सुनो,
ये सब इतना आसान नहीं था,
न ही इतना सहज था,
न हो सकता था प्रेम,
न ही हो सकता था द्वेष,
सबकुछ अचानक से नहीं हुआ,
जितने सरल रुप में दुनिया ने देखा,
गुजरे जमाने की यादों के सहारे
मैने जिया है तुम्हें, तुम्हारे रंग को..
मैने पाया नहीं तुम्हें अचानक से,
मैने जीता है तुम्हारा विश्वास, तुम्हारा प्रेम,
तब जाकर कहीं मुकम्मल हुई है
मेरे खतों के किरदार की गज़ल
हाँ !
बिलकुल वैसे ही रिश्तों से परते छँट गई,
जैसे किताबों में रखे सुखे गुलाब में आई हो जान..
मेरे किवाड़ से आने वाली हवा के
संदेशों को मैने
तु़झमे महसूस करके
पाया है तुम्हें
और तुम्हारे प्यार को…
सलामत रहें मेरा प्यार…
मेरा यार..
*डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’*
हिन्दीग्राम,इंदौर