आवश्यक है, वर्ना, अख़बार का भविष्य खतरे से खाली नहीं है ।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
ख़बर हलचल न्यूज़, इंदौर

सवाल तो विधान का था…

सवाल तो विधान का था…
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■ डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’

हस्तिनापुर के अनुबंध और करार में बंधें गुरू द्रोणाचार्य ने जब वनवासी बालक और क्षेत्रीय काबिले के सरदार के पुत्र को धनुर्विद्या सीखाने से इंकार कर दिया तो वही वनवासी बलवान एकलव्य गुरु द्रोण की मूर्ति से धनुर्विद्या सीखने लगा और पारंगत होने पर उसी के जंगल में एक कुकुर का भोंकना भी वह न सह सका और शरों से उस कुकुर के मुँह को बंद कर दिया।
तभी गुरु द्रोणाचार्य और पाण्डव उसकी प्रशस्त धनुर्विद्या को खोजते-खोजते एकलव्य से जा मिले, गुरु ने संवाद के बाद जानने पर गुरुदक्षिणा में अंगूठा मांग लिया।
सवाल तो तब भी उठे, और तब भी जब गुरु द्रोण ने धनुर्विद्या सिखाने से इंकार किया ।
जबकि सच तो यह है कि अनुबंध और विधान नाम की कोई चीज होती है, इसको लेकर बुद्धिमान प्रश्न नहीं करते और उनके अतिरिक्त अन्य को आप समझा भी दोगे तो समझ नहीं आएगी, क्योंकि नीति विरुद्ध तो आप भी हो ही।
क्या एकलव्य का दोष नहीं था कि बिना गुरु द्रोण की आज्ञा के क्यों उसने उनकी मूर्ति बनाई?
सवाल तो यह भी उठा कि एकलव्य निरीह वनवासी था, तो महाशय कोई निरीह सीधा-साधा व्यक्ति धनुर्विद्या ही क्यों सीखेगा?
धनुर्विद्या वही सीखते है जिन्हें योद्धा बनना होता है, और कबिले के सरदार का बेटा यानी उस कबिले का अगला सरदार निरीह या मूर्ख नहीं हो सकता।
खैर प्रश्न यही था न कि ‘गुरु द्रोण ने एकलव्य को क्यों धनुर्विद्या नहीं सिखाई?’ और उसके उपरांत भी ‘अँगूठा क्यों दक्षिणा में मांग लिया?’
दोनों ही प्रश्नों का जवाब केवल एक ही था, वो है ‘अनुबंध या संविधान’ ।
हस्तिनापुर को दिए वचनों में धनुर्विद्या सिखाने का अनुबंध केवल हस्तिनापुर के राजपुत्रों से था, अतिरिक्त किसी को वो सिखा नहीं सकते थे और यही जब एकलव्य ने किया तो दुनिया वाले उनके बाद ये नहीं कहें कि गुरु द्रोणाचार्य वचन के पक्के या विधान के पक्के नहीं थे इसलिए अँगूठा दक्षिणा में मांगा।
इसके अतिरिक्त एक और बात कि गुरु द्रोण भी जानते थे कि कौन किस विद्या को प्राप्त करने का अधिकारी है , एक निरीह श्वान पर अपनी विद्या का प्रयोग करने वाला धैर्यवान योद्धा हो ही नहीं सकता।

अब बात विधान, संविधान और अनुबंध की करते है-
प्रत्येक जीवन में, संस्था में, ग्राम, नगर,प्रान्त और राष्ट्र में संचालन विधान और संविधान अनुरूप होता है।
संचालन की सुस्पष्टता उसमें निहित संवैधानिक शक्तियों के कारण होती है। नियमों से बंधा जीवन अलंकार होता है।
कोई व्यक्ति हठ कर सकता है, किन्तु संस्था, राज्य, राष्ट्र हठी नहीं हो सकतें ,यदि ऐसा होता है तो उस संस्था, राज्य और राष्ट्र की अवनति तय है।
उसके संचालन हेतु बनाए गए नियमों को मानना ही होता है, उदाहरण के लिए कोई अति बुद्धिमान व्यक्ति यह कहता है कि केवल उसके लिए नियम बदल दो तो यह न संस्थान, राज्य या राष्ट्र के लिए संभव है, क्योंकि ये संवैधानिक व्यवस्था से चलने वाला तंत्र है।
संस्थान या राष्ट्र किसी का घर नहीं जो आपके व्यक्तिगत के लिए नियमों को ताक में रख दें।
उसके उपरांत भी व्यक्तिगत मदद की जा सकती है, किन्तु संस्थागत नियमों का उलंघन करके एक परिपाठी न बनाने की इच्छा भी संवैधानिक कमेटी की होती है।
नियमों को तोड़ने की प्रगाढ़ता चाहने वाले शाख से टूट जाया करते है और उसके बाद खुद के वजूद तलाशते रहते है।
वैसे जो संस्थान या राष्ट्र में दोगला चरित्र निभाते है, इधर-उधर की करने में जीते है, केवल अपना सम्मान, मंच औऱ पैगाम चाहते है वो भी तो कहाँ टिक पाते है। उनके हाथ क्या आता है वो भी जग जाहिर है। वो दो ही कोढ़ी के होते है, इसमें कोई शक भी नहीं है। यदि नियमों से बंधे रहें तो लहरों से भी मोहब्बत मिलती है, वरना ज्वार बनकर लहरें ही डूबा देती है। इसलिए संविधान और विधान का मान आवश्यक है।

*– डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’*

वह बिनती लोहा…. इंदौर के पथ पर

वह बीनती लोहा…. इंदौर के पथ पर

डॉ अर्पण  जैन ‘अविचल’

भरी दुपहरी में सूर्य के ताप को सहती, जिसके तन पर कपड़े भी मजबूरी ने फाड़ रखे हो, चेहरे की झुर्रियाँ उम्र की ढलान की ओर साफ तौर पर इशारा कर रही है, जिम्मेदारियों का बोझ उठाते-उठाते थके हुए कंधे जो पति के आवश्यकता के समय साथ छोड़ कर गौलोक की शरण लेना जता रहे हो, गंदी, मैली-कुचैली साड़ी केवल इसलिए पहनी हो क्योंकि एक ही साड़ी का अन्य विकल्प घर में नहीं होना है, बालों की लटों में जमी धूल समय के साधन और अपने गुरु ‘कर्म’ की व्यवस्था की सूचक बन रही हो, जो यह बताती है कि हर पल जिसका धूल से ही वास्ता है, पर सिर ढका होने से समाज की उन व्यवस्थाओं का भी निर्वाहन माना जा रहा है जिसमें पुरुष के सामने उघाड़े सिर न जाने की रवायत शामिल है। परंपराओं और समाज के तयशुदा खाकों में बंधी यह एक तस्वीर ही नहीं बल्कि कई सपनों और हकीकत के बीच की एक रेखा बनाती समग्र को अपने अंदर समेट कर इंदौर की जमीन पर महाराष्ट्र से आकर अपनी जमीन तलाश में अपनी उम्र गुजार देने का नाम है कमला बाई…..।

बात करने से पहले तो हिचकिचाती पर फिर कमला बाई बताती है कि वे मूलत: महाराष्ट्र के बुलढाना के पास की रहने वाली है और लगभग 82 वर्ष उम्र बताती है। सालों पहले पति और परिवार के साथ इंदूर (जिसे आज हम इंदौर के नाम से जानते है) की तरफ आई कमला बाई मालवी और मराठी सभ्यता का अनूठा मिश्रण बनकर अपनी बची हुई जिन्दगी को अलहदा मस्तानेपन के साथ जी रही है। न केवल जी रही है बल्कि व्यवस्थाओं के खिलाफ खड़ी अट्टालिका है।

इंदौर के ग्वालटोली इलाके के गैरेजों पर कचरे में एक बड़े चुम्बक के सहारे लोहा बीन कर उस कबाड़ को बेच कर लगभग 70-80 रु प्रतिदिन कमाकर अपना खाना चौका चला लेती है कमला बाई । वह चुम्बक भी कमलाबाई के संघर्ष का गवाह भी है, और देखा जाये तो वही चुम्बक ही संतान की भांति कमलाबाई के जीवन निर्वहन का सहारा भी है।
लगभग 70-80 रुपयें में दोनों समय केवल खुद का भोजन बना कर एक झोपड़े में गुजारा करने के बाद भी ‘भीख मांगना’ जैसी अघोषित ‘व्यवस्था’ का सहारा न लेने वाली कमलाबाई अपने आप में स्वालंबन और स्वाभिमानी होने का अदम्य परिचय है। समाज की निर्वासित व्यवस्थाओं के बीच अधर में लटकती शक्ति की आभा जिसके ह्रदय में इन व्यवस्थाओं के प्रति धधकता शोला तो है पर महलों में बैठ समर भवानी देखने वालों के मुँह पर तमाचा भी है।

मार…. मार… इसका अपराध है कचरा बीनना

इसी बीच इंदौर की सामंतवादी व्यवस्था के रहनुमा जो शहर की व्यवस्था में लगे कर्मचारी न हो कर स्वयं को शहर का राजा मानते हो, उन्होंने चिमनबाग में कचरा बीनने वालों को पकड़ा और थप्पड़ भी मारे,
अहो! क्या यह इंदौर है जहाँ अपनी खीज या नाकामी को छुपाने के लिए निहत्थे और निरीह लोगों पर अपना शक्ति प्रदर्शन किया जाता हो?
ये टिड्डीदल किस समाज का निर्माण कर रहा है? ये भी नहीं जानते कि जिस ‘मार…. मार……’ का नभभेदी जयकारा लगा रहे हो, उसके लिए पहले व्यवस्थाओं का निर्माण तो किया होता। वाह रे निखट्टुओं, किस बुते पर जवान मर्द बनने कर दम्भ भरते हो। इन टिड्डीदलों के खिलाफ हुँकार भी भरना होगा और फिर इनके विरुद्ध तो गौरा जैसे योद्धाओं के कबंध भी लड़ जाएंगे।
अपनी नाकामियों को कचरा बीनने वाले, बच्चों, बुजुर्गो, निरीह लोगो पर हाथ उठा कर बल प्रयोग कर रहे हो? औकात है तो शहर के बड़े गुण्डों कम राजनेताओं के मोहल्ले में भी जा कर कुछ बोल कर भी दिखाओं, वह हो रही कानून की धुनाई पर आवाज तो उठाओ, अपना अधिकारीपना थोड़ा तो दिखाओ.. तब तो देखे तुम्हारी मर्दानगी…

डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’

पत्रकार एवं स्तंभकार

संपर्क०७०६७४५५४५५

अणुडाकarpan455@gmail.com

अंतरताना:www.arpanjain.com

[लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान,भाषासमन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं ]

 

सूतक लग चुका है… सनद रहें

सूतक लग चुका है…. सनद रहें

–डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’

चुनावी मौसम खुमार पर आया, शहर के व्यस्ततम क्षेत्र राजवाड़े से माँ अहिल्या की प्रतिमा पर पहले बम के संदेह में जाँच करवाने के बाद भाजपा के मुखिया अमित शाह ने अपने चुनावी अभियान के तहत सड़क मार्ग से जनसंपर्क अभियान का प्रारंभ कर दिया ।
व्यवस्था में खुमार आया ही था कि खबरें चलने लगी… चुनाव की तारीख घोषित और आज से सूतक यानि आचार संहिता लागू…
सूतक के घोषित होते ही हल्ला बोल शुरु हो गया… वैसे भी 250 से 300 रुपये की मजदूरी वाले झण्डे उठाने के लिए लाए तो गए… पर यकीनन सामने कमजोर विपक्ष होने से सब गौण या कहें मौन हो गया।
भीड़ तन्त्र भी टिकट मांगने वालों का शक्ति प्रदर्शन ही रहा… न जाने क्यों राजनीति की दिशा में धनकुबेरों का कब्जा हो गया…
हालांकि रैली तो होमी दाजी के समय भी हुई थी… और राजवाड़े के विक्रेताओं का भी अपना दौर रहा… भला हो इंदौरी सफेद शेर का वर्ना तब ही राजवाड़े की रजिस्ट्री हो जाती… और हाथ मलते भिया…
बहरहाल हम तो बात कर रहें है सूतक यानी आचार की शासकीय संहिता की… विचार जहाँ तमाशाबीन है और शुचिता का गला घोटा जा चुका है…
शाम ढलते ही श्रीनगर कांकड़ में लगे बैनर हटाए जाने लगे… वैसे मामला तो आपसी विवाद का था पर रंग तो सूतक का चड़ा दिया…
खैर…. सूतक के राजवंश को मौका मिल गया अपनी दादागिरी दिखाने का…. और दिखाएं भी क्यों नहीं… जब जनप्रतिनिधि किसी को जानते ही नहीं और अपनी नाकामी को छुपाने के लिए शहर में नया आया बताने से भी गुरेज कहाँ करते है… और अपने गंदे धन्धे पर गला भी कर्मचारी का फँसा देते है और पिसती तो बैचारी जनता ही है….
सूतक की महामाया का दौर है, सूतक के नाम पर पूर्व में करवाएं गए कार्यों का भुगतान भी लंबित हो सकता है और अटक सकती है तनख्वाह भी…. क्योंकि अपने ही बादशाह और अपने वजीर है…
नज़र तो केवल जनता ही नहीं आती… भोजन, भण्डारे, यात्रा, सामग्री वितरण सब बंद कर दो भिया…. वर्ना सूतक तो ठहरा सूतक……

कमजोर विपक्ष का फायदा मिलेगा, पर फिर भी एक अदद दरकार रहेगी शुचिता की… वर्ना भिया तो ठहरे सनकी… न जाने कब निर्दलीय को जीता दे…

*सूतक के मजे लीजिए… दे दनादन दे…..*
*सूतक तो लग गया है… सनद रहें….*

*डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’*
खबर हलचल न्यूज, इंदौर
www.arpanjain.com

हिन्दी के सम्मान में, हर भारतीय मैदान में जैसी अलख जगाने वाले का नाम डॉ जैन

कहानी:

अनथक हिन्दी योद्धा डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’ से खास भेंट

हिन्दी के सम्मान में, हर भारतीय मैदान में जैसी अलख जगाने वाले का नाम डॉ जैन

कहानी एक ऐसे व्यक्ति की जो हिन्दी भाषा को भारत में ही सम्मान स्वरुप राष्ट्रभाषा बनाने के लिए संघर्षरत है, जो संगणक विज्ञान अभियंता होने के बावजूद स्थापित पत्रकारिता की उसके बाद भी हिन्दी माँ के प्रति जवाबदेही से कार्य कर रहे है। एक ऐसा शख्स जो हिन्दी को भारत में रोजगार मूलक भाषा बनाने के लिए प्रतिबद्ध है।

 भारत माँ के स्वाभिमान पर जब-जब भी आँच आई है तब-तब धरा पर सपूतों का जन्म हुआ है, ऐसे ही सपूत का जन्म २९ अप्रैल १९८९ शनिवार को मध्यप्रदेश के सेंधवा में पिता सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा की कुक्षी से एक क्रांतिकारी पुत्र का जन्म हुआ जिनका नाम अर्पण रखा गया। अर्पण अपने माता-पिता के दो बच्चों में से सबसे बड़े हैं। उनकी एक छोटी बहन नेहल हैं। उनके पिता सुरेश जैन गृह और सड़क निर्माण का कार्य करते है। आपके दादा बाबूलालजी एक राजनैतिक व्यक्तित्व रहे। अर्पण जैन मध्यप्रदेश के धार जिले की छोटी-सी तहसील कुक्षी में पले बड़े, आरंभिक शिक्षा कुक्षी के वर्धमान जैन हाईस्कूल और शा. बा. उ. मा. विद्यालय कुक्षी में हासिल की, तथा फिर इंदौर में जाकर राजीव गाँधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्धयालय के अंतर्गत एसएटीएम महाविद्यालय से संगणक विज्ञान (कम्प्यूटर साइंस) में बेचलर ऑफ इंजीनियरिंग (बीई-कंप्यूटर साइंस) में स्नातक की पढ़ाई के दौरान ही अर्पण जैन ने सॉफ्टवेयर व वेबसाईट का निर्माण शुरू कर दिया था। इसी दौरान सॉफ्टवेयर कंपनी में नौकरी भी की। पिता के कारोबार में रूचि न होने और अपनी अलग दुनिया बनाने की इच्छाशक्ति ने अर्पण को तकनिकी योद्धा बनाया।

एक मध्यवर्गीय परिवार से आने वाले किसी भी शख्स का सपना क्या होता है? यही न कि एक अच्छी शिक्षा प्राप्त करने के बाद मोटी रकम वाली सम्मानजनक नौकरी मिल जाए। लेकिन अर्पण अपनी इस 9 से 5 वाली और मोटे वेतन वाली नौकरी से संतुष्ट नहीं थे। एक दिन उन्होंने अपने सुविधा क्षेत्र से बाहर निकलने का फैसला किया और अपना खुद का उद्यम शुरू किया। सपने बड़े होने के कारण स्वयं की कंपनी बनाने का ख्वाब पूरा करने में अर्पण जुटे तो सही परन्तु दो माह बिना नौकरी के भी घर पर ही भविष्य की रणनीति बनाने के दौरान सभी बचत ख़त्म कर चुके अर्पण के जेब में मात्र १५० रुपये ही बचे थे। मात्र १५० रुपये लेकर ११ जनवरी २०१० को ‘सेन्स टेक्नोलॉजीस की शुरुआत हुई, अर्पण ने फॉरेन ट्रेड में एमबीए किया, तथा पत्रकारिता के शौक के चलते एम.जे. की पढाई भी की है। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’  पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। समाचारों की दुनिया ही उनकी असली दुनिया थी, जिसके लिए उन्होंने सॉफ्टवेयर के व्यापार के साथ ही खबर हलचल वेब मीडिया की स्थापना की और इसे भारत की सबसे तेज वेब चैनल कंपनियों में से एक बना दिया। सेंस टेक्नॉलजीस और खबर हलचल न्यूज भारत के लगभग 29 राज्यों में २०० से ज़्यादा लोगो के दल के साथ कार्यरत पंजीकृत कंपनी है।

इसी दौरान पत्रकारिता के उन्नयन हेतु कई पत्रकारिता संगठन में कार्य किया जैसे श्रमजीवी पत्रकार परिषद में बतौर महासचिव, इंदौर प्रेस क्लब, सेव जर्नलिस्म संस्थान के सदस्य आदि। इसके बाद पत्रकार संचार परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष का दायित्व भी संभाला। आप राष्ट्रीय मानव अधिकार परिषद महासंघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रहे।

वर्ष २०१५ में शिखा जैन जी से उनका विवाह हुआ। विवाह उपरांत भी तन्मयता से पत्रकारिता और भाषा के सौंदर्य को स्थापित करने के लिए श्री जैन सतत संघर्षरत रहे। आपने अपनी कविताओं, आलेखों के माध्यम से भी समाज की पीड़ा, परिवेश का साहस और व्यवस्थाओं के खिलाफ तंज़ को बखूबी उकेरा हैं और आलेखों में ज़्यादातर पत्रकारिता के आधार आंचलिक पत्रकारिता और समाज के लिए ज़्यादा लिखा हैं।

अर्पण ने व्यापार के दूसरे क्षेत्रों में भी उत्कृष्ट सफलताएँ प्राप्त की हैं। पत्रकारिता से अपने गहरे सरोकार को दर्शाते हुए उन्होंने भारत के पत्रकारों के लिए पहली सोशल नेटवर्किंग साइट ‘इंडियनरिपोर्टर्स.कॉम (www.IndianReporters.com)’ बनाई, जिसके फलस्वरूप पंजाब, उत्तराखंड और सिक्किम जैसे भारत के सभी राज्यों के पत्रकार जुड़े हुए हैं। जैन ने कई संस्थाओं के साथ जुड़ कर पत्रकारिता के क्षेत्र में भी और अन्य सामाजिक कार्यों और जनहितार्थ आंदोलनों में भी सक्रिय भूमिका निभाई है।

समाचारों की दुनिया से जुड़े होने के कारण अर्पण का हिन्दी प्रेम प्रगाड़ होता चला गया, इसी के चलते वर्ष २०१६ में अर्पण ने मातृभाषा.कॉम की शुरुआत की और फिर तब से लेकर आज तक हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने के लिए प्रतिबद्ध होकर कार्यरत रहे। इस दौरान भारत के विभिन्न राज्यों में हिन्दी भाषा के महत्व को स्थापित करने के लिए यात्राएँ की, जनमानस को हिन्दी से जोड़ा, और मातृभाषा उन्नयन संस्थान और हिन्दी ग्राम की स्थापना की। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए सतत प्रयासरत है, इसी प्रकल्प में योगगुरु और पतंजलि योगपीठ के सूत्रधार स्वामी रामदेव जी का आशीर्वाद मिला। वर्तमान में हिन्दी के गौरव की स्थापना हेतु व हिन्दी भाषा को राजभाषा से राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए संघर्षरत डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ भारतभर में इकाइयों का गठन करके आंदोलन का सूत्रपात कर रहे हैं, और वे मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी है और हिन्दी ग्राम के संस्थापक भी हैं। डॉ. वेद प्रताप वैदिक के संरक्षण में संस्थान देश भर में हस्ताक्षर बदलो अभियान संचालित कर रही हैं। हिन्दी योद्धा, संगणक योद्धा और संवाद सेतु के माध्यम से सम्पूर्ण भारत में हिन्दी का प्रचार प्रयास कर रहे है।

डॉ अर्पण जैन अविचल का ध्येय वाक्य है ‘हिन्दी के सम्मान में, हर भारतीय मैदान में’ इसी को सम्पूर्ण राष्ट्र का समर्थन मिल रहा है। डॉ जैन ‘एक घंटा राष्ट्र को, एक घंटा देह को और एक घंटा हिन्दी को’ जैसा आव्हान भी जनता से कर रहे है, जिसे भरपूर समर्थन मिल रहा है।

डॉ अर्पण जैन अविचल कहते है कि ‘हिन्दी भाषा भारत की सांस्कृतिक अखंडता को मजबूत करने में अग्रणी कारक है, हिन्दी के माध्यम से ही भारत के संस्कार बचे है क्योंकि हमारे राष्ट्र में संस्कार देने दादी-नानी की कहानियां महनीय भूमिका अदा करती है, ऐसे में दादी-नानी की कहानियों की भाषा हिन्दी है, इसलिए हिन्दी युग के निर्माण हेतु हिन्दी का संरक्षण और प्रचार-प्रसार आवश्यक है। तभी भारत के संस्कार बचेंगे और भारत बचेगा वर्ना गुलामी की स्थिति बनेगी।’

हिन्दी भाषा को प्रचारित एवं प्रसारित करने के उद्देश्य से ग्राम, नगर प्रान्त में श्री जैन व्याख्यान, परिचर्चा , गोष्ठियां आदि करते है, जनमानस को हिन्दी का महत्व समझाते हुए उसके राष्ट्रभाषा बनने के कारण बताते है और जनजागृति लाते है। वर्तमान में डॉ अर्पण जैन व मातृभाषा उन्नयन संस्थान की प्रेरणा से  लगभग ४ लाख से अधिक लोगों में प्रामाणिक रूप से अपने हस्ताक्षर हिन्दी में करना प्रारंभ कर दिए है। डॉ अर्पण जैन के हिन्दी आंदोलन का महत्वपूर्ण हिस्सा डॉ प्रीति सुराना है जिन्हे डॉ जैन अपना प्रेरणा पुंज बताते है। इन्ही के साथ उनके अभिन्न मित्र और उप सैनानी कमलेश कमल जी भी है जो हिन्दी जे मानकीकरण पर कार्य कर रहे है और देश भर में कमल की कलम के माध्यम से हिन्दी को शुद्ध करने की दिशा में प्रयासरत है।

डॉ जैन से जब भी पूछों कि जीवन जीने का उद्देश्य क्या है, तब उनका एक ही जवाब होता है ‘हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने में हमारा योगदान दर्शक का नहीं बल्कि कार्यकर्ता का हो, हमें तमाशा देखने वाला न समझा जाए, जब भी याद किया जाए तब ये कहा जाए कि ये लोग घरों में बैठे नहीं थे, इन्होने काम किया है।’

जिन लोगो से आप प्रेरणा पाते है उनकी सूची में शामिल है- सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, बाबा नागार्जुन, रामधारी सिंह दिनकर, बाबू विष्णु पाराडकर, गणेशचंद्र विद्धयार्थी, प. दीनदयाल उपाध्याय ( एकात्मवाद के कारण), डॉ. अबुल पॅकिर जेनुलआबदीन अब्दुल कलाम, राजेंद्र माथुर (रज्जु बाबू), राहुल बारपुते, स्वदेशी प्रवर्तक राजीव दीक्षित, धीरू भाई अंबानी( रिलायंस), वारेन बफ़ेट(बर्कले हैथशायर), स्टीव जॉब्स (एपल), डॉ. प्रीति सुराना (अंतरा शब्दशक्ति)।

हिन्दी को राष्ट्रभाषा ही नहीं वरन जनभाषा बनाना जिसका मूल ध्येय हो ऐसी शख्सियत समाज में सदैव अपने कार्यों से समाज को प्रेरित करती है। और इस जीवन के होने के उद्देश्य को पूरा भी।

स्तरहीन कवि सम्मेलनों से हो रहा हिन्दी की गरिमा पर आघात

स्तरहीन कवि सम्मेलनों से हो रहा हिन्दी की गरिमा पर आघात

डॉ. अर्पण जैन अविचल

कवि सम्मेलनों का समृद्धशाली इतिहास लगभग सन १९२० माना जाता हैं । वो भी जन सामान्य को काव्य गरिमा के आलोक से जोड़ कर देशप्रेम प्रस्तावित करना| चूँकि उस दौर में भारत में जन समूह के एकत्रीकरण के लिए बहाने काम ही हुआ करते थे, जिसमें लोग सहजता से आएं और वहां क्रांति का स्वर फूंका जा सके|  उसके बाद कवि सम्मेलन भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग बन गए। उस मुद्दे के बाद कवि  सम्मेलनों में नौ रसों को शामिल करने की कवायद शुरू हुई| भारत में स्वाधीनता के बाद से ८० के दशक के आरम्भिक दिनों तक कवि सम्मेलनों का ‘स्वर्णिम काल’ कहा जा सकता है। ८० के दशक के उत्तरार्ध से ९० के दशक के अंत तक भारत का युवा बेरोज़गारी जैसी कई समस्याओं में उलझा रहा। इसका प्रभाव कवि-सम्मेलनों पर भी हुआ और भारत का युवा वर्ग इस कला से दूर होता गया। मनोरंजन के नए उपकरण जैसे टेलीविज़न और बाद में इंटरनेट ने सर्कस, जादू के शो और नाटक की ही तरह कवि सम्मेलनों पर भी भारी प्रभाव डाला। कवि सम्मेलन संख्या और गुणवत्ता, दोनों ही दृष्टि से कमज़ोर होते चले गए। श्रोताओं की संख्या में भी भारी गिरावट आई। इसका मुख्य कारण यह था कि विभिन्न समस्याओं से घिरे युवा दोबारा कवि-सम्मेलन की ओर नहीं लौटे। साथ ही उन दिनों भीड़ में जमने वाले उत्कृष्ट कवियों की कमी थी। लेकिन नई सहस्त्राब्दी के आरम्भ होते ही इंटरनेटयुगिन युवा पीढ़ी, जो कि अपना अधिकांश समय इंटरनेट पर गुज़ार देती हैं वह कवि सम्मेलन को पसन्द करने लगी। इसी युग में काव्य को कई कवियों ने सहजता और सरलता से आम जनमानस की भाषा में लिखकर काव्य किताबों से निकल कर मंचो पर सजने लगा |

२००४ से लेकर २०१० तक का काल हिन्दी कवि सम्मेलन का दूसरा स्वर्णिम काल भी कहा जा सकता है। श्रोताओं की तेज़ी से बढती हुई संख्या, गुणवत्ता वाले कवियों का आगमन और सबसे बढ़के, युवाओं का इस कला से वापस जुड़ना इस बात की पुष्टि करता है। पारम्परिक रूप से कवि सम्मेलन सामाजिक कार्यक्रमों, सरकारी कार्यक्रमों, निजी कार्यक्रमों और गिने चुने कार्पोरेट उत्सवों तक सीमित थे। लेकिन इक्कईसवीं शताब्दी के आरम्भ में शैक्षिक संस्थाओं में इसकी बढती संख्या प्रभावित करने वाली है। जिन शैक्षिक संस्थाओं में कवि-सम्मेलन होते हैं, उनमें आई आई टी, आई आई एम, एन आई टी, विश्वविद्यालय, इंजीनियरिंग, मेडिकल, प्रबंधन और अन्य संस्थान शामिल हैं। उपरोक्त सूचनाएं इस बात की तरफ़ इशारा करती है, कि कवि सम्मेलनों का रूप बदल रहा, परन्तु इसी दौर में साहित्यिक शुचिता का वो हश्र भी हुआ की भारत की संस्कृति में एक हवा बाजारवादी और विज्ञापनवादी संस्कृति की भी घुस गई जिसने स्ट्रीक को भोग्य समझा और उसी के साथ चुहल करने को साहित्य का नाम देकर काव्य से परिवारों को तोड़ दिया |इसी दौर में डॉ उर्मिलेश ने लिखा हैं

तुम अगर कवि हो तो मेरा ये निवेदन सुन लो,

खोल कर कान जरा वक्त की धड़कन सुन लो,

तुम और न ये श्रृंगार न लिखो गीतों

तुम न अब प्यार या श्रृंगार लिखो गीतों

वक्त की मांग हैं अंगार लिखों गीतों में

सिर्फ कुंठाओं की अभिव्यक्ति नहीं है कविता

काम क्रीड़ाओं की आसक्ति नहीं है कविता

कविता हर देश की तस्वीर हुआ करती हैं

निहत्थे लोगो की शमशीर हुआ करती हैं…

तुम भी शमशीर या तलवार लिखों गीतों में

वक्त की मांग हैं अंगार लिखों गीतों में

इसी कविता में डॉ. उर्मिलेश कहते हैं कि जवानी को नपुंसक न बनाओं कवियों.. आखिर क्यों आवश्यकता आन पड़ी इस पंक्तियों को लिखने की ?  जरूर मंचों से वाग्देवी की पुत्रियों द्वारा पड़े श्रृंगार पर छींटाकशी ने उनके भी ह्रदय को विदारित किया ही होगा, इसीलिए उन्होंने श्रृंगार विहीन मंच की बात कही होगी, क्योंकि डॉ उर्मिलेश कोई कमजर्फ तो नहीं थे, बल्कि उस दौर के नायक रहें हैं। पहले उसके बोलो पर ग़ज़लों की बहर कही जा सकती थी, अब उन्ही बोलों की इशारा माना जाने लगा है और न जाने क्यों सीमाएं लांघी जाने लगी है। कवि सम्मेलनों के स्तरहीन होने पर अब सूरज को भी युगधर्म सीखने का समय है| कवि कुमार विश्वास की कविता की पंक्तियाँ यही कहती है कि-

तम शाश्वत है, रात अमर है, गिरवी पड़े उजाले बोले,

सूरज को युगधर्म सिखाते, अंधियारों के पाले बोले

चीर-हरण पर मौन साधते,प्रखर मुखों के ताले बोले

बधिरों के हित  रचें युग ऋचा, वाणी के रखवाले बोले

नितांत आवश्यक प्रश्न हैं कि वर्तमान में कवि सम्मेलनों के स्तरहीन होने पर वाणी के रखवाले क्यों खामोश है ? और सबसे पहले तो ये हो क्यों रहा हैं ? उपभोक्तावादी कविसम्मेलनों में लगातार आयोजक और संयोजक मिलकर कविता को धनपशुओं की रखैल बनाने पर आमद हो रहे हैं|वर्तमान में हिन्दी कवि सम्मेलनों में स्तरहीनता होने के पीछे कवि, संयोजक और आयोजको के साथ-साथ हिन्दी के पाठक और श्रोता भी जिम्मेदार हैं| क्योंकि आप ही यदि विरोध नहीं करेंगे तो प्रतिध्वनियों के कोलाहल पर ध्वनियों का मौन हो जाना ही स्वीकृति देने सामान हैं | यहाँ चुप्पी, चीखों का हल नहीं हैं|  स्त्री को भोग्या मानना और उसका उपहास उड़ाने के बाद भी द्विअर्थी संवादों के बहाने सम्पूर्ण नारी जाती को कटघरे में खड़ा करने में जिम्मेदार कुछ एक कवियत्रियाँ भी हैं जो सस्ती लोकप्रिय और ज्यादा काम पाने की लालसा में सरस्वती के मंच को वैश्यालय बनाने से बाज नहीं आ रही हैं |

हिन्दी  भाषा के रचनाकार इतने अभागे नहीं है कि अपने घर की बहन-बेटियों को आयोजकों और संयोजकों को परोसकर अपना घर चलाए , फिर क्यों वे आशा करते है भारत की बेटियों से कि वो स्वयं को परोसे और फिर कवि सम्मलेन से रोजगार और प्रसिद्धि पाएं | मंचों पर शब्दबाणों से कविता के साथ-साथ स्त्री का भी चीर-हरण होता हैं, और सभा में बैठे धृतराष्ट्र मुँह फाड़ -फाड़ कर ठिठोली करते हुए असंख्य दुःशासनों के हौसलों को बढ़ा रहें हैं, इस तरह से तो हिन्दी कवि सम्मेलनों और मुजरों में फर्क ही कहा रह जाएगा |

पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला
घेर ले छाया अमा बन
आज कंजलअश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन

निश्चित तौर पर आ. महादेवी वर्मा जी की कविता की प्रथम पंक्ति में ही समाधान के संग्रह को समाहित कर लिया गया है, इस समस्या का सीधा-सा समाधान हैं, या तो ऐसे कवि सम्मेलनों का बहिष्कार हो जहाँ द्विअर्थी संवादों के सहारे कविता के नाम पर फुहड़ता परोसी जा रही हो, या फिर उसी मंच पर फूहड़ या अभद्र होने वाले दुस्शासन हों तमाचा रसीद किया जाए, क्योंकि आपके भी घर में माँ-बेटी होती है और यदि कोई कवियत्री फुहड़ता परोसने में सहभागी बन रही हो तो हाथ-पकड़ कर मंच से उतरा जाए, क्योंकि मंच सरस्वती का मंदिर है, नगरवधुओं का घर नहीं| यदि देश के ५-१० कवि सम्मेलनों में भी ऐसा हो गया तो निश्चित तौर पर अन्य दलालों को शिक्षा मिल जाएगी| हिन्दी के श्रोताओं को जागना होगा यदि  हम न जागे तो हिन्दी के मंचों से ही हिन्दी की दुर्दशा का स्वर्णिम अध्याय लिखा जाएगा |

डॉ. अर्पण जैनअविचल

पत्रकार एवं स्तंभकार

संपर्क: ०७०६७४५५४५५

अणुडाक: arpan455@gmail.com

अंतरताना:www.arpanjain.com

[ लेखक डॉ. अर्पण जैनअविचलमातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं| ]

एक साक्षात्कार – डॉ अर्पण जैन अविचल का…

नाम: डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

पिता: श्री सुरेश जैन

माता: श्रीमती शोभा जैन

पत्नी: श्रीमती शिखा जैन

जन्म: २९ अप्रैल १९८९

शिक्षा: बीई (संगणक विज्ञान अभियांत्रिकी)

एमबीए (इंटरनेशनल बिजनेस)

पीएचडी- भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ

पुस्तकें:

१. मेरे आंचलिक पत्रकार ( आंचलिक पत्रकारिता पर केंद्रित पुस्तक )

२. काव्यपथ ( काव्य संग्रह)

३. राष्ट्रभाषा (तर्क और विवेचना)

४. नव त्रिभाषा सूत्र (भारत की आवश्यकता)

साझा संग्रह:

१ मातृभाषा – एक युग मंच ( साझा काव्य) संग्रह

२. मातृभाषा. कॉम ( साझा काव्य संग्रह )

३. मरीचिका ( साझा काव्य संग्रह )
४. विचार मंथन ( साझा आलेख संग्रह )

५. कथा सेतु ( साझा लघुकथा संग्रह)

संपादन: मातृभाषा.कॉम

दायित्व:

राष्ट्रीय अध्यक्ष- मातृभाषा उन्नयन संस्थान

राष्ट्रीय अध्यक्ष- पत्रकार संचार परिषद

राष्ट्रीय उपाध्यक्ष- राष्ट्रीय मानव अधिकार परिषद महासंघ

अध्यक्ष- सेंस फाउंडडेशन

सदस्य- इंदौर प्रेस क्लब

सदस्य- फिल्म डायरेक्टर एसोसिएशन, मुंबई

 पत्रकारिता:

प्रधान संपादक- खबर हलचल न्यूज ( साप्ताहिक अख़बार)

प्रधान संपादक- के एन आई न्यूज ( न्यूज एजेंसी)

प्रधान संपादक- मधुकर संदेश

 व्यवसाय:

समूह सह संस्थापक- सेंस समूह

मुख्य कार्यकारी निदेशक- सेंस टेक्नॉलोजिस

संस्थापक- मातृभाषा.कॉम

संस्थापक- हिन्दीग्राम

संस्थापक- इंडियन रिपोर्टर्स

संपर्क: +९१- ७०६७४५५४५५ | +९१-९४०६६५३००५ | +९१-९८९३८७७४५५

अणुडाक: arpan455@gmail.com | अंतरताना:  www.arpanjain.com

पता: एस-२०७, नवीन परिसर, इंदौर प्रेस क्लब, म.गां. मार्ग , इंदौर (मध्यप्रदेश) ४५२००१

सम्मान:
1. पत्रकार विभूषण अलंकरण (आईजा, मुंबई)
2. गणेश शंकर विद्यार्थी श्रेष्ठ पत्रकार सम्मान ( गणेश शंकर विद्यार्थी प्रेस क्लब, इंदौर इकाई)
3. नगर रत्न अलंकरण ( इंदौर )
4. काव्य प्रतिभा सम्मान (इंदौर)
5. Leaders of Tomorrow Award (Indiamart, Mumbai)
6. नेशन प्राईड, इंडिया एक्सीलेंस अवार्ड ( प्रतिमा रक्षा मंच, दिल्ली)

  1. हिन्दी साहित्य रत्न सम्मान (साहित्य संगम संस्थान, तिरोड़ी) ….. आदि

जीवन परिचय: डॉ.  अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्यप्रदेश के धार जिले की छोटी-सी तहसील कुक्षी में पले बड़े, और फिर आर्थिक राजधानी इंदौर में शिक्षा-दीक्षा लेकर पत्रकारिता जगत में कदम रखते हुए व्यवसायी बनें हैं |  29 अप्रैल, 1989 को कुक्षी में जन्मे अर्पण अपने माता-पिता के दो बच्चों में से सबसे बड़े हैं। उनकी एक छोटी बहन हैं। उनके पिता सुरेश जैन बिल्डिंग और सड़क निर्माण का कार्य करते है। परन्तु पिता के कारोबार में रूचि न होने और अपनी अलग दुनिया बनाने के ख्वाइश ने अर्पण को टेक्नोक्रेट बना दिया |

अर्पण जैन ने आरंभिक शिक्षा कुक्षी के वर्धमान जैन हाईस्कूल और शा. बा. उ. मा. विद्धयालय कुक्षी में हासिल की, तथा फिर इंदौर में जाकर राजीव गाँधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्धयालय के अंतर्गत एसएटीएम कॉलेज से कम्प्यूटर साइंस में बेचलर ऑफ इंजीनियरिंग (बीई-कंप्यूटर साइंस) में ग्रेजुएशन की पढ़ाई के दौरान ही अर्पण जैन ने सॉफ्टवेयर व वेबसाईट का निर्माण शुरू कर दिया था। इसी दौरान सॉफ्टवेयर कंपनी में नौकरी भी की |

एक मध्यवर्गीय परिवार से आने वाले किसी भी शख्स का सपना क्या होता है? यही न कि एक अच्छी शिक्षा प्राप्त करने के बाद मोटी रकम वाली सम्मानजनक नौकरी मिल जाए। लेकिन अर्पण अपनी इस 9 से 5 वाली और मौटे वेतन वाली नौकरी से संतुष्ट नहीं थे। एक दिन उन्होंने अपने कंफर्ट क्षेत्र से बाहर निकलने का फैसला किया और अपना खुद का उद्यम शुरू किया। सपने बड़े होने के कारण स्वयं की कंपनी बनाने का ख्वाब पूरा करने में अर्पण जुटे तो सही परन्तु दो माह बिना नौकरी के भी घर पर ही भविष्य की रणनीति बनाने के दौरान सभी बचत ख़त्म कर चुके अर्पण के जेब में मात्र १५० रुपये ही बचे थे | मात्र १५० रुपये लेकर ११ जनवरी २०१० को ‘सेन्स टेक्नोलॉजीस’ की शुरुआत हुई, अर्पण ने फॉरेन ट्रेड में एमबीए किया,तथा पत्रकारिता के शौक के चलते एम.जे. की पढाई भी की है | समाचारों की दुनिया ही उनकी असली दुनिया थी, जिसके लिए उन्होंने सॉफ्टवेयर के व्यापार के साथ ही खबर हलचल वेब मीडिया की स्थापना की और इसे भारत की सबसे तेज वेब चेनल कंपनियों में से एक बना दिया। साथ ही ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनोतियाँ’ पर ही अर्पण ने अपना शोध कार्य किया है| सेंस टेक्नॉलजीस और खबर हलचल न्यूज भारत के लगभग 29 राज्यों में 180 से ज़्यादा लोगो की टीम के साथ कार्यरत पंजीकृत कंपनी है।

अर्पण जैन ‘अविचल’ ने अपने कविताओं के माध्यम से भी समाज में स्त्री की पीड़ा, परिवेश का साहस और व्यवस्थाओं के खिलाफ तंज़ को बखूबी उकेरा हैं और आलेखों में ज़्यादातर पत्रकारिता के आधार आंचलिक पत्रकारिता को ज़्यादा लिखा हैं |

अर्पण ने व्यापार के दूसरे क्षेत्रों में भी उत्कृष्ट सफलताएँ प्राप्त की हैं। पत्रकारिता से अपने गहरे सरोकार को दर्शाते हुए उन्होंने भारत के पत्रकारों के लिए पहली सोशल नेटवर्किंग साइट ‘इंडियनरिपोर्टर्स (www.IndianReporters.com)’  बनाई, जिसके फलस्वरूप पंजाब, उत्तराखंड और सिक्किम जैसे भारत के सभी राज्यों के पत्रकार जुड़े हुए हैं | जैन ने कई संस्थाओं के साथ जुड़ कर पत्रकारिता के क्षेत्र में भी और अन्य सामाजिक कार्यों और जनहितार्थ आंदोलनों में भी सक्रिय भूमिका निभाई है|

समाचारों की दुनिया से जुड़े होने के कारण अर्पण का हिन्दी प्रेम प्रगाड़ होता चला गया, इसी के चलते डॉ. अर्पण ने मातृभाषा.कॉम की शुरुआत की और फिर तब से लेकर आज तक हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने के लिए प्रतिबद्ध होकर कार्यरत रहे | इस दौरान भारत के विभिन्न राज्यों में हिन्दी भाषा के महत्व को स्थापित करने के लिए यात्राएँ की, जनमानस को हिन्दी से जोड़ा, और मातृभाषा उन्नयन संस्थान और हिन्दी ग्राम की स्थापना की | इसी प्रकल्प में योगगुरु और पतंजलि योगपीठ के सूत्रधार स्वामी रामदेव जी का आशीर्वाद मिला | वर्तमान में हिन्दी के गौरव की स्थापना हेतु व हिन्दी भाषा को राजभाषा से राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए संघर्षरत डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ भारतभर में इकाइयों का गठन करके आंदोलन का सूत्रपात कर रहे हैं, और वे मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी है और हिन्दी ग्राम के संस्थापक भी हैं | डॉ. वेद प्रताप वैदिक के संरक्षण में संस्थान देश भर में हस्ताक्षर बदलो अभियान संचालित कर रही हैं|

 व्यक्तित्व (कार्य करने का तरीका) : किसी भी परिस्थिति में न हारना न अपने समूह को हारने देने के मूल वाक्य की तरह ही डॉ. अर्पण जैन अविचल कार्य करते हैं | ज़िद करों- दुनिया बदलोको मैं अपना कर्म वाक्य मानता हूँ |

 संघर्ष काल- व्यापार के बालपन में ही संघर्ष का कठिन काल मेरे जीवन में आया जिस दौरान आर्थिक नुकसान भी बहुत उठाया, इसी दौरान मेरे माता-पिता और परिवार के सहयोग से पुन: स्थापित हो पाया और उसके बाद जीवन का लक्ष्य ही बदल गया | हिन्दी भाषा के गौरव की स्थापना का ध्येय भी इसी दौरान चुना|

सफलता का राज: ‘मेहनत इतनी खामोशी से करो, कि सफलता शौर मचा दें’ इसी तथ्य के साथ सतत मेहनत और श्रम किया जाए तो जीवन में असफलता कभी छू भी नहीं सकती |

सबसे बड़ी उपलब्धि: जीवन में सबसे पहली और बड़ी उपलब्धि यह रही की उम्र के मात्र २१वें वर्ष में ही जिस प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में कार्य किया उसे खरीद कर अपनी ज़िद को साबित किया | फिर महज ५ वर्षों में ही पत्रकारिता जगत से लेकर साहित्य की दुनिया में एक अदद पहचान कायम कर सकने में कामयाब रहा |

भविष्य की योजना: वैसे तो अब संपूर्ण जीवन ही हिन्दी की सेवा में समर्पित कर चुका हूँ तो इसी तारतम्य में हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करवाना तथा हिन्दी को संपूर्ण राष्ट्र के अभिमान स्वरूप जनभाषा के रूप में स्थापित करवाने में हर संभव गतिशील रहना ही मेरे भविष्य की योजनाओं में शामिल हैं| साथ ही भारत में पत्रकारिता की शुचिता हेतु कार्य करना भी लक्ष्य हैं |

समाज को संदेश: समाज में निरंतर मानवता की हत्या सारे आम हो रही है, सबसे पहले हम भी मानव बने और बच्चों को मानव बनाएँ | इसके बाद हमेशा ज़िद करो तभी दुनिया बदलने का माद्दा रख पाओगे | क्योंकि ये दुनिया जिद्दी व्यक्तियों ने ही बदली है, बाकी ने उन जिद्दी लोगों का अनुसरण ही किया है | मेहनत का कोई अन्य विकल्प नहीं होता, केवल भाग्य के भरोसे या शार्टकट से कोई सफलता नहीं मिलती|

प्रकाशित पुस्तकें ही है लेखक की पहचान

*प्रकाशित पुस्तकें ही है लेखक की पहचान*

पुस्तक सर्वदा बहुत अच्छी मित्र होती है, इसके पीछे एक कारण यह है कि पुस्तक ही किसी सृजक के उपलब्ध ज्ञान का निष्कर्ष होती है।
जब तक लेखक किसी विषय को गहनता से अध्ययन नहीं कर लेता उस पर लेखन उसके लिए संभव नहीं है और गहराई से ग्रहण किए ज्ञान का निचोड़ ही उसके सृजन में उसकी मेधा का परिचय देता है।
वर्तमान समय में प्रत्येक पांचवाँ व्यक्ति एक कवि, लेखक या अन्य विधा का सृजक बनता जा रहा है, क्योंकि इस समय चलन है इंटरनेट व सोशल मीडिया का। बात यदि हिन्दी लेखन की ही की जाए तो वर्तमान में 2000 से अधिक अंतरताने उपलब्ध हैं जहाँ आप अपनी रचनाओं को स्थान दिलवा सकते है, जैसे अमरउजाला.कॉम, हिन्दीलेखक, गद्धकोश, मातृभाषा.कॉम, प्रतिलिपी, कविताकोश, प्रवक्ता, भारतवार्ता, आदि के साथ-साथ फेसबुक, ट्वीटर, इंस्टाग्राम भी है परन्तु इन सबके अतिरिक्त एक शौकिया या व्यावसायिक लेखक के तौर पर मिलने वाली पहचान की मुहर आपके द्वारा लिखी पुस्तक से ही मिल सकती है।
और वर्तमान समय में वो दौर भी खत्म सा हो गया जब प्रकाशक ही लेखकों को खोजते थे, अब लेखक स्वयं भी प्रकाशक खोज सकते हैं ।
ई एल जेम्स, ह्यूघ हॉवी और अमांडा हॉकिंग्स सफल प्रकाशक हो सकते हैं, तब कोई भी कारण नहीं है कि आप वह नहीं हो सकते। एक लेखक के रूप में आप कितने अच्छे हैं, यह सबसे अधिक महत्व रखता है। यद्यपि स्वयं-प्रकाशक के रूप में आपके लेखन की सफलता भी प्रकाशकों के दृष्टिकोण बदल सकती है और तब आपका लाखों में खेल सकते हैं।
लेखक की सृजनशीलता का मापदण्ड, उसका आभामंडल, उसका पाठक वर्ग और उसका किरदार भी उसके द्वारा लिखी पुस्तक से ही आँका जा सकता है।
जब आपको कोई प्रकाशन प्रकाशित नहीं कर रहा है तो इसका कारण यह बिलकुल भी नहीं है कि आपका लेखन कमजोर है, बल्कि प्रकाशक की व्यावसायिक मजबूरियाँ भी उत्तरदायी होती हैं, क्योंकि जब तक आप सम्मानित या स्थापित साहित्यकारों की श्रेणी में नहीं आते तब तक आपकी पुस्तक कोई क्यों खरीदेगा?
दुनिया नाम के पीछे भागती है, और ऐसे में स्वयं प्रकाशन एक बेहतर उपलब्ध विकल्प है, जिसके माध्यम से आप बतौर रचनाकार या लेखक अपनी पुस्तकें प्रकाशित करवा कर अपना पाठक वर्ग खोज सकते हैं।
कई लोग आज भी ये सोचते हैं कि स्वयं प्रकाशन योजना एक अत्यधिक खर्चीला प्रकाशन प्रकल्प है, और अत्यधिक पैसा लगा कर ही स्वान्तय सुखाय पुस्तकें प्रकाशित करवाई जा सकती हैं, जबकि ऐसा हमेशा सहीं नहीं होता।
मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले से एक महिला साहित्यकार डॉ.प्रीति सुराना द्वारा संचालित *अन्तरा शब्दशक्ति प्रकाशन* ने इस तरह के तमाम सारे मिथक तोड़ दिए हैं ।
उनका प्रकाशन छोटी पुस्तकों के प्रकाशन और ईबुक से रचनाकार के सृजन के प्रचार की कई योजनाएं लाया है, जिसमें महज 1500 रु से भी कम खर्च में 16 पृष्ठ की छोटी पुस्तकें प्रकाशित करवाई जा सकती हैं ।
और उस पर आईएसबीएन भी लिया जा सकता हैं । ये योजना एक रचनाकार के लिए सोने पर सुहागा है, क्योंकि पुस्तकों का आकार या पृष्ठ संख्या उतनी मायने नहीं रखती जितनी आपके परिचय में जुड़ी प्रत्येक पुस्तक।
यही प्रकाशित पुस्तक आपकी पहचान होती है।
अन्तरा-शब्दशक्ति प्रकाशन के माध्यम से डॉ.प्रीति सुराना जी द्वारा सैकड़ों या कहें हजारों गुमनाम और अनायास भय से आक्रान्तित (जिन्हें स्वयं प्रकाशन खर्चीला जान पड़ता था) सृजकों को एक अदद पहचान मुहैय्या करवाई जा रही है।
मानो आप एक साझा संग्रह का ही हिस्सा बनने जा रहें हो तो वहाँ जुड़ने का खर्च 500 रुपये से लेकर 2500 रुपये तो होगा ही, वहाँ पर यह राशि देने के बाद भी परिचय में साझा संग्रह ही जुड़ेगा जबकि इतने ही खर्च में आप स्वयं की पुस्तक प्रकाशित करवा सकते हैं और उस प्रकाशित पुस्तक का ईबुक संस्करण भी आपके लिए पाठक खोज लाएगा, जब आपके विश्वास हो जाए कि आपके पास पर्याप्त पाठक हो रहे हैं तो आप स्वयं की पुस्तकें ज्यादा छपवा कर विक्रय भी कर सकते है, जिससे आपको आय भी प्राप्त होगी या फिर निजी अन्तरताना (वेबसाईट या ब्लॉग) बना कर पाठक बढ़ा सकते है, जिससे गूगल एडसेंस के माध्यम से भी आय प्राप्त होगी , इसके लिए लेखकों को www.antrashabdshakti.com पर पंजीकरण करवाना होता है, पाण्डुलीपि भेजना और फिर आकर्षक कवर के साथ पुस्तकों का प्रकाशन हो जाता है, मय संपादन के |
अन्तरा शब्दशक्ति प्रकाशन की यह छोटी पुस्तकों और ईबुक के माध्यम से रचनाकारों के प्रचार की पहल निश्चित तौर पर हिन्दुस्तान के साहित्य आकाश में कई सितारे तो देगी ही वरन साहित्कारों को स्वयं प्रकाशन योजना में उलझाने वाले प्रकाशकों और लेखक की बजाय प्रकाशकों के नाम को प्रकाशित करने बाले कुनबें से भी दूर करेगी।
वैसे साहित्य की कितनी महिमा होती है ये तो महाकवि रामधारी सिंह दिनकर ने यह कहकर ही प्रतिपादित कर दिया था कि *’जब-जब राजनीति लड़खड़ाई है, साहित्य ने ही उसे संभाला हैं’*
यह अक्षरश: सत्य भी है, इसीलिए साहित्य सृजन जारी रखें और एक बार स्वयं की छोटी पुस्तकों के प्रकाशन के बारें में जरूर सोचे.. क्योंकि *’ये प्रकाशित पुस्तकें ही साहित्यकार होने की शर्त भी और पहचान भी हैं।’*

*डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’*
हिन्दीग्राम, इंदौर

मासूमों की चित्कारों से लथपथ भारतीय राजनीति

मासूमों की चित्कारों से लथपथ भारतीय राजनीति

डॉ.अर्पण जैन अविचल

भारत के भाल से पढ़े जा रहें कसीदे, कमलनी के तेज पर प्रहार हो रहा है, समाजवाद से गायब समाज है, वामपंथी भी संस्कृति और धर्म के बीच का अन्तर भूल चुके हैं, न देश की चिन्ता है,न ही परिवेश की| धर्म और जातियों के जहर में मासूम चित्कारों के गर्म तवे पर राजनैतिक खिचड़ी पकाई जा रही है, शर्म करों सत्ता के धृतराष्ट्र, शर्म करों जनता के कंधों और भावनाओं का इस्तेमाल करने वालों, शर्म करों….

देश में विगत एक पखवाड़े में लगातार ३ मासूम बच्चियों के साथ दुष्कर्म हुआ, कठुआ, उन्नाव और इंदौर |  सत्तामद में डूबे नेताओं ने उस पर भी राजनीति करना शुरू कर दी | एक और मोमबत्ती गेंग सक्रिय हो गई दूसरी और राजनेताओं का जुलूस और शक्ति प्रदर्शन |

कोई तंत्र को दोषी ठहरा रहा हैं तो कोई जागरूकता की कमी | असल मानों तो यह बलात्कार की घटनाएँ केवल और केवल मानवता की हार से ज़्यादा नहीं | मानवीय धर्म कमजोर पड़ चुका हैं, क्योंकि व्याभिचारी कितना भी गिर क्यों न जाए पर जब बात मासूम की आती है तो शायद वो भी थोड़ा तो मानवीय हो सकता है | परंतु ऐसा नहीं होना मतलब साफ तौर पर मानवीय पहलू में छिपी सांस्कृतिक अक्षुण्णता नस्ते-नाबूत हो चुकी हैं |

किस मानसिक अवसाद के चलते यह कुकृत्य हो रहे है, यह तो जानना कठिन है किंतु इतना तो हम समझ ही सकते है क़ि कहीं न कहीं मानव धर्म ख़तरे में हैं | कोई हिंदू का तो कोई मुस्लिम का बलात्कार बता रहा हैं, परंतु बलात्कार धर्म का नहीं बल्कि लड़की का होता है, जिसका धर्म मायने नहीं रखता, अस्मिता मायने रखती हैं |

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रतिदिन लगभग 50 बलात्कार के मामले थानों में पंजीकृत होते हैं। इस प्रकार भारतभर में प्रत्येक घंटे दो महिलाएं बलात्कारियों के हाथों अपनी इज़्ज़त गंवा देती हैं, लेकिन आंकड़ों की कहानी पूरी सच्चाई बयां नहीं करती। बहुत सारे मामले ऐसे हैं, जिनकी रिपोर्ट ही नहीं हो पाती।

प्रत्येक वर्ष बलात्कार के मामलों में लगातार बढ़ोतरी होती जा रही है। वर्ष 2011 में देशभर में बलात्कार के कुल 7,112 मामले सामने आए, जबकि 2010 में 5,484 मामले ही दर्ज हुए थे। आंकड़ों के हिसाब से एक वर्ष में बलात्कार के मामलों में 29.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई।

बलात्कार के मामलों में मध्यप्रदेश सबसे अव्वल रहा, जहां 1,262 मामले दर्ज हुए, जबकि दूसरे और तीसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश (1,088) और महाराष्ट्र (818) रहे। इन तीनों प्रदेशों के आंकड़े मिला दिए जाएं तो देश में दर्ज बलात्कार के कुल मामलों का 44.5 प्रतिशत इन्हीं तीनों राज्यों में दर्ज किया गया। यह आंकड़ा राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो का है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीबी के आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली बलात्कार के मामले में सबसे आगे है। पिछले कुछ दिनों में ही दिल्ली में कार में बलात्कार के कई सनसनीखेज मामले दर्ज हुए। दूसरी ओर राजस्थान की राजधानी जयपुर भी बलात्कार के मामलों में देशभर में पांचवें नंबर पर है। दिल्ली, मुंबई, भोपाल और पुणे के बाद जयपुर का नंबर इस मामले में आता है।

2007 से 2011 की अवधि के दौरान अर्थात चार साल के आंकड़ों पर नजर डालें तो इस मामले में दिल्ली नंबर वन रही। एनसीबी के आंकड़ों के मुताबिक देश की राजधानी लगातार चौथे साल बलात्कार के मामले में सबसे आगे है। आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में साल 2011 में रेप के 568 मामले दर्ज हुए, जबकि मुंबई में 218 मामले दर्ज हुए। रिपोर्ट के मुताबिक 2007 से 2008 के बीच 18 से 30 की उम्र के करीब 57,257 लोगों को गिरफ्तार किया गया। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा यह आंकड़े सिर्फ महिला अत्याचार के आधार पर जारी किए गए हैं।

बलात्कार के मामले में भारत विश्व की ‘डर्टी कंट्री’ की श्रेणी में शामिल हो रहा हैं, तब हमारी सरकारों और जनता की चिंता और बड़ जानी चाहिए, क्योंकि भारत का नाम विश्व पटल पर संस्कार सिंचन में अव्वल रहा हैं किंतु वर्तमान के हालात तो हमें दैहिक शोषण और यौन शोषण में ‘विश्वगुरु’ का दर्जा दिलाने से बाज नहीं आ रहे हैं |

‘विश्व स्वास्थ संगठन के एक अध्ययन के अनुसार, ‘भारत में प्रत्येक 54वें मिनट में एक औरत के साथ बलात्कार होता है।’ वहीं महिलाओं के विकास के लिए केंद्र (सेंटर फॉर डेवलॅपमेंट ऑफ वीमेन) के अनुसार, ‘भारत में प्रतिदिन 42 महिलाएं बलात्कार का शिकार बनती हैं। इसका अर्थ है कि प्रत्येक 35वें मिनट में एक औरत के साथ बलात्कार होता है।’

बलात्कार के मामलों की जांच में जुटे पुलिस अधिकारियों का मानना है कि ऐसे अधिकतर मामलों में आरोपी को पीड़िता के बारे में जानकारी होती है। यह एक सामाजिक समस्या है और ऐसे अपराधों पर नकेल कसने के लिए रणनीति बनाना असंभव है।

अधिकारियों की मानें तो इनमें से अधिकांश मामले बेहद तकनीकी होते हैं। अक्सर ऐसे अपराध दोस्तों या रिश्तेदारों द्वारा किए जाते हैं, जो पीड़िता को झूठे वादे कर बहलाते हैं, फिर गलत काम करते हैं। कई बार ऐसे अपराध अज्ञात लोग करते हैं और पुलिस की पहुंच से आसानी से बच निकलते हैं। हालांकि कुछ मामलों में यह भी देखा गया है कि इसमें पीड़िता की रजामंदी होती है। उसे इस बात के लिए रजामंद कर लिया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि बलात्कार से पीड़ित महिला बलात्कार के बाद स्वयं अपनी नजरों में ही गिर जाती है, और जीवनभर उसे उस अपराध की सजा भुगतनी पड़ती है, जिसे उसने नहीं किया।

वर्तमान में बाल अनुकूल न्यायिक प्रक्रिया ( पॉक्सो क़ानून) में बदलाव किया जिसमें १२ वर्ष के कम उम्र की बच्चियों से दुष्कर्म करने पर फाँसी की सज़ा दी जाएगी| यह निर्णायक परिवर्तन आवश्यक है साथ ही समाज को भी इस तरह के आरोपी के परिवार का सामाजिक बहिष्कार भी करना चाहिए, ताकि दुष्कर्म करने जैसे घृणित कार्य करने के पहले व्यक्ति उसके परिवार की दुर्दशा से भी बाख़बर रहें |

हमारे राष्ट्र में यदि दुष्कर्म के मामलों में वृद्धि हो रही है तो देश के तमाम राजनैतिक दलों को मिलकर एक रूपरेखा बनानी चाहिए जिससे इस तरह की समस्या से देश को बचाए जा सके, और किस क़ानून और प्रावधान के तहत दुष्कर्मी को दंड दे सके ताकि भविष्य में कोई पुनरावृत्ति न कर सके, साथ ही देश के सभी धर्म गुरुओं को भी मानवीयता के गिरते स्तर पर चिंता जाहिर करते हुए उसे बचाने के प्रयास करना चाहिए, न की सड़कों पर निकल कर राजनीति |

हमारे राष्ट्र में चुनावी आक्षेप लगाना बहुत आसान हैं, जबकि यदि राष्ट्र की असमर ख़तरे में है तो हम सब की नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है की सरकार के साथ मिल कर देश बचाएँ, मीडिया, राजनेता, समाजसेवी, आंदोलनकारी आदि सभीजन मिल कर इस समस्या का समाधान निकाल सकते हैं, पर हमारे यहाँ सभी ज़िम्मेदारों को राजनीति करने से फुरसत मिले तब तो देश के बारे में सोचेंगे |

कठुआ, उन्नाव और इंदौर कांड पर भी सरे आम राजनीतिक प्रपंच किए गए, बयानबाजी, नारे-प्रदर्शन आदि आदि | किंतु समाधान की दिशा में किसी ने नहीं सोचा, न समाज ने, न ही समाज के ठेकेदारों ने| लिहाजा कुकृत्य होने से कोई रोक नहीं सकता, रोकना केवल मानवीयता के गिरते स्तर को है |

डॉ. अर्पण जैनअविचल

पत्रकार एवं स्तंभकार

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[लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ पत्रकार होने के साथ-साथ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं| ]