विश्व रंगमंच पर पर्दा नहीं गिरा है अभी

विश्व रंगमंच पर पर्दा नहीं गिरा है अभी
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एक आम भारतीय के दृष्टिकोण से यह कहना बहुत उचित है कि भारत की सरकार ने समझौता किया और अमेरिका के दबाव में कदम पीछे लिए किन्तु जब इसे अंतरराष्ट्रीय परिपेक्ष्य, युद्धनीति और वैश्विक विवशताओं के साथ जोड़कर देखेंगे तो निःसंदेह इसका दूसरा पक्ष भी है, जो जल्द ही सामने आएगा।
मत देखिए कि पाकिस्तान को मदद करने वाले देश कौन हैं पर यह अवश्य देखें कि behind the curtain क्या हो रहा होगा!
एक संवेदनशील प्रधानमंत्री और उनसे भी कहीं अधिक धैर्य रखने वाली भारतीय सेना… विश्वास कीजिए, अवश्य कुछ अलग और बेहतर होगा।
इस समय भारत विकासशील देशों की श्रेणी में आता है, एक उदाहरण है ना कि जब हम सड़क पर चलते हैं तो साइकिल सवार यदि ग़लती से भी कार से टकरा जाए, तब भी ग़लती कार चालक की मानी जाती है। उसी तरह पाकिस्तान साइकिल सवार देश है और भारत कार चालक।
चीन यही चाहता है कि भारत को युद्ध में उलझा कर कुछ नुक़सान करे। पर यह भी तय है कि देश का गंभीर नेतृत्व कुछ तो सोच ही रहा होगा, जबकि वह जानता है कि आगामी चुनाव में इस तरह रणछोड़ बनना उसके राजनैतिक दल के लिए घातक हो सकता है, फिर भी यह निर्णय लिया है तो कुछ तैयारी के साथ ही यह कदम उठाया होगा।
शेष सब शुभ हो, यही कामना है।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं लेखक
इन्दौर

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संकट में है अख़बार, भविष्य अधर में

✍🏻 *डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*

‘एक समय आएगा जब अख़बार रोटरी पर छपेंगे, संपादकों की ऊँची तनख्वाह होगी, पर तब संपादकीय संस्थाएँ समाप्त हो जाएँगी।’ ऐसी बात आज़ादी के पहले बाबू विष्णु पराड़कर जी लिख गए, जो आज अक्षरश: सत्य नज़र आ रही है।
आज संपादकीय संस्थान तो विज्ञापन या कहें सर्कुलेशन विभाग के मुनाफ़े और आज्ञा पर ही जीवित हैं।
असल बात तो यह है कि हिंदुस्तानी अख़बार दुनिया का एकमात्र ऐसा हसीन उत्पाद (प्रोडक्ट) है, जो अपनी लागत मूल्य से कम से कम पाँच या दस गुना कम मूल्य में बिकता है क्योंकि शेष लाभ विज्ञापन आधारित माना जाता है।
इसी कारण संपादकीय विभाग भी विज्ञापन विभाग के दबाव में रहने लगा है।
इस मूल्य की क्षीणता के साथ ही वर्तमान समय में देशबन्दी के कारण अख़बारी दुनिया केवल खानापूर्ति मात्र हो रही है।
अख़बारों को संचालित करने वाली व्यवस्था, जिसे विज्ञापन कहते हैं, वो अख़बारों से गायब है, और जब विज्ञापन नहीं होंगे तो अख़बार कैसे ज़िंदा रहेगा!
हालात तो यह है कि देश के कई मीडिया संस्थान कर्ज़े में हैं, घाटे में हैं, कई महीनों से नियमित तनख्वाह तक दे पाने में असमर्थ हैं। इसके बावजूद कोरोना कहर के कारण वितरण भी प्रभावित है और समाचार भी।
ऐसी स्थिति में अख़बारों का प्रबंधन वेंटिलेटर पर आ जाएगा। आर्थिक रूप से टूटे हुए अख़बारी लोग तनख्वाह, भत्ते आदि से परेशान रहेंगे, नौकरियों में संकट आना स्वाभाविक है और कामगारों और पत्रकारों के लिए दुगुनी चिंता क्योंकि समय पर वेतन न मिलने का बोझ और नौकरी करने के कारण जेब से ख़र्च करके नियमित काम करने का भी तनाव। यहाँ तक कि अख़बारी काग़ज़, स्याही आदि ख़रीदी की भी चिंता। इन सबके बावजूद भी अख़बार के घटते पाठक या ग्राहक और डिजिटल मीडिया पर भरोसा करते हुए लोग भी तो अख़बारी पाठन से दूर हो रहे हैं।
वैसे भी विश्व के कई देशों में प्रिंट मीडिया ने अपना रुख इंटरनेट मीडिया की ओर काफ़ी पहले कर लिया है, बीते एक दशक से तो डिजिटल संस्करण श्रेष्ठ विकल्प बनकर उभर रहे हैं।
ऐसे मुश्किल हालात में सरकारों को भी नियमित अख़बारी छपाई को रोक कर डिजिटल संस्करण को अधिक मान्यता देनी चाहिए।
काग़ज़ भी बचेगा यानी जंगल बचेंगे और साथ में यह उद्योग भी लाभ के उद्योग में तब्दील हो पाएगा।
इस संकट की घड़ी में ही सही किन्तु सरकारें यदि नियमित छपी हुई प्रति की माँग को समाप्त कर दें तो शायद अख़बारी दुनिया भी डिजिटल की ओर रुख कर लें, वैसे भी डिजिटल संस्करण की ताक़त ज़्यादा होती है।
और अभी की देशबन्दी के हालातों के बाद तो यकीन जानिए आगामी एक वर्ष तो विज्ञापनों की आमद होने में संकट है और बिना विज्ञापन के अख़बार का भविष्य भी संकट में ही है।
कवि कुमार विश्वास कहीं लिखते है कि
‘जिसके विरुद्ध था युद्ध उसे
हथियार बना कर क्या पाया?
जो शिलालेख बनता उसको
अख़बार बना कर क्या पाया?’
आज अख़बार की दुनिया दोतरफ़ा संकट में है। मूल्यों का क्षरण तो लगातार हो ही रहा है और आर्थिक रूप से पड़ने वाली मार तो ज़्यादा संकट में डालेगी।
डिजिटल दुनिया में तो एक लाभ और भी है कि आप अपने विज्ञापनदाताओं को यह स्पष्टता के साथ बता पाओगे कि कितने लोगों ने विज्ञापन देखा जबकि अख़बार में यह सुनिश्चितता तो है ही नहीं। इसी के चलते ज़्यादा विज्ञापन मिलेंगे क्योंकि कम लागत में विज्ञापनदाताओं का लाभ अधिक है। समय रहते यदि अख़बार नहीं संभल पाए तो आर्थिक, सामाजिक और व्यवस्थाजन्य तो कमज़ोर होंगे ही, साथ में अस्तिव भी संकट में आ जाएगा। जागना आवश्यक है, वर्ना, अख़बार का भविष्य खतरे से खाली नहीं है ।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
ख़बर हलचल न्यूज़, इंदौर

लता मंगेशकर : स्वर की अधिष्ठात्री का महाप्रयाण

फरवरी की छहः तारीख, रविवार की सुबह जिस बुरी ख़बर को लाई, वो कभी न् भूल पाने वाली ख़बर रही। इन्दौर में जन्मी और पूरे भारत ही नहीं अपितु वैश्विक मण्डल में अपने स्वर से स्वयं को स्थापित करने वाली साधिका लता मंगेशकर की सुरलोक की यात्रा का समाचार स्तब्ध कर गया।

आज हजारों गीत रो रहें है, गीतों का रुदन यदि सुनना चाहते है तो बम्बई के प्रभु-कुंज की ओर देखिए। जो शब्द पूजनीया लता दीदी के कंठ से अवतरित हुए होंगे उनका अभिमान निश्चित तौर पर चरम पर होगा और आज वें लाखों शब्द आज रो रहें होंगे।
स्वर और शब्दों पर लता ताई की अद्भुत पकड़ रही, लता ताई मंगेशकर को स्वरों की अधिष्ठात्री भी कहा जाएँ तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ऐसी स्वर अधिष्ठात्री के अवसान से आज समूचा भारत स्तब्ध हैं।
यह गौरव इन्दौर के खाते में दर्ज हुआ कि इस मालवा की धीर-वीर, गम्भीर और रत्नगर्भा धरती पर लता ताई का जन्म हुआ। वैसे संगीत समृद्ध शहर इन्दौर कला, साहित्य और पत्रकारिता की भी उर्वरक धरा हैं।
आज स्वर साम्राज्ञी के इह लोक से सुरलोक की यात्रा के लिए प्रस्थान को नियति ने तय किया और भारत भू से अपने प्रदत्त स्वर को बैकुण्ठ के कंठ में पुनः प्रविष्ठ कर लिया किन्तु खाली रह गया तो केवल यह भूमि का टुकड़ा जिसे हम भारत कहते हैं।
निश्चित तौर लता जी के महाप्रयाण से संगीत, गायकी और फ़िल्म जगत ही नहीं वरन् समूची भारत भूमि प्रभावित हुई है। हज़ारों गायिकाओं की आदर्श और हिन्दी गीतों की अनंत यात्रा का नाम लता मंगेशकर हुआ करता हैं।
कहते है मुम्बई में भी इन्दौर लता दीदी के रूप में धड़कता रहा हैं। इन्दौर और मध्यप्रदेश से लता दीदी बेहद प्यार करती रही, उनके नाम पर शासन द्वारा लता अलंकरण भी दिया जाता हैं। इन्दौर की एक गली जिसे पताशे वाली गली के नाम से भी प्रसिद्धि मिली जहाँ लता जी का जन्म हुआ।
28 सितंबर 1929 को इंदौर के एक मध्यमवर्गीय मराठा परिवार में जन्मीं लता मंगेशकर का नाम पहले हेमा था। हालांकि जन्म के 5 साल बाद माता- पिता ने इनका नाम बदलकर लता रख दिया था।
पंडित दीनानाथ मंगेशकर जी की सुपुत्री व शिष्या लता ताई किसी विद्यालय नहीं गई किन्तु बीसियों विश्वविद्यालयों ने उन्हें सम्मान स्वरूप डॉक्टरेट प्रदान कर शैक्षिण अभिनंदन किया हैं।
अपनी मधुर आवाज से लोगों को दीवाना बनाने वाली लता मंगेशकर जी ने लंबे समय तक अपने गीतों से दर्शकों का मनोरंजन किया। फिल्म इंडस्ट्री में स्वर कोकिला के नाम से मशहूर लता जी के गाने आज भी लोगों के मानस में जीवित है। हिंदी सिनेमा की इस दिग्गज गायिका के गाने ना सिर्फ बीती पीढ़ी के लोग पसंद करते हैं, बल्कि नई पीढ़ी भी इन्हें बड़े शौक से सुनती है। अपनी दमदार आवाज के दम पर इंडस्ट्री में एक अलग पहचान बनाने वालीं लता मंगेशकर आज भी करोड़ों दिलों की धड़कन हैं। ‘भारत रत्न’ से सम्मानित मशहूर गायिका लता मंगेशकर अपने अनूठे अंदाज़ के लिए भी जानी जाती रही हैं।
गीतकार प्रेम धवन ने लता जी के व्यक्तित्व पर एक कविता लिखी थी जिसमें दृश्य यह था कि गिरधर कृष्ण ने जब यह बात याद दिलाई होगी कि आपने वादा किया था जन्म लेने का तब कृष्ण का उत्तर रहा होगा कि वो तो नहीं आएँ अब तक पर पहले अपनी बाँसुरी भारत में भेजी है उस बाँसुरी का नाम भारत रत्न लता मंगेशकर है ।
50,000 से ज्यादा गीतों को अपनी आवाज दे चुकीं लता जी ने करीब 36 क्षेत्रीय भाषाओं में भी गाने गाए, जिसमें मराठी, बंगाली और असमिया भाषा शामिल है।92वें वर्ष की दैहिक आयु को तजकर आज स्वर कोकिला अपनी अनंत यात्रा पर प्रस्थान कर गई। स्वर कोकिला ने देह परिवर्तन कर लिया, पर यक़ीन् जानना वह हमारे बीच हमेशा रही है और हमेशा रहेंगी।
विधि के विधान के आगे हम नतमस्तक है। भारत रत्न, पूजनीया लता मंगेशकर जी के चरणों में विनम्र प्रणाम सहित स्वर साम्राज्ञी लता ताई को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
राष्ट्रीय अध्यक्ष, मातृभाषा उन्नयन संस्थान, इन्दौर

पत्रकारिता के मेरूदंड की सबलता ज़रूरी

पत्रकारिता के मेरूदंड की सबलता ज़रूरी

डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’

शब्द-शब्द मिलकर जब ध्येय को स्थापित करते हैं, शब्द-शब्द मिलकर जब राष्ट्र का निर्माण करते हैं, शब्द-शब्द मिलकर जब सत्ता का केंद्र और जन मानस का स्वर बनते हैं, शब्द-शब्द मिलकर जब व्यक्ति से व्यक्तित्व का रास्ता बनाते हैं, तब कहीं जाकर शब्द के साधकों की आत्मा के सौंदर्य का प्रतिबोध होता है।
लगभग दो शताब्दियों तक का सफ़र तय करने वाली हिन्दी पत्रकारिता, आज अपने गौरव से सुसज्जित भी है तो वहीं कालांतर में हुए बदलाव से अचंभित भी।

भारत एक गाँव प्रधान देश है, जहाँ लगभग अस्सी प्रतिशत जनसंख्या गाँव में निवास करती है, राजनीति के अधिकांश निर्णय गाँव से होते हैं, सरकारें गाँव से बनती हैं और बिगड़ती हैं। इसी गाँव की महिमा का केन्द्र आंचलिक पत्रकार भी हैं। देश की बहुसंख्यक आबादी को ख़ुशहाल बनाने में आंचलिक पत्रकारिता की निर्णायक भूमिका हो सकती है किंतु उसी ग्राम प्रधान देश में ग्रामीण पत्रकारिता हाशिए पर जाती जा रही है।

अभी तक पत्रकारिता का केंद्र केवल राजनीति के गलियारों की चहलकदमी, अपराध व कारोबार के अलावा कहीं और रहा भी नहीं, जिन मुद्दों से आम जनमानस का जुड़ाव संभव हो सके। महानगरों के गलियारों के इर्द-गिर्द घूमती पत्रकारिता देश की अस्सी फ़ीसदी आबादी को पीछे छोड़ती नज़र आती है।
शहरी पत्रकारिता को गाँव की याद तभी आती है, जब कोई बड़ा हादसा हो या फिर कोई बड़ी घटना होना या राजनेताओं का दौरा होता है तब आती वर्ना बड़ा पत्रकार कभी नज़र भी नहीं डालता गाँव की तरफ़, न मीडिया संस्थान ध्यान देते हैं गाँव में बसने वाले आंचलिक पत्रकारों की ओर।

आज पत्रकारिता का मूल मक़सद है, मुनाफ़ा कमाना। मुनाफ़ा शहरी लोगों के बीच से होकर जाता है, आज पत्रकारिता कॉरपोरेट और शहरी लोगों का विशुद्ध खिलौना बनकर रह गई है। भारतीय पत्रकारिता में किसानों और ग्रामीण क्षेत्रों की समस्याओं के लिए कोई जगह नहीं रह गई है। इस दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार किसानों की बढ़ती आत्महत्या, ग़रीबी, अशिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था को मीडिया कवरेज नहीं मिल पाने से ग्रामीण लोग तो पत्रकारिता का लाभ भी नहीं उठा पाते हैं। टी.वी. चैनलों और बड़े अख़बारों की सीमा यह है कि वे ग्रामीण क्षेत्रों में अपने संवाददाताओं को स्थायी रूप से तैनात नहीं कर पाते हैं। कुल मिलाकर, ग्रामीण पत्रकारिता की जो भी झलक विभिन्न समाचार माध्यमों में आज मिल पाती है, उसका श्रेय अधिकांशत: जिला मुख्यालयों में रहकर अंशकालिक रूप से काम करने वाले बहुतायत में काम करने वाले अप्रशिक्षित पत्रकारों को जाता है। आख़िर देश की अस्सी फ़ीसदी जनता, जिनके बलबूते पर हमारे यहाँ सरकारें बनती हैं, जिनके नाम पर सारी राजनीति की जाती है, जो देश की अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक योगदान करते हैं, उन्हें पत्रकारिता की मुख्य धारा में लाया ही जाना चाहिए। मीडिया को नेताओं, अभिनेताओं और बड़े खिलाड़ियों के पीछे भागने की बजाय उसे आम जनता की तरफ़ रुख़ करना चाहिए, जो गाँव में रहती है, जिनके दम पर यह देश और उसकी सारी व्यवस्था चलती है।
मीडिया संस्थान ग्रामीण क्षेत्रों में पत्रकार ही नहीं रखते, केवल एजेंट बनाते हैं, आख़िर क्यों उपेक्षाओं का शिकार है ग्रामीण पत्रकारिता?
आज़ादी के बाद जो ह्रास राजनीति का हुआ, वही पत्रकारिता का भी हुआ है। हम गाँव से आये लेकिन गाँव को भूलते चले गये। लेकिन जिस प्रकार ‘ग्रामीण पत्रकारिता’ को उभर कर आना चाहिये, नहीं आया है। गाँव की समस्याओं को सुलझाने में क्या मिलने वाला है! शहर में शान है, शोहरत है, पैसे हैं, लेकिन गाँव में ख़बरें हैं।

भारत में पत्रकारिता की रीढ़ यदि कहीं से मज़बूत होती है तो वह है आंचलिक पत्रकारिता से। और इस समय जब देश में मीडिया पर उसके अस्तित्व और विश्वसनीयता का संकट मंडरा रहा है तो पत्रकारिता के शीर्षस्थ संस्थानों और वैचारिक बुद्धिजीवी लोगों को पत्रकारिता के मेरुदण्ड को मज़बूत करना चाहिए। अंचल में सैंकड़ो ख़बर के चक्रव्यूह के बीच एक आंचलिक पत्रकार अभिमन्यु की भाँति घुस तो गया है किंतु उसी चक्रव्यूह का स्याह पक्ष आर्थिक मज़बूती भी है, यदि उस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो यह अभिमन्यु चक्रव्यूह में दम तोड़ देगा। इसी के साथ, मेरुदण्ड के कमज़ोर होने अथवा टूटने से पत्रकारिता की इमारत बुलंदी पर पहुँच कर भी आधारहीन हो जाएगी।
इस कालखण्ड में विश्वसनीयता, प्रामाणिकता और प्रवर्तक भूमिका मिलकर पत्रकारिता के परमवैभव की स्थापना करेंगे और इसके लिए येन-केन-प्रकारेण सभी जागृत संस्थानों, मीडिया क्लबों, समितियों को आंचलिक पत्रकारिता के उन्मेष के लिए प्रमुखता से कार्य करना होगा।
प्रशिक्षण, कार्यशालाओं के साथ-साथ आर्थिक सबलता की दृष्टि से भी उन्हें मज़बूत करना होगा। क्योंकि जो कुछ भी श्रेष्ठ अब शेष है, वह उस नदी के प्रवाह आंचलिक पत्रकारिता के अवदान से रेखांकित होगा। आंचलिक पत्रकारिता में न केवल ख़बरों की जीवंतता है बल्कि मीडिया की विश्वसनीयता भी यथायोग्य बनी हुई है। समय रहते आंचलिक पत्रकारिता को मज़बूत और सबल नहीं बनाया तो रीढ़ विहीन पत्रकारिता मेरुदण्ड विहीन समाज का निर्माण करेगी, जिससे हम अपने ही अर्थों और अस्तित्व में बौने हो जाएँगे।

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
पत्रकार, स्तंभकार एवं राजनैतिक विश्लेषक

संपर्क: 9893877455
ईमेल: arpan455@gmail.com
अंतरताना:www.arpanjain.com

[लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं]

 

जननायक या चुनावी नायक बन गए टंट्या मामा

जननायक या चुनावी नायक बन गए टंट्या मामा

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आसां नहीं है इश्क़ में अमृता हो जाना

जन्मदिवस विशेष

सां नहीं है इश्क़ में अमृता हो जाना

Amrita pritam
Amrita pritam

‘मैं उस प्यार के गीत लिखूँगी,
जो गमले में नहीं उगता,
जो सिर्फ़ धरती में उग सकता है।’

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अमृता प्रीतम

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🖊 *डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*

दो किताबें पढ़ीं, ‘मन मिर्ज़ा , तन साहिबा’ और ‘इश्क़ अल्लाह हक़ अल्लाह’, इसके पहले केवल नाम भर सुना। पढ़ने के बाद लगा मानो प्रेम और जीवन दर्शन का बेहतरीन सामंजस्य कहीं है तो वह इसी लेखिका की लेखनी में है। उसके बाद अमृता जी की किताबें छोड़ने का मन नहीं हुआ।
और ये भी सच है कि अमृता जी ने वही लिखा, जो उनके जीवन में घटित हुआ, कोई कपोल कल्पित पात्र नहीं, बल्कि यथार्थ स्वीकृति के साथ।
कहते हैं, स्कूटर चलाते हुए इमरोज़ की पीठ पर नाम साहिर होता था और लिखने वाली अमृता। किन्तु यह भी सच है कि इमरोज़ जी भी अमृता जी से ही बहुत प्यार करते थे, हमेशा उनका ख़्याल रखना, अपनी तस्वीरों में अमृता जी को उकेरना, यही इमरोज़ का काम होता था।

मेरी सबसे प्रिय लेखिका हैं अमृता प्रीतम जी…..आजकल की महिला लेखिकाओं को अमृता जी से प्रेरणा लेनी चाहिए।
‘मन मिर्ज़ा, तन साहिबा’ इनकी एक पुस्तक है, जिसे हर व्यक्ति को पढ़ना चाहिए। लेखन की गहराई और सूक्ष्मता की प्रतिबोधक देखने के लिए कुछ पढ़ना है, उसमें एक नाम शामिल होगा अमृता प्रीतम जी का।

हज़ारों किस्से, प्रीतम को छोड़ कर साहिर के इश्क़ में डूब जाना, इसके बाद इमरोज़ का अमृता को चाहना और अमृता का साहिर को। इन्हीं किस्सागोई के बीच कुछ शेष था तो वह प्रेम ही था।
कभी अमृता और साहिर का प्रेम अहम की टकसाल से नहीं गुज़रा, न ही अमृता ने थोपना अपनी आदत बनाया। इसीलिए वह प्रेम अमर हुआ।
चाय का एक झूठा कप, जली हुई सिगरेट के कुछ टुकड़े, कुछ किस्से, कुछ यादें और ढेर सारे खुतूत। साहिर और अमृता की मोहब्बत की ये कुल जमा-पूंजी थी।
अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में अमृता प्रीतम ने साहिर के साथ हुई मुलाक़ातों का ज़िक्र किया है। वो लिखती हैं कि, ‘जब हम मिलते थे, तो ज़ुबां ख़ामोश रहती थी, नैन बोलते थे। दोनों बस एक टक एक-दूसरे को देखा करते और इस दौरान साहिर लगातार सिगरेट पीते रहते थे। मुलाक़ात के बाद जब साहिर वहाँ से चले जाते, तो अमृता अपने दीवाने की सिगरेट के टुकड़ों को लबों से लगाकर अपने होंठों पर उनके होंठों की छुअन महसूस करने की कोशिश करती थीं।
अमृता प्रीतम और साहिर की मोहब्बत की राह में कई रोड़े थे। एक वक़्त था, जब अमृता और साहिर दोनों लाहौर में रहा करते थे। फिर मुल्क़ तकसीम हो गया। अमृता अपने पति के साथ दिल्ली आ गईं। साहिर मुंबई में रहने लगे। अमृता अपने प्यार के लिए शादी तोड़ने को तैयार थीं। बाद में, वो अपने पति से अलग भी हो गईं। दिल्ली में एक लेखिका के तौर पर वो अपने स्थान और शोहरत को भी साहिर पर क़ुर्बान करने को तैयार थीं।
साहिर ने अमृता को ज़हन में रखकर न जाने कितनी नज़्में, कितने गीत, कितने शे’र और कितनी ग़ज़लें लिखीं। वहीं अमृता प्रीतम ने भी अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में खुलकर साहिर से इश्क़ का इज़हार किया है।
कोई कल्पित कहानी नहीं थी अमृता और साहिर के बीच, इश्क़ अल्लाह हक़ अल्लाह की तरह अमृता और साहिर केवल प्रेम करते थे, और प्रेम को अमर कर गए।
अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ की भूमिका में अमृता प्रीतम लिखती हैं – ‘मेरी सारी रचनाएँ, क्या कविता, क्या कहानी, क्या उपन्यास, सब एक नाजायज़ बच्चे की तरह हैं। मेरी दुनिया की हक़ीक़त ने मेरे मन के सपने से इश्क़ किया और उसके वर्जित मेल से ये रचनाएँ पैदा हुईं। एक नाजायज़ बच्चे की किस्मत इनकी किस्मत है और इन्होंने सारी उम्र साहित्यिक समाज के माथे के बल भुगते हैं।’
हज़ारों किस्से हैं इस प्रेम कहानी के, उसके बाद भी अमृता का प्रेम के प्रति पूर्ण समर्पण इस बात का प्रमाण था कि अमृता ने किसी वजह के बिना प्रेम किया था, प्रेम को जीया था, कभी आवेग या अहम की भेंट नहीं चढ़ने दिया अपने प्रेम को, इसीलिए साहिर कभी छोड़ कर गए भी नहीं।

*इसीलिए आसां नहीं है अमृता हो जाना…..*

मेरी प्रिय लेखिका अमृता प्रीतम जी के जन्म स्मरण दिवस की हार्दिक बधाई।

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
हिन्दीग्राम, इंदौर
www.arpanjain.com

शब्द की साधना और हिन्दी पत्रकारिता

शब्द की साधना और हिन्दी पत्रकारिता

◆डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

 

शब्द-शब्द मिलकर जब ध्येय को स्थापित करते हैं, शब्द-शब्द मिलकर जब राष्ट्र का निर्माण करते हैं, शब्द-शब्द मिलकर जब सत्ता का केंद्र और जन मानस का स्वर बनते हैं, शब्द-शब्द मिलकर जब व्यक्ति से व्यक्तित्व का रास्ता बनाते हैं, तब कहीं जाकर शब्द के साधकों की आत्मा के सौंदर्य का प्रतिबोध होता है।
लगभग दो शताब्दियों तक का सफ़र तय करने वाली हिन्दी पत्रकारिता, आज आपने गौरव से सुसज्जित भी है तो वहीं कालांतर में हुए बदलाव से अचंभित भी।

बंगाल की धरती पर 30 मई 1826 में पण्डित युगल किशोर शुक्ल जी ने ‘उद्दण्ड मार्तण्ड’ नामक पहले हिन्दी अख़बार का प्रकाशन कर हिन्दी पत्रकारिता के स्वर्णिम इतिहास को लिखने वाले स्वर्ण अक्षर का टंकण किया था। निःसंदेह यह स्वर्ण अक्षर देश और दुनिया को यह अनूठी सीख भी दे गया कि भारत में अनेकता में एकता का चित्र हर जगह नज़र आ सकता है। बंगाली भाषी प्रदेश से हिन्दी पत्रकारिता की नींव का रखा जाना, इसी वृहद समन्वयक भारत की तस्वीर रही है।
इतिहास साक्षी है भारत के शब्द साधकों के श्रम का और उनके अवदान का, जिसने विश्व को पत्रकारिता के नए मानक और नए बिम्ब देकर नई दिशा भी प्रदान की है।
15-16वीं सदी में आरम्भ हुई पत्रकारिता का केंद्र रोम और यूरोप हुआ करता था, उस कालखण्ड में पत्रकारिता का उद्देश्य मनोरंजनभर से इतर कुछ नहीं था, बल्कि भारत में आरम्भ होने वाली हिन्दी पत्रकारिता ने मूल्य, मानवीयता, देश प्रेम और भारत की आज़ादी का उद्देश्य स्थापित कर विश्व को यह दिखा दिया कि हर पहलू में भारतीयता सदा से नवाचार और मूल्य आधारित मानकों की स्थापना में अव्वल है।

विश्व हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास इस बात का साक्षी है कि आज दो शताब्दी बीत जाने के बावजूद भी समय के पहिये ने धधकती आग ही लिखने का साहस किया, अवसाद और कोरोना के काल में सत्ता और राजनीति के अलावा जनमानस की आवाज़ को मुखर किया, लाशों के ढेर पर बन रही लोकतंत्र की इमारतों का विरोध किया, सकारात्मक ख़बरों का बीजारोपण करते हुए उसे अंकुरित करने का प्रयास किया, बच्चों की किलकारियों को सहेजा और आने वाली पीढ़ी के लिए नज़ीर बनने का प्रयास किया।

यह भी अटल सत्य है कि जिस तरह सर्प समय आने पर अपनी केचुली बदलता है, आदमी स्नान उपरांत कपड़े बदलता है, उसी तरह, पत्रकारिता ने भी समय के साथ कदमताल करते हुए अपने स्वरूप को लगातार बदला भी है, प्रिंट से इलेक्ट्रॉनिक, इलेक्ट्रॉनिक से रेडियो और वेब, वेब से मोबाइल पत्रकारिता इसके उदाहरण हैं। इस स्वरूप के बदलाव के मध्यकाल में कई बार मूल्यों और आदर्शों के साथ भी समझौते हुए हैं और निश्चित तौर पर आगत-अनागत का दोष भी हुआ है किन्तु इसके बावजूद भी कई तूफ़ानों को ख़ुद में समाहित करते हुए एक अजेय योद्धा की तरह हिन्दी पत्रकारिता अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर है।
साहित्य का सहज सामंजस्य साहित्यग्राम में दिखा, हिन्दी का अभिजात्य हिन्दीग्राम से बन रहा है, यही भाषाई सौंदर्य और मूल्यों की स्थापना का शिखर कलश रखा जा रहा है ताकि भविष्य के नौनिहाल हिन्दी पत्रकारिता पर गर्व करें यानी उन्हें हिन्दी के पत्रकार होने का घमण्ड हो।
हिन्दी पत्रकारिता दिवस की अशेष शुभकामनाओं के साथ…..

जय हिन्दी!

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
राष्ट्रीय अध्यक्ष, मातृभाषा उन्नयन संस्थान,
संपादक, ख़बर हलचल न्यूज़

www.arpanjain.com

 

ब्लॉगर पर ब्लॉग कैसे बनाएँ

ब्लॉगर पर ब्लॉग कैसे बनाएँ

■ *डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*

यदि आपने ब्लॉगिंग करने का निश्चय किया है तो निश्चित तौर पर आज के समय के अनुसार आपका सही निर्णय है।
निम्नलिखित प्रक्रिया और निर्देशों का पालन करते हुए आप ब्लॉग बना सकते हैं-

1. अपने वेब ब्राउज़र (क्रोम, ब्राउज़र) खोलें उसमें सबसे पहले www.blogger.com पर जाएँ।

2. ब्लॉग बनाने के लिए अपने Gmail account से sign up करें।

3. अब आपको दो option नज़र आते हैं Google+Profile और Blogger Profile किसी एक को चुनें और Profile set करें। इसके बाद Create Blog पर क्लिक करें।
उपरोक्त प्रक्रिया अपनाते ही आपको ब्लॉग दिखेगा, उसने विकल्प आएँगे जैसे-

*Title*

अपने blog का Title लिखें जैसे अगर आपके blog का address है। www.arpanjain.com है तो यहाँ पर arpan jain अथवा अर्पण जैन के आलेख। डॉ अर्पण का लेखन आदि लिखें।

*Address*
जैसे आप 204 अनु अपार्टमेंट 21/2 साकेत नगर में रहते हैं तो यह आपका भौतिक पता है, वैसे ही इंटरनेट की दुनिया में यूआरएल, वेबसाइट एड्रेस, ब्लॉग एड्रेस आपका पता होता है, जिसके माध्यम से आपके ब्लॉग को अथवा आपको गूगल पर खोजा जाता है।
अपने blog का address लिखें, यह वो एड्रेस है जिसे लोग Google में सर्च करके आपके blog तक पहुँचते हैं, जैसे www.asjainindia.blogspot.in अगर आपके द्वारा दिया गया address available होगा तो आपको “This Blog address is available” मैसेज दिखाई देगा।

*Theme*
आप अपने ब्लॉग की Theme किसी तरह की रखना चाहते हैं, उसे भी select करें जिसे आप बाद में भी बदल सकते हैं।

*Create Blog* पर क्लिक करते ही आपका blog बनकर तैयार हो चुका है।

आशा है आपको उपरोक्त प्रक्रिया समझ आ गई होगी, कहीं कोई समस्या आने पर जब आप कम्प्यूटर के सामने बैठे ब्लॉग बना रहे हो तो आप मुझे फ़ोन पर सम्पर्क कर सकते हैं, मेरा संपर्क सूत्र 09893877455 है।

 

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
हिन्दीग्राम, इंदौर

राजनीति के अजातशत्रु का यूँ चला जाना…..खल गया साहब

राजनीति के अजातशत्रु का यूँ चला जाना…..खल गया साहब

*डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’*

 

विधि के विधान के आगे विधिविद की भी नहीं चली, कर्क रोग ने जब से जकड़ा वित्त और न्याय मंत्री का दायित्व भी कमजोर होता चला गया, लंबे समय से जिंदगी और मौत के बीच संघर्ष करते-करते आखिरकार अरुण जेटली जी ने अलविदा कह दिया।
वकील पिता महाराज किशन जेटली जी व माता रतन प्रभा जेटली जी की संतान के रूप में अरुण जेटली जी का जन्म हुआ। उन्होंने अपनी विद्यालयी शिक्षा सेंट जेवियर्स स्कूल, नई दिल्ली से 1957-69 में पूर्ण की। उन्होंने अपनी 1973 में श्री राम कॉलेज ऑफ कॉमर्स, नई दिल्ली से कॉमर्स में स्नातक की। फिर 1977 में दिल्ली विश्‍वविद्यालय के विधि संकाय से विधि की डिग्री प्राप्त की। छात्र के रूप में अपने कैरियर के दौरान, उन्होंने अकादमिक और पाठ्यक्रम के अतिरिक्त गतिविधियों दोनों में उत्कृष्ट प्रदर्शन के विभिन्न सम्मानों को प्राप्त किया हैं। वो 1974 में दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संगठन के अध्यक्ष भी रहे।
अरुण जेटली ने 24 मई 1982 को संगीता जेटली से विवाह किया। उनके दो बच्चे, पुत्र रोहन और पुत्री सोनाली हैं। आपके बच्चें भी अधिवक्ता के रूप में ही कार्य कर रहें हैं।
जेटली जी का राजनैतिक सफर तब चरम पर आने लगा जब साल 1991 से भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य बनें। वह 1999 के आम चुनाव से पहले की अवधि के दौरान भाजपा के प्रवक्ता बन गए।
1999 में, भाजपा की वाजपेयी सरकार के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सत्ता में आने के बाद, उन्हें 13 अक्टूबर 1999 को सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) नियुक्त किया गया। उन्हें विनिवेश राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) भी नियुक्त किया गया। विश्व व्यापार संगठन के शासन के तहत विनिवेश की नीति को प्रभावी करने के लिए पहली बार एक नया मंत्रालय बनाया गया। उन्होंने 23 जुलाई 2000 को कानून, न्याय और कंपनी मामलों के केंद्रीय कैबिनेट मंत्री के रूप में राम जेठमलानी के इस्तीफे के बाद कानून, न्याय और कंपनी मामलों के मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार संभाला।
मई 2004 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की हार के साथ, जेटली एक महासचिव के रूप में भाजपा की सेवा करने के लिए वापस आ गए, और अपने कानूनी कैरियर में वापस आ गए।
मोदी युगीन सरकार में 26 मई 2014 को, जेटली को नवनिर्वाचित प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा वित्त मंत्री के रूप में चुना गया (जिसमें उनके मंत्रिमंडल में कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय और रक्षा मंत्री शामिल हैं।)
भारत के वित्त मंत्री के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान, सरकार ने 9 नवंबर, 2016 से भ्रष्टाचार, काले धन, नकली मुद्रा और आतंकवाद पर अंकुश लगाने के इरादे से महात्मा गांधी श्रृंखला के 500 और 1000 के नोटों का विमुद्रीकरण किया।
इसके बाद अगले आर्थिक सुधार के रूप में 20 जून, 2017 को उन्होंने पुष्टि की कि जीएसटी रोलआउट अच्छी तरह से और सही मायने में ट्रैक पर है।
यानी नोटबन्दी और जीएसटी पर जेटली जी का पहनाया चोला ही देश में चला।

विपक्षियों के भी चहेते रहें जेटली राजनीति के अजातशत्रु रहें है। आज जब दिन के 12 बजकर 7 मिनट पर उन्हें दिल्ली के एम्स अस्पताल में अंतिम सांस लेकर जेटली युग को अलविदा कह दिया तब देश ने सही मायनों में एक कुशल रणनीतिकार और गंभीर नेतृत्व खो दिया। यह नुकसान न केवल भाजपा का रहा बल्कि राष्ट्र ने भी अच्छा विधिविद खोया है।
भावपूर्ण श्रद्धांजलि सहित…

*डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’*
www.arpanjain.com

सवाल तो विधान का था…

सवाल तो विधान का था…
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■ डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’

हस्तिनापुर के अनुबंध और करार में बंधें गुरू द्रोणाचार्य ने जब वनवासी बालक और क्षेत्रीय काबिले के सरदार के पुत्र को धनुर्विद्या सीखाने से इंकार कर दिया तो वही वनवासी बलवान एकलव्य गुरु द्रोण की मूर्ति से धनुर्विद्या सीखने लगा और पारंगत होने पर उसी के जंगल में एक कुकुर का भोंकना भी वह न सह सका और शरों से उस कुकुर के मुँह को बंद कर दिया।
तभी गुरु द्रोणाचार्य और पाण्डव उसकी प्रशस्त धनुर्विद्या को खोजते-खोजते एकलव्य से जा मिले, गुरु ने संवाद के बाद जानने पर गुरुदक्षिणा में अंगूठा मांग लिया।
सवाल तो तब भी उठे, और तब भी जब गुरु द्रोण ने धनुर्विद्या सिखाने से इंकार किया ।
जबकि सच तो यह है कि अनुबंध और विधान नाम की कोई चीज होती है, इसको लेकर बुद्धिमान प्रश्न नहीं करते और उनके अतिरिक्त अन्य को आप समझा भी दोगे तो समझ नहीं आएगी, क्योंकि नीति विरुद्ध तो आप भी हो ही।
क्या एकलव्य का दोष नहीं था कि बिना गुरु द्रोण की आज्ञा के क्यों उसने उनकी मूर्ति बनाई?
सवाल तो यह भी उठा कि एकलव्य निरीह वनवासी था, तो महाशय कोई निरीह सीधा-साधा व्यक्ति धनुर्विद्या ही क्यों सीखेगा?
धनुर्विद्या वही सीखते है जिन्हें योद्धा बनना होता है, और कबिले के सरदार का बेटा यानी उस कबिले का अगला सरदार निरीह या मूर्ख नहीं हो सकता।
खैर प्रश्न यही था न कि ‘गुरु द्रोण ने एकलव्य को क्यों धनुर्विद्या नहीं सिखाई?’ और उसके उपरांत भी ‘अँगूठा क्यों दक्षिणा में मांग लिया?’
दोनों ही प्रश्नों का जवाब केवल एक ही था, वो है ‘अनुबंध या संविधान’ ।
हस्तिनापुर को दिए वचनों में धनुर्विद्या सिखाने का अनुबंध केवल हस्तिनापुर के राजपुत्रों से था, अतिरिक्त किसी को वो सिखा नहीं सकते थे और यही जब एकलव्य ने किया तो दुनिया वाले उनके बाद ये नहीं कहें कि गुरु द्रोणाचार्य वचन के पक्के या विधान के पक्के नहीं थे इसलिए अँगूठा दक्षिणा में मांगा।
इसके अतिरिक्त एक और बात कि गुरु द्रोण भी जानते थे कि कौन किस विद्या को प्राप्त करने का अधिकारी है , एक निरीह श्वान पर अपनी विद्या का प्रयोग करने वाला धैर्यवान योद्धा हो ही नहीं सकता।

अब बात विधान, संविधान और अनुबंध की करते है-
प्रत्येक जीवन में, संस्था में, ग्राम, नगर,प्रान्त और राष्ट्र में संचालन विधान और संविधान अनुरूप होता है।
संचालन की सुस्पष्टता उसमें निहित संवैधानिक शक्तियों के कारण होती है। नियमों से बंधा जीवन अलंकार होता है।
कोई व्यक्ति हठ कर सकता है, किन्तु संस्था, राज्य, राष्ट्र हठी नहीं हो सकतें ,यदि ऐसा होता है तो उस संस्था, राज्य और राष्ट्र की अवनति तय है।
उसके संचालन हेतु बनाए गए नियमों को मानना ही होता है, उदाहरण के लिए कोई अति बुद्धिमान व्यक्ति यह कहता है कि केवल उसके लिए नियम बदल दो तो यह न संस्थान, राज्य या राष्ट्र के लिए संभव है, क्योंकि ये संवैधानिक व्यवस्था से चलने वाला तंत्र है।
संस्थान या राष्ट्र किसी का घर नहीं जो आपके व्यक्तिगत के लिए नियमों को ताक में रख दें।
उसके उपरांत भी व्यक्तिगत मदद की जा सकती है, किन्तु संस्थागत नियमों का उलंघन करके एक परिपाठी न बनाने की इच्छा भी संवैधानिक कमेटी की होती है।
नियमों को तोड़ने की प्रगाढ़ता चाहने वाले शाख से टूट जाया करते है और उसके बाद खुद के वजूद तलाशते रहते है।
वैसे जो संस्थान या राष्ट्र में दोगला चरित्र निभाते है, इधर-उधर की करने में जीते है, केवल अपना सम्मान, मंच औऱ पैगाम चाहते है वो भी तो कहाँ टिक पाते है। उनके हाथ क्या आता है वो भी जग जाहिर है। वो दो ही कोढ़ी के होते है, इसमें कोई शक भी नहीं है। यदि नियमों से बंधे रहें तो लहरों से भी मोहब्बत मिलती है, वरना ज्वार बनकर लहरें ही डूबा देती है। इसलिए संविधान और विधान का मान आवश्यक है।

*– डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’*