विचार

‘घर में एक महँगी सामग्री कम लाना पर छोटा-सा पुस्तकालय अवश्य बनाना। पुस्तकें सदैव सहायक होती हैं।’

-डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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लघुकथा – उम्र का साथ

सबेरे सबेरे घर के पास ही बने गार्डन में लगभग 10 से 12 लोग जमा होकर बातचीत करते रहते हैं, आशिमा के दद्दू भी रोज जाया करते है। मार्निग वॉकर क्लब भी बना हुआ है उनका और हफ्ते में रविवार का उन सब को बेसब्री से इंतजार रहता हैं|
रविवार को वे सब टोली सहित आनंद बाजार में प्रशान्त उसल पर उसल पोहा और जलेबी खाते है।
एक दिन आशिमा से रहा नहीं गया और उसने दद्दू से आखिर पूछ ही लिया,
दद्दू ! आप रोज क्यों गार्डन जाते है?
और आखिर रविवार का ही क्यों इंतजार करते हो जबकि आप चाहों तो रोज पोहा-जलेबी घर में खा सकते हो |
पर…..!
इतना कहना ही था आशिया का और दद्दू ने जवाब दिया “बेटा, अब तुम सब घर में तो दिनभर मोबाईल, कम्प्यूटर में लगे रहते हो, तुम्हारे पास कौन-सा हमारे लिए समय होता है, ऐसे में मार्निग वॉकर क्लब ही बची हुई जिन्दगी का सहारा है।”

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

लघुकथा- बदलाव

“अरे आश्वस्ति! तुम अपने मायके से इतनी जल्दी कैसे आ गई?” पड़ोस वाली भाभी ने लौटती हुई आश्वस्ति से पूछा।

“अब क्या ही बताऊँ भाभी! आजकल मायके से ज़्यादा अपना घर याद आता है। वहाँ भी भाभी, भैया की अपनी ज़िंदगी है। उनके भी अपने काम हैं। एक समय बाद मायका बदल ही जाता है।”

“अच्छा! क्या इसीलिए तुम्हारी ननद भी आजकल छुट्टियों में तुम्हारे घर कम आती है?”

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

डॉ. अर्पण जैन अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से सम्मानित

अभिनेता आशुतोष राणा, संस्कृति मंत्री उषा ठाकुर ने किया सम्मानित

Drarpanjainavichal

 

इन्दौर : मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष, मातृभाषा डॉट कॉम के संस्थापक-सम्पादक डॉ. अर्पण जैन ’अविचल’ को मंगलवार को रवीन्द्र भवन, भोपाल में साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश शासन द्वारा अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार 2020 से नवाजा गया।मुख्य अतिथि मध्यप्रदेश की संस्कृति मंत्री उषा ठाकुर, विशिष्ट अतिथि अभिनेता आशुतोष राणा एवं संस्कृति मंत्रालय के संचालक अदिति कुमार त्रिपाठी ने डॉ. अर्पण जैन को इस पुरस्कार से सम्मानित किया।

बता दें कि नारद मुनि पुरस्कार में शासन द्वारा एक लाख रुपए की राशि प्रदान की जाती है।
डॉ. अर्पण जैन को यह पुरस्कार मातृभाषा. कॉम के लिए प्राप्त हुआ है। विगत सात वर्षों से हिन्दी के रचनाकारों का लेखन मातृभाषा .कॉम पर प्रकाशित किया जा रहा है, जिससे लगभग तीन हज़ार से अधिक लेखक व 20 लाख से अधिक पाठक जुड़े हैं।

डॉ. जैन के पुरस्कृत होने पर सुप्रसिद्ध कहानीकार डॉ. कृष्णा अग्निहोत्री, हिन्दी गौरव राजकुमार कुम्भज, साहित्यकार दामोदर खड़से, इन्दौर प्रेस क्लब अध्यक्ष अरविंद तिवारी, मातृभाषा उन्नयन संस्थान की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ. नीना जोशी, राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष शिखा जैन, राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य नितेश गुप्ता, भावना शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रघुवंशी, श्रीमन्नारायण चारी विराट एवं प्रदेश इकाइयों सहित सैंकड़ो सुधीजन ने शुभकामनाएँ दी।

संकट में है अख़बार, भविष्य अधर में

✍🏻 *डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*

‘एक समय आएगा जब अख़बार रोटरी पर छपेंगे, संपादकों की ऊँची तनख्वाह होगी, पर तब संपादकीय संस्थाएँ समाप्त हो जाएँगी।’ ऐसी बात आज़ादी के पहले बाबू विष्णु पराड़कर जी लिख गए, जो आज अक्षरश: सत्य नज़र आ रही है।
आज संपादकीय संस्थान तो विज्ञापन या कहें सर्कुलेशन विभाग के मुनाफ़े और आज्ञा पर ही जीवित हैं।
असल बात तो यह है कि हिंदुस्तानी अख़बार दुनिया का एकमात्र ऐसा हसीन उत्पाद (प्रोडक्ट) है, जो अपनी लागत मूल्य से कम से कम पाँच या दस गुना कम मूल्य में बिकता है क्योंकि शेष लाभ विज्ञापन आधारित माना जाता है।
इसी कारण संपादकीय विभाग भी विज्ञापन विभाग के दबाव में रहने लगा है।
इस मूल्य की क्षीणता के साथ ही वर्तमान समय में देशबन्दी के कारण अख़बारी दुनिया केवल खानापूर्ति मात्र हो रही है।
अख़बारों को संचालित करने वाली व्यवस्था, जिसे विज्ञापन कहते हैं, वो अख़बारों से गायब है, और जब विज्ञापन नहीं होंगे तो अख़बार कैसे ज़िंदा रहेगा!
हालात तो यह है कि देश के कई मीडिया संस्थान कर्ज़े में हैं, घाटे में हैं, कई महीनों से नियमित तनख्वाह तक दे पाने में असमर्थ हैं। इसके बावजूद कोरोना कहर के कारण वितरण भी प्रभावित है और समाचार भी।
ऐसी स्थिति में अख़बारों का प्रबंधन वेंटिलेटर पर आ जाएगा। आर्थिक रूप से टूटे हुए अख़बारी लोग तनख्वाह, भत्ते आदि से परेशान रहेंगे, नौकरियों में संकट आना स्वाभाविक है और कामगारों और पत्रकारों के लिए दुगुनी चिंता क्योंकि समय पर वेतन न मिलने का बोझ और नौकरी करने के कारण जेब से ख़र्च करके नियमित काम करने का भी तनाव। यहाँ तक कि अख़बारी काग़ज़, स्याही आदि ख़रीदी की भी चिंता। इन सबके बावजूद भी अख़बार के घटते पाठक या ग्राहक और डिजिटल मीडिया पर भरोसा करते हुए लोग भी तो अख़बारी पाठन से दूर हो रहे हैं।
वैसे भी विश्व के कई देशों में प्रिंट मीडिया ने अपना रुख इंटरनेट मीडिया की ओर काफ़ी पहले कर लिया है, बीते एक दशक से तो डिजिटल संस्करण श्रेष्ठ विकल्प बनकर उभर रहे हैं।
ऐसे मुश्किल हालात में सरकारों को भी नियमित अख़बारी छपाई को रोक कर डिजिटल संस्करण को अधिक मान्यता देनी चाहिए।
काग़ज़ भी बचेगा यानी जंगल बचेंगे और साथ में यह उद्योग भी लाभ के उद्योग में तब्दील हो पाएगा।
इस संकट की घड़ी में ही सही किन्तु सरकारें यदि नियमित छपी हुई प्रति की माँग को समाप्त कर दें तो शायद अख़बारी दुनिया भी डिजिटल की ओर रुख कर लें, वैसे भी डिजिटल संस्करण की ताक़त ज़्यादा होती है।
और अभी की देशबन्दी के हालातों के बाद तो यकीन जानिए आगामी एक वर्ष तो विज्ञापनों की आमद होने में संकट है और बिना विज्ञापन के अख़बार का भविष्य भी संकट में ही है।
कवि कुमार विश्वास कहीं लिखते है कि
‘जिसके विरुद्ध था युद्ध उसे
हथियार बना कर क्या पाया?
जो शिलालेख बनता उसको
अख़बार बना कर क्या पाया?’
आज अख़बार की दुनिया दोतरफ़ा संकट में है। मूल्यों का क्षरण तो लगातार हो ही रहा है और आर्थिक रूप से पड़ने वाली मार तो ज़्यादा संकट में डालेगी।
डिजिटल दुनिया में तो एक लाभ और भी है कि आप अपने विज्ञापनदाताओं को यह स्पष्टता के साथ बता पाओगे कि कितने लोगों ने विज्ञापन देखा जबकि अख़बार में यह सुनिश्चितता तो है ही नहीं। इसी के चलते ज़्यादा विज्ञापन मिलेंगे क्योंकि कम लागत में विज्ञापनदाताओं का लाभ अधिक है। समय रहते यदि अख़बार नहीं संभल पाए तो आर्थिक, सामाजिक और व्यवस्थाजन्य तो कमज़ोर होंगे ही, साथ में अस्तिव भी संकट में आ जाएगा। जागना आवश्यक है, वर्ना, अख़बार का भविष्य खतरे से खाली नहीं है ।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
ख़बर हलचल न्यूज़, इंदौर

लता मंगेशकर : स्वर की अधिष्ठात्री का महाप्रयाण

फरवरी की छहः तारीख, रविवार की सुबह जिस बुरी ख़बर को लाई, वो कभी न् भूल पाने वाली ख़बर रही। इन्दौर में जन्मी और पूरे भारत ही नहीं अपितु वैश्विक मण्डल में अपने स्वर से स्वयं को स्थापित करने वाली साधिका लता मंगेशकर की सुरलोक की यात्रा का समाचार स्तब्ध कर गया।

आज हजारों गीत रो रहें है, गीतों का रुदन यदि सुनना चाहते है तो बम्बई के प्रभु-कुंज की ओर देखिए। जो शब्द पूजनीया लता दीदी के कंठ से अवतरित हुए होंगे उनका अभिमान निश्चित तौर पर चरम पर होगा और आज वें लाखों शब्द आज रो रहें होंगे।
स्वर और शब्दों पर लता ताई की अद्भुत पकड़ रही, लता ताई मंगेशकर को स्वरों की अधिष्ठात्री भी कहा जाएँ तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ऐसी स्वर अधिष्ठात्री के अवसान से आज समूचा भारत स्तब्ध हैं।
यह गौरव इन्दौर के खाते में दर्ज हुआ कि इस मालवा की धीर-वीर, गम्भीर और रत्नगर्भा धरती पर लता ताई का जन्म हुआ। वैसे संगीत समृद्ध शहर इन्दौर कला, साहित्य और पत्रकारिता की भी उर्वरक धरा हैं।
आज स्वर साम्राज्ञी के इह लोक से सुरलोक की यात्रा के लिए प्रस्थान को नियति ने तय किया और भारत भू से अपने प्रदत्त स्वर को बैकुण्ठ के कंठ में पुनः प्रविष्ठ कर लिया किन्तु खाली रह गया तो केवल यह भूमि का टुकड़ा जिसे हम भारत कहते हैं।
निश्चित तौर लता जी के महाप्रयाण से संगीत, गायकी और फ़िल्म जगत ही नहीं वरन् समूची भारत भूमि प्रभावित हुई है। हज़ारों गायिकाओं की आदर्श और हिन्दी गीतों की अनंत यात्रा का नाम लता मंगेशकर हुआ करता हैं।
कहते है मुम्बई में भी इन्दौर लता दीदी के रूप में धड़कता रहा हैं। इन्दौर और मध्यप्रदेश से लता दीदी बेहद प्यार करती रही, उनके नाम पर शासन द्वारा लता अलंकरण भी दिया जाता हैं। इन्दौर की एक गली जिसे पताशे वाली गली के नाम से भी प्रसिद्धि मिली जहाँ लता जी का जन्म हुआ।
28 सितंबर 1929 को इंदौर के एक मध्यमवर्गीय मराठा परिवार में जन्मीं लता मंगेशकर का नाम पहले हेमा था। हालांकि जन्म के 5 साल बाद माता- पिता ने इनका नाम बदलकर लता रख दिया था।
पंडित दीनानाथ मंगेशकर जी की सुपुत्री व शिष्या लता ताई किसी विद्यालय नहीं गई किन्तु बीसियों विश्वविद्यालयों ने उन्हें सम्मान स्वरूप डॉक्टरेट प्रदान कर शैक्षिण अभिनंदन किया हैं।
अपनी मधुर आवाज से लोगों को दीवाना बनाने वाली लता मंगेशकर जी ने लंबे समय तक अपने गीतों से दर्शकों का मनोरंजन किया। फिल्म इंडस्ट्री में स्वर कोकिला के नाम से मशहूर लता जी के गाने आज भी लोगों के मानस में जीवित है। हिंदी सिनेमा की इस दिग्गज गायिका के गाने ना सिर्फ बीती पीढ़ी के लोग पसंद करते हैं, बल्कि नई पीढ़ी भी इन्हें बड़े शौक से सुनती है। अपनी दमदार आवाज के दम पर इंडस्ट्री में एक अलग पहचान बनाने वालीं लता मंगेशकर आज भी करोड़ों दिलों की धड़कन हैं। ‘भारत रत्न’ से सम्मानित मशहूर गायिका लता मंगेशकर अपने अनूठे अंदाज़ के लिए भी जानी जाती रही हैं।
गीतकार प्रेम धवन ने लता जी के व्यक्तित्व पर एक कविता लिखी थी जिसमें दृश्य यह था कि गिरधर कृष्ण ने जब यह बात याद दिलाई होगी कि आपने वादा किया था जन्म लेने का तब कृष्ण का उत्तर रहा होगा कि वो तो नहीं आएँ अब तक पर पहले अपनी बाँसुरी भारत में भेजी है उस बाँसुरी का नाम भारत रत्न लता मंगेशकर है ।
50,000 से ज्यादा गीतों को अपनी आवाज दे चुकीं लता जी ने करीब 36 क्षेत्रीय भाषाओं में भी गाने गाए, जिसमें मराठी, बंगाली और असमिया भाषा शामिल है।92वें वर्ष की दैहिक आयु को तजकर आज स्वर कोकिला अपनी अनंत यात्रा पर प्रस्थान कर गई। स्वर कोकिला ने देह परिवर्तन कर लिया, पर यक़ीन् जानना वह हमारे बीच हमेशा रही है और हमेशा रहेंगी।
विधि के विधान के आगे हम नतमस्तक है। भारत रत्न, पूजनीया लता मंगेशकर जी के चरणों में विनम्र प्रणाम सहित स्वर साम्राज्ञी लता ताई को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
राष्ट्रीय अध्यक्ष, मातृभाषा उन्नयन संस्थान, इन्दौर

पत्रकारिता के मेरूदंड की सबलता ज़रूरी

पत्रकारिता के मेरूदंड की सबलता ज़रूरी

डॉ.अर्पण जैन ‘अविचल’

शब्द-शब्द मिलकर जब ध्येय को स्थापित करते हैं, शब्द-शब्द मिलकर जब राष्ट्र का निर्माण करते हैं, शब्द-शब्द मिलकर जब सत्ता का केंद्र और जन मानस का स्वर बनते हैं, शब्द-शब्द मिलकर जब व्यक्ति से व्यक्तित्व का रास्ता बनाते हैं, तब कहीं जाकर शब्द के साधकों की आत्मा के सौंदर्य का प्रतिबोध होता है।
लगभग दो शताब्दियों तक का सफ़र तय करने वाली हिन्दी पत्रकारिता, आज अपने गौरव से सुसज्जित भी है तो वहीं कालांतर में हुए बदलाव से अचंभित भी।

भारत एक गाँव प्रधान देश है, जहाँ लगभग अस्सी प्रतिशत जनसंख्या गाँव में निवास करती है, राजनीति के अधिकांश निर्णय गाँव से होते हैं, सरकारें गाँव से बनती हैं और बिगड़ती हैं। इसी गाँव की महिमा का केन्द्र आंचलिक पत्रकार भी हैं। देश की बहुसंख्यक आबादी को ख़ुशहाल बनाने में आंचलिक पत्रकारिता की निर्णायक भूमिका हो सकती है किंतु उसी ग्राम प्रधान देश में ग्रामीण पत्रकारिता हाशिए पर जाती जा रही है।

अभी तक पत्रकारिता का केंद्र केवल राजनीति के गलियारों की चहलकदमी, अपराध व कारोबार के अलावा कहीं और रहा भी नहीं, जिन मुद्दों से आम जनमानस का जुड़ाव संभव हो सके। महानगरों के गलियारों के इर्द-गिर्द घूमती पत्रकारिता देश की अस्सी फ़ीसदी आबादी को पीछे छोड़ती नज़र आती है।
शहरी पत्रकारिता को गाँव की याद तभी आती है, जब कोई बड़ा हादसा हो या फिर कोई बड़ी घटना होना या राजनेताओं का दौरा होता है तब आती वर्ना बड़ा पत्रकार कभी नज़र भी नहीं डालता गाँव की तरफ़, न मीडिया संस्थान ध्यान देते हैं गाँव में बसने वाले आंचलिक पत्रकारों की ओर।

आज पत्रकारिता का मूल मक़सद है, मुनाफ़ा कमाना। मुनाफ़ा शहरी लोगों के बीच से होकर जाता है, आज पत्रकारिता कॉरपोरेट और शहरी लोगों का विशुद्ध खिलौना बनकर रह गई है। भारतीय पत्रकारिता में किसानों और ग्रामीण क्षेत्रों की समस्याओं के लिए कोई जगह नहीं रह गई है। इस दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार किसानों की बढ़ती आत्महत्या, ग़रीबी, अशिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था को मीडिया कवरेज नहीं मिल पाने से ग्रामीण लोग तो पत्रकारिता का लाभ भी नहीं उठा पाते हैं। टी.वी. चैनलों और बड़े अख़बारों की सीमा यह है कि वे ग्रामीण क्षेत्रों में अपने संवाददाताओं को स्थायी रूप से तैनात नहीं कर पाते हैं। कुल मिलाकर, ग्रामीण पत्रकारिता की जो भी झलक विभिन्न समाचार माध्यमों में आज मिल पाती है, उसका श्रेय अधिकांशत: जिला मुख्यालयों में रहकर अंशकालिक रूप से काम करने वाले बहुतायत में काम करने वाले अप्रशिक्षित पत्रकारों को जाता है। आख़िर देश की अस्सी फ़ीसदी जनता, जिनके बलबूते पर हमारे यहाँ सरकारें बनती हैं, जिनके नाम पर सारी राजनीति की जाती है, जो देश की अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक योगदान करते हैं, उन्हें पत्रकारिता की मुख्य धारा में लाया ही जाना चाहिए। मीडिया को नेताओं, अभिनेताओं और बड़े खिलाड़ियों के पीछे भागने की बजाय उसे आम जनता की तरफ़ रुख़ करना चाहिए, जो गाँव में रहती है, जिनके दम पर यह देश और उसकी सारी व्यवस्था चलती है।
मीडिया संस्थान ग्रामीण क्षेत्रों में पत्रकार ही नहीं रखते, केवल एजेंट बनाते हैं, आख़िर क्यों उपेक्षाओं का शिकार है ग्रामीण पत्रकारिता?
आज़ादी के बाद जो ह्रास राजनीति का हुआ, वही पत्रकारिता का भी हुआ है। हम गाँव से आये लेकिन गाँव को भूलते चले गये। लेकिन जिस प्रकार ‘ग्रामीण पत्रकारिता’ को उभर कर आना चाहिये, नहीं आया है। गाँव की समस्याओं को सुलझाने में क्या मिलने वाला है! शहर में शान है, शोहरत है, पैसे हैं, लेकिन गाँव में ख़बरें हैं।

भारत में पत्रकारिता की रीढ़ यदि कहीं से मज़बूत होती है तो वह है आंचलिक पत्रकारिता से। और इस समय जब देश में मीडिया पर उसके अस्तित्व और विश्वसनीयता का संकट मंडरा रहा है तो पत्रकारिता के शीर्षस्थ संस्थानों और वैचारिक बुद्धिजीवी लोगों को पत्रकारिता के मेरुदण्ड को मज़बूत करना चाहिए। अंचल में सैंकड़ो ख़बर के चक्रव्यूह के बीच एक आंचलिक पत्रकार अभिमन्यु की भाँति घुस तो गया है किंतु उसी चक्रव्यूह का स्याह पक्ष आर्थिक मज़बूती भी है, यदि उस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो यह अभिमन्यु चक्रव्यूह में दम तोड़ देगा। इसी के साथ, मेरुदण्ड के कमज़ोर होने अथवा टूटने से पत्रकारिता की इमारत बुलंदी पर पहुँच कर भी आधारहीन हो जाएगी।
इस कालखण्ड में विश्वसनीयता, प्रामाणिकता और प्रवर्तक भूमिका मिलकर पत्रकारिता के परमवैभव की स्थापना करेंगे और इसके लिए येन-केन-प्रकारेण सभी जागृत संस्थानों, मीडिया क्लबों, समितियों को आंचलिक पत्रकारिता के उन्मेष के लिए प्रमुखता से कार्य करना होगा।
प्रशिक्षण, कार्यशालाओं के साथ-साथ आर्थिक सबलता की दृष्टि से भी उन्हें मज़बूत करना होगा। क्योंकि जो कुछ भी श्रेष्ठ अब शेष है, वह उस नदी के प्रवाह आंचलिक पत्रकारिता के अवदान से रेखांकित होगा। आंचलिक पत्रकारिता में न केवल ख़बरों की जीवंतता है बल्कि मीडिया की विश्वसनीयता भी यथायोग्य बनी हुई है। समय रहते आंचलिक पत्रकारिता को मज़बूत और सबल नहीं बनाया तो रीढ़ विहीन पत्रकारिता मेरुदण्ड विहीन समाज का निर्माण करेगी, जिससे हम अपने ही अर्थों और अस्तित्व में बौने हो जाएँगे।

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
पत्रकार, स्तंभकार एवं राजनैतिक विश्लेषक

संपर्क: 9893877455
ईमेल: arpan455@gmail.com
अंतरताना:www.arpanjain.com

[लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं]

 

जननायक या चुनावी नायक बन गए टंट्या मामा

जननायक या चुनावी नायक बन गए टंट्या मामा

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दुःख की गगरी के पार महादेवी वर्मा

_पुण्यस्मरण विशेष_

दुःख की गगरी के पार महादेवी वर्मा

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*

 

न लिबास कोई गेरुआ, न किसी संत के सम्मुख दीक्षित, लिखा वही जो देखा, रंगों के उत्सव के दिन जन्मी पर ताउम्र एक रंग ही भाया। गद्य भी लिखे, पद्य भी लिखे, प्रेम भी लिखा, विरह भी समझाया, आदि भी लिखा, अनंत भी समझाया, मौन भी लिखा, उत्सव भी दिखाया, ऐसी हिन्दी साहित्य की आधुनिक मीरा महादेवी कहलाई।
यह सत्य है कि इस मीरा ने अपना सर्वस्व अपने साहित्य को समर्पित कर दिया, अपना बचपन, अपना यौवन और उम्र भर साहित्य को अर्पण कर युगों-युगों तक गीतों और प्रेम पुजारिन की तरह अमर हो गई।
जब एक विरहणी स्त्री के रो देने से कोई गुरुदेव रवीन्द्रनाथ बन जाता है तो सोचिये जब ख़ुद एक विरहणी स्त्री ही सृजन का ध्वज थाम ले तो विजय का कैसा महोत्सव बन जाया करता है।
महादेवी वर्मा ने पथ के साथी और अतीत के चलचित्र लिखे, दीपशिखा में शृंगार लिखा, नीहार, रश्मि, नीरजा में पूरा काव्यालय परोस दिया, इसीलिए निराला ने उन्हें हिन्दी साहित्य के मंदिर की सरस्वती भी कहा। सप्तपर्णा, प्रथम आयाम और अग्निरेखा ने काव्य प्रतिमा का सृजन किया तो क्षणदा जैसे ललित निबंध और गिल्लू जैसी कहानी भी लिख कर हिन्दी सेवा की।
महादेवी का कृतित्व जितना निराला था, उतना ही अद्भुत व्यक्तित्व भी था। महीयसी महादेवी का चिर-परिचित अंदाज़, जिसमें लोकमंगल ही निहित रहा।
उन्होंने हिन्दी कविता को बृजभाषा की कोमलता दी, छंदों के नये दौर को गीतों का भंडार दिया और भारतीय दर्शन को वेदना की हार्दिक स्वीकृति दी। भावात्मकता एवं अनुभूति की गहनता को स्थापित करके छायावाद के गौरव शिखर की स्थापना का श्रेय भी महादेवी को ही जाता है।
समाज सुधार और नारी स्वतंत्रता जैसे विषयों के माध्यम से भावना का सूत्र पिरोने वाली यह ममतामयी महादेवी ही हैं, जिन्होंने समाज को नवजागरण की तरफ़ मोड़ा। स्त्रीत्व को प्रेम के अरुणोदय के रूप में समझाकर यशस्वी बोध दिया।
जिनकी बेटियों की उपमाओं से संसार की सैंकड़ो हिन्दी व साहित्यसेवी स्त्रियाँ सुशोभित होकर आरूढ़ हैं, ऐसी श्वेतवस्त्र धारिणी शुभ्रा अनंत तक प्रेम गीतों और हिन्दी काव्य की मणिमाला बनकर पथ प्रदर्शित करती रहे। माँ अहिल्या की नगरी इंदौर से भी जिनका रिश्ता रहा, ऐसी अडिग अहिल्यासम महादेवी वर्मा जी को असंख्य कोटी नमन !

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
हिन्दीग्राम, इंदौर

आसां नहीं है इश्क़ में अमृता हो जाना

जन्मदिवस विशेष

सां नहीं है इश्क़ में अमृता हो जाना

Amrita pritam
Amrita pritam

‘मैं उस प्यार के गीत लिखूँगी,
जो गमले में नहीं उगता,
जो सिर्फ़ धरती में उग सकता है।’

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अमृता प्रीतम

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🖊 *डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*

दो किताबें पढ़ीं, ‘मन मिर्ज़ा , तन साहिबा’ और ‘इश्क़ अल्लाह हक़ अल्लाह’, इसके पहले केवल नाम भर सुना। पढ़ने के बाद लगा मानो प्रेम और जीवन दर्शन का बेहतरीन सामंजस्य कहीं है तो वह इसी लेखिका की लेखनी में है। उसके बाद अमृता जी की किताबें छोड़ने का मन नहीं हुआ।
और ये भी सच है कि अमृता जी ने वही लिखा, जो उनके जीवन में घटित हुआ, कोई कपोल कल्पित पात्र नहीं, बल्कि यथार्थ स्वीकृति के साथ।
कहते हैं, स्कूटर चलाते हुए इमरोज़ की पीठ पर नाम साहिर होता था और लिखने वाली अमृता। किन्तु यह भी सच है कि इमरोज़ जी भी अमृता जी से ही बहुत प्यार करते थे, हमेशा उनका ख़्याल रखना, अपनी तस्वीरों में अमृता जी को उकेरना, यही इमरोज़ का काम होता था।

मेरी सबसे प्रिय लेखिका हैं अमृता प्रीतम जी…..आजकल की महिला लेखिकाओं को अमृता जी से प्रेरणा लेनी चाहिए।
‘मन मिर्ज़ा, तन साहिबा’ इनकी एक पुस्तक है, जिसे हर व्यक्ति को पढ़ना चाहिए। लेखन की गहराई और सूक्ष्मता की प्रतिबोधक देखने के लिए कुछ पढ़ना है, उसमें एक नाम शामिल होगा अमृता प्रीतम जी का।

हज़ारों किस्से, प्रीतम को छोड़ कर साहिर के इश्क़ में डूब जाना, इसके बाद इमरोज़ का अमृता को चाहना और अमृता का साहिर को। इन्हीं किस्सागोई के बीच कुछ शेष था तो वह प्रेम ही था।
कभी अमृता और साहिर का प्रेम अहम की टकसाल से नहीं गुज़रा, न ही अमृता ने थोपना अपनी आदत बनाया। इसीलिए वह प्रेम अमर हुआ।
चाय का एक झूठा कप, जली हुई सिगरेट के कुछ टुकड़े, कुछ किस्से, कुछ यादें और ढेर सारे खुतूत। साहिर और अमृता की मोहब्बत की ये कुल जमा-पूंजी थी।
अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में अमृता प्रीतम ने साहिर के साथ हुई मुलाक़ातों का ज़िक्र किया है। वो लिखती हैं कि, ‘जब हम मिलते थे, तो ज़ुबां ख़ामोश रहती थी, नैन बोलते थे। दोनों बस एक टक एक-दूसरे को देखा करते और इस दौरान साहिर लगातार सिगरेट पीते रहते थे। मुलाक़ात के बाद जब साहिर वहाँ से चले जाते, तो अमृता अपने दीवाने की सिगरेट के टुकड़ों को लबों से लगाकर अपने होंठों पर उनके होंठों की छुअन महसूस करने की कोशिश करती थीं।
अमृता प्रीतम और साहिर की मोहब्बत की राह में कई रोड़े थे। एक वक़्त था, जब अमृता और साहिर दोनों लाहौर में रहा करते थे। फिर मुल्क़ तकसीम हो गया। अमृता अपने पति के साथ दिल्ली आ गईं। साहिर मुंबई में रहने लगे। अमृता अपने प्यार के लिए शादी तोड़ने को तैयार थीं। बाद में, वो अपने पति से अलग भी हो गईं। दिल्ली में एक लेखिका के तौर पर वो अपने स्थान और शोहरत को भी साहिर पर क़ुर्बान करने को तैयार थीं।
साहिर ने अमृता को ज़हन में रखकर न जाने कितनी नज़्में, कितने गीत, कितने शे’र और कितनी ग़ज़लें लिखीं। वहीं अमृता प्रीतम ने भी अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में खुलकर साहिर से इश्क़ का इज़हार किया है।
कोई कल्पित कहानी नहीं थी अमृता और साहिर के बीच, इश्क़ अल्लाह हक़ अल्लाह की तरह अमृता और साहिर केवल प्रेम करते थे, और प्रेम को अमर कर गए।
अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ की भूमिका में अमृता प्रीतम लिखती हैं – ‘मेरी सारी रचनाएँ, क्या कविता, क्या कहानी, क्या उपन्यास, सब एक नाजायज़ बच्चे की तरह हैं। मेरी दुनिया की हक़ीक़त ने मेरे मन के सपने से इश्क़ किया और उसके वर्जित मेल से ये रचनाएँ पैदा हुईं। एक नाजायज़ बच्चे की किस्मत इनकी किस्मत है और इन्होंने सारी उम्र साहित्यिक समाज के माथे के बल भुगते हैं।’
हज़ारों किस्से हैं इस प्रेम कहानी के, उसके बाद भी अमृता का प्रेम के प्रति पूर्ण समर्पण इस बात का प्रमाण था कि अमृता ने किसी वजह के बिना प्रेम किया था, प्रेम को जीया था, कभी आवेग या अहम की भेंट नहीं चढ़ने दिया अपने प्रेम को, इसीलिए साहिर कभी छोड़ कर गए भी नहीं।

*इसीलिए आसां नहीं है अमृता हो जाना…..*

मेरी प्रिय लेखिका अमृता प्रीतम जी के जन्म स्मरण दिवस की हार्दिक बधाई।

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
हिन्दीग्राम, इंदौर
www.arpanjain.com