शब्द की साधना और हिन्दी पत्रकारिता

◆डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

 

शब्द-शब्द मिलकर जब ध्येय को स्थापित करते हैं, शब्द-शब्द मिलकर जब राष्ट्र का निर्माण करते हैं, शब्द-शब्द मिलकर जब सत्ता का केंद्र और जन मानस का स्वर बनते हैं, शब्द-शब्द मिलकर जब व्यक्ति से व्यक्तित्व का रास्ता बनाते हैं, तब कहीं जाकर शब्द के साधकों की आत्मा के सौंदर्य का प्रतिबोध होता है।
लगभग दो शताब्दियों तक का सफ़र तय करने वाली हिन्दी पत्रकारिता, आज आपने गौरव से सुसज्जित भी है तो वहीं कालांतर में हुए बदलाव से अचंभित भी।

बंगाल की धरती पर 30 मई 1826 में पण्डित युगल किशोर शुक्ल जी ने ‘उद्दण्ड मार्तण्ड’ नामक पहले हिन्दी अख़बार का प्रकाशन कर हिन्दी पत्रकारिता के स्वर्णिम इतिहास को लिखने वाले स्वर्ण अक्षर का टंकण किया था। निःसंदेह यह स्वर्ण अक्षर देश और दुनिया को यह अनूठी सीख भी दे गया कि भारत में अनेकता में एकता का चित्र हर जगह नज़र आ सकता है। बंगाली भाषी प्रदेश से हिन्दी पत्रकारिता की नींव का रखा जाना, इसी वृहद समन्वयक भारत की तस्वीर रही है।
इतिहास साक्षी है भारत के शब्द साधकों के श्रम का और उनके अवदान का, जिसने विश्व को पत्रकारिता के नए मानक और नए बिम्ब देकर नई दिशा भी प्रदान की है।
15-16वीं सदी में आरम्भ हुई पत्रकारिता का केंद्र रोम और यूरोप हुआ करता था, उस कालखण्ड में पत्रकारिता का उद्देश्य मनोरंजनभर से इतर कुछ नहीं था, बल्कि भारत में आरम्भ होने वाली हिन्दी पत्रकारिता ने मूल्य, मानवीयता, देश प्रेम और भारत की आज़ादी का उद्देश्य स्थापित कर विश्व को यह दिखा दिया कि हर पहलू में भारतीयता सदा से नवाचार और मूल्य आधारित मानकों की स्थापना में अव्वल है।

विश्व हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास इस बात का साक्षी है कि आज दो शताब्दी बीत जाने के बावजूद भी समय के पहिये ने धधकती आग ही लिखने का साहस किया, अवसाद और कोरोना के काल में सत्ता और राजनीति के अलावा जनमानस की आवाज़ को मुखर किया, लाशों के ढेर पर बन रही लोकतंत्र की इमारतों का विरोध किया, सकारात्मक ख़बरों का बीजारोपण करते हुए उसे अंकुरित करने का प्रयास किया, बच्चों की किलकारियों को सहेजा और आने वाली पीढ़ी के लिए नज़ीर बनने का प्रयास किया।

यह भी अटल सत्य है कि जिस तरह सर्प समय आने पर अपनी केचुली बदलता है, आदमी स्नान उपरांत कपड़े बदलता है, उसी तरह, पत्रकारिता ने भी समय के साथ कदमताल करते हुए अपने स्वरूप को लगातार बदला भी है, प्रिंट से इलेक्ट्रॉनिक, इलेक्ट्रॉनिक से रेडियो और वेब, वेब से मोबाइल पत्रकारिता इसके उदाहरण हैं। इस स्वरूप के बदलाव के मध्यकाल में कई बार मूल्यों और आदर्शों के साथ भी समझौते हुए हैं और निश्चित तौर पर आगत-अनागत का दोष भी हुआ है किन्तु इसके बावजूद भी कई तूफ़ानों को ख़ुद में समाहित करते हुए एक अजेय योद्धा की तरह हिन्दी पत्रकारिता अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर है।
साहित्य का सहज सामंजस्य साहित्यग्राम में दिखा, हिन्दी का अभिजात्य हिन्दीग्राम से बन रहा है, यही भाषाई सौंदर्य और मूल्यों की स्थापना का शिखर कलश रखा जा रहा है ताकि भविष्य के नौनिहाल हिन्दी पत्रकारिता पर गर्व करें यानी उन्हें हिन्दी के पत्रकार होने का घमण्ड हो।
हिन्दी पत्रकारिता दिवस की अशेष शुभकामनाओं के साथ…..

जय हिन्दी!

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
राष्ट्रीय अध्यक्ष, मातृभाषा उन्नयन संस्थान,
संपादक, ख़बर हलचल न्यूज़

www.arpanjain.com

 


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