संकट में है अख़बार, भविष्य अधर में

संकट में है अख़बार, भविष्य अधर में

✍🏻 *डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*

‘एक समय आएगा जब अख़बार रोटरी पर छपेंगे, संपादकों की ऊँची तनख्वाह होगी, पर तब संपादकीय संस्थाएँ समाप्त हो जाएँगी।’ ऐसी बात आज़ादी के पहले बाबू विष्णु पराड़कर जी लिख गए, जो आज अक्षरश: सत्य नज़र आ रही है।
आज संपादकीय संस्थान तो विज्ञापन या कहें सर्कुलेशन विभाग के मुनाफ़े और आज्ञा पर ही जीवित हैं।
असल बात तो यह है कि हिंदुस्तानी अख़बार दुनिया का एकमात्र ऐसा हसीन उत्पाद (प्रोडक्ट) है, जो अपनी लागत मूल्य से कम से कम पाँच या दस गुना कम मूल्य में बिकता है क्योंकि शेष लाभ विज्ञापन आधारित माना जाता है।
इसी कारण संपादकीय विभाग भी विज्ञापन विभाग के दबाव में रहने लगा है।
इस मूल्य की क्षीणता के साथ ही वर्तमान समय में देशबन्दी के कारण अख़बारी दुनिया केवल खानापूर्ति मात्र हो रही है।
अख़बारों को संचालित करने वाली व्यवस्था, जिसे विज्ञापन कहते हैं, वो अख़बारों से गायब है, और जब विज्ञापन नहीं होंगे तो अख़बार कैसे ज़िंदा रहेगा!
हालात तो यह है कि देश के कई मीडिया संस्थान कर्ज़े में हैं, घाटे में हैं, कई महीनों से नियमित तनख्वाह तक दे पाने में असमर्थ हैं। इसके बावजूद कोरोना कहर के कारण वितरण भी प्रभावित है और समाचार भी।
ऐसी स्थिति में अख़बारों का प्रबंधन वेंटिलेटर पर आ जाएगा। आर्थिक रूप से टूटे हुए अख़बारी लोग तनख्वाह, भत्ते आदि से परेशान रहेंगे, नौकरियों में संकट आना स्वाभाविक है और कामगारों और पत्रकारों के लिए दुगुनी चिंता क्योंकि समय पर वेतन न मिलने का बोझ और नौकरी करने के कारण जेब से ख़र्च करके नियमित काम करने का भी तनाव। यहाँ तक कि अख़बारी काग़ज़, स्याही आदि ख़रीदी की भी चिंता। इन सबके बावजूद भी अख़बार के घटते पाठक या ग्राहक और डिजिटल मीडिया पर भरोसा करते हुए लोग भी तो अख़बारी पाठन से दूर हो रहे हैं।
वैसे भी विश्व के कई देशों में प्रिंट मीडिया ने अपना रुख इंटरनेट मीडिया की ओर काफ़ी पहले कर लिया है, बीते एक दशक से तो डिजिटल संस्करण श्रेष्ठ विकल्प बनकर उभर रहे हैं।
ऐसे मुश्किल हालात में सरकारों को भी नियमित अख़बारी छपाई को रोक कर डिजिटल संस्करण को अधिक मान्यता देनी चाहिए।
काग़ज़ भी बचेगा यानी जंगल बचेंगे और साथ में यह उद्योग भी लाभ के उद्योग में तब्दील हो पाएगा।
इस संकट की घड़ी में ही सही किन्तु सरकारें यदि नियमित छपी हुई प्रति की माँग को समाप्त कर दें तो शायद अख़बारी दुनिया भी डिजिटल की ओर रुख कर लें, वैसे भी डिजिटल संस्करण की ताक़त ज़्यादा होती है।
और अभी की देशबन्दी के हालातों के बाद तो यकीन जानिए आगामी एक वर्ष तो विज्ञापनों की आमद होने में संकट है और बिना विज्ञापन के अख़बार का भविष्य भी संकट में ही है।
कवि कुमार विश्वास कहीं लिखते है कि
‘जिसके विरुद्ध था युद्ध उसे
हथियार बना कर क्या पाया?
जो शिलालेख बनता उसको
अख़बार बना कर क्या पाया?’
आज अख़बार की दुनिया दोतरफ़ा संकट में है। मूल्यों का क्षरण तो लगातार हो ही रहा है और आर्थिक रूप से पड़ने वाली मार तो ज़्यादा संकट में डालेगी।
डिजिटल दुनिया में तो एक लाभ और भी है कि आप अपने विज्ञापनदाताओं को यह स्पष्टता के साथ बता पाओगे कि कितने लोगों ने विज्ञापन देखा जबकि अख़बार में यह सुनिश्चितता तो है ही नहीं। इसी के चलते ज़्यादा विज्ञापन मिलेंगे क्योंकि कम लागत में विज्ञापनदाताओं का लाभ अधिक है। समय रहते यदि अख़बार नहीं संभल पाए तो आर्थिक, सामाजिक और व्यवस्थाजन्य तो कमज़ोर होंगे ही, साथ में अस्तिव भी संकट में आ जाएगा। जागना आवश्यक है, वर्ना, अख़बार का भविष्य खतरे से खाली नहीं है ।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
ख़बर हलचल न्यूज़, इंदौर

शब्द की साधना और हिन्दी पत्रकारिता

शब्द की साधना और हिन्दी पत्रकारिता

◆डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

 

शब्द-शब्द मिलकर जब ध्येय को स्थापित करते हैं, शब्द-शब्द मिलकर जब राष्ट्र का निर्माण करते हैं, शब्द-शब्द मिलकर जब सत्ता का केंद्र और जन मानस का स्वर बनते हैं, शब्द-शब्द मिलकर जब व्यक्ति से व्यक्तित्व का रास्ता बनाते हैं, तब कहीं जाकर शब्द के साधकों की आत्मा के सौंदर्य का प्रतिबोध होता है।
लगभग दो शताब्दियों तक का सफ़र तय करने वाली हिन्दी पत्रकारिता, आज आपने गौरव से सुसज्जित भी है तो वहीं कालांतर में हुए बदलाव से अचंभित भी।

बंगाल की धरती पर 30 मई 1826 में पण्डित युगल किशोर शुक्ल जी ने ‘उद्दण्ड मार्तण्ड’ नामक पहले हिन्दी अख़बार का प्रकाशन कर हिन्दी पत्रकारिता के स्वर्णिम इतिहास को लिखने वाले स्वर्ण अक्षर का टंकण किया था। निःसंदेह यह स्वर्ण अक्षर देश और दुनिया को यह अनूठी सीख भी दे गया कि भारत में अनेकता में एकता का चित्र हर जगह नज़र आ सकता है। बंगाली भाषी प्रदेश से हिन्दी पत्रकारिता की नींव का रखा जाना, इसी वृहद समन्वयक भारत की तस्वीर रही है।
इतिहास साक्षी है भारत के शब्द साधकों के श्रम का और उनके अवदान का, जिसने विश्व को पत्रकारिता के नए मानक और नए बिम्ब देकर नई दिशा भी प्रदान की है।
15-16वीं सदी में आरम्भ हुई पत्रकारिता का केंद्र रोम और यूरोप हुआ करता था, उस कालखण्ड में पत्रकारिता का उद्देश्य मनोरंजनभर से इतर कुछ नहीं था, बल्कि भारत में आरम्भ होने वाली हिन्दी पत्रकारिता ने मूल्य, मानवीयता, देश प्रेम और भारत की आज़ादी का उद्देश्य स्थापित कर विश्व को यह दिखा दिया कि हर पहलू में भारतीयता सदा से नवाचार और मूल्य आधारित मानकों की स्थापना में अव्वल है।

विश्व हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास इस बात का साक्षी है कि आज दो शताब्दी बीत जाने के बावजूद भी समय के पहिये ने धधकती आग ही लिखने का साहस किया, अवसाद और कोरोना के काल में सत्ता और राजनीति के अलावा जनमानस की आवाज़ को मुखर किया, लाशों के ढेर पर बन रही लोकतंत्र की इमारतों का विरोध किया, सकारात्मक ख़बरों का बीजारोपण करते हुए उसे अंकुरित करने का प्रयास किया, बच्चों की किलकारियों को सहेजा और आने वाली पीढ़ी के लिए नज़ीर बनने का प्रयास किया।

यह भी अटल सत्य है कि जिस तरह सर्प समय आने पर अपनी केचुली बदलता है, आदमी स्नान उपरांत कपड़े बदलता है, उसी तरह, पत्रकारिता ने भी समय के साथ कदमताल करते हुए अपने स्वरूप को लगातार बदला भी है, प्रिंट से इलेक्ट्रॉनिक, इलेक्ट्रॉनिक से रेडियो और वेब, वेब से मोबाइल पत्रकारिता इसके उदाहरण हैं। इस स्वरूप के बदलाव के मध्यकाल में कई बार मूल्यों और आदर्शों के साथ भी समझौते हुए हैं और निश्चित तौर पर आगत-अनागत का दोष भी हुआ है किन्तु इसके बावजूद भी कई तूफ़ानों को ख़ुद में समाहित करते हुए एक अजेय योद्धा की तरह हिन्दी पत्रकारिता अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर है।
साहित्य का सहज सामंजस्य साहित्यग्राम में दिखा, हिन्दी का अभिजात्य हिन्दीग्राम से बन रहा है, यही भाषाई सौंदर्य और मूल्यों की स्थापना का शिखर कलश रखा जा रहा है ताकि भविष्य के नौनिहाल हिन्दी पत्रकारिता पर गर्व करें यानी उन्हें हिन्दी के पत्रकार होने का घमण्ड हो।
हिन्दी पत्रकारिता दिवस की अशेष शुभकामनाओं के साथ…..

जय हिन्दी!

*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
राष्ट्रीय अध्यक्ष, मातृभाषा उन्नयन संस्थान,
संपादक, ख़बर हलचल न्यूज़

www.arpanjain.com