सवाल तो विधान का था…

सवाल तो विधान का था…
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■ डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’

हस्तिनापुर के अनुबंध और करार में बंधें गुरू द्रोणाचार्य ने जब वनवासी बालक और क्षेत्रीय काबिले के सरदार के पुत्र को धनुर्विद्या सीखाने से इंकार कर दिया तो वही वनवासी बलवान एकलव्य गुरु द्रोण की मूर्ति से धनुर्विद्या सीखने लगा और पारंगत होने पर उसी के जंगल में एक कुकुर का भोंकना भी वह न सह सका और शरों से उस कुकुर के मुँह को बंद कर दिया।
तभी गुरु द्रोणाचार्य और पाण्डव उसकी प्रशस्त धनुर्विद्या को खोजते-खोजते एकलव्य से जा मिले, गुरु ने संवाद के बाद जानने पर गुरुदक्षिणा में अंगूठा मांग लिया।
सवाल तो तब भी उठे, और तब भी जब गुरु द्रोण ने धनुर्विद्या सिखाने से इंकार किया ।
जबकि सच तो यह है कि अनुबंध और विधान नाम की कोई चीज होती है, इसको लेकर बुद्धिमान प्रश्न नहीं करते और उनके अतिरिक्त अन्य को आप समझा भी दोगे तो समझ नहीं आएगी, क्योंकि नीति विरुद्ध तो आप भी हो ही।
क्या एकलव्य का दोष नहीं था कि बिना गुरु द्रोण की आज्ञा के क्यों उसने उनकी मूर्ति बनाई?
सवाल तो यह भी उठा कि एकलव्य निरीह वनवासी था, तो महाशय कोई निरीह सीधा-साधा व्यक्ति धनुर्विद्या ही क्यों सीखेगा?
धनुर्विद्या वही सीखते है जिन्हें योद्धा बनना होता है, और कबिले के सरदार का बेटा यानी उस कबिले का अगला सरदार निरीह या मूर्ख नहीं हो सकता।
खैर प्रश्न यही था न कि ‘गुरु द्रोण ने एकलव्य को क्यों धनुर्विद्या नहीं सिखाई?’ और उसके उपरांत भी ‘अँगूठा क्यों दक्षिणा में मांग लिया?’
दोनों ही प्रश्नों का जवाब केवल एक ही था, वो है ‘अनुबंध या संविधान’ ।
हस्तिनापुर को दिए वचनों में धनुर्विद्या सिखाने का अनुबंध केवल हस्तिनापुर के राजपुत्रों से था, अतिरिक्त किसी को वो सिखा नहीं सकते थे और यही जब एकलव्य ने किया तो दुनिया वाले उनके बाद ये नहीं कहें कि गुरु द्रोणाचार्य वचन के पक्के या विधान के पक्के नहीं थे इसलिए अँगूठा दक्षिणा में मांगा।
इसके अतिरिक्त एक और बात कि गुरु द्रोण भी जानते थे कि कौन किस विद्या को प्राप्त करने का अधिकारी है , एक निरीह श्वान पर अपनी विद्या का प्रयोग करने वाला धैर्यवान योद्धा हो ही नहीं सकता।

अब बात विधान, संविधान और अनुबंध की करते है-
प्रत्येक जीवन में, संस्था में, ग्राम, नगर,प्रान्त और राष्ट्र में संचालन विधान और संविधान अनुरूप होता है।
संचालन की सुस्पष्टता उसमें निहित संवैधानिक शक्तियों के कारण होती है। नियमों से बंधा जीवन अलंकार होता है।
कोई व्यक्ति हठ कर सकता है, किन्तु संस्था, राज्य, राष्ट्र हठी नहीं हो सकतें ,यदि ऐसा होता है तो उस संस्था, राज्य और राष्ट्र की अवनति तय है।
उसके संचालन हेतु बनाए गए नियमों को मानना ही होता है, उदाहरण के लिए कोई अति बुद्धिमान व्यक्ति यह कहता है कि केवल उसके लिए नियम बदल दो तो यह न संस्थान, राज्य या राष्ट्र के लिए संभव है, क्योंकि ये संवैधानिक व्यवस्था से चलने वाला तंत्र है।
संस्थान या राष्ट्र किसी का घर नहीं जो आपके व्यक्तिगत के लिए नियमों को ताक में रख दें।
उसके उपरांत भी व्यक्तिगत मदद की जा सकती है, किन्तु संस्थागत नियमों का उलंघन करके एक परिपाठी न बनाने की इच्छा भी संवैधानिक कमेटी की होती है।
नियमों को तोड़ने की प्रगाढ़ता चाहने वाले शाख से टूट जाया करते है और उसके बाद खुद के वजूद तलाशते रहते है।
वैसे जो संस्थान या राष्ट्र में दोगला चरित्र निभाते है, इधर-उधर की करने में जीते है, केवल अपना सम्मान, मंच औऱ पैगाम चाहते है वो भी तो कहाँ टिक पाते है। उनके हाथ क्या आता है वो भी जग जाहिर है। वो दो ही कोढ़ी के होते है, इसमें कोई शक भी नहीं है। यदि नियमों से बंधे रहें तो लहरों से भी मोहब्बत मिलती है, वरना ज्वार बनकर लहरें ही डूबा देती है। इसलिए संविधान और विधान का मान आवश्यक है।

*– डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’*